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बीबीसी के सामने क्या विश्वसनीयता का संकट है?

बीबीसी के सामने क्या विश्वसनीयता का संकट है?

बीबीसी की निष्पक्षता को लेकर सवाल क्यों उठ रहे हैं? क्या इसकी विश्वसनीयता पर संकट आया है?

बीबीसी संकट के दौर से गुज़र रहा है। यह स्वेज़, फ़ॉकलैंड और इराक़ युद्धों के दौर वाला संकट नहीं है जो राष्ट्रीय निष्ठा और निष्पक्षता के बीच टकराव से पैदा हुआ था। यह सोशल मीडिया के युग में पैदा हुआ उस निष्पक्षता का संकट है जिसे बीबीसी के पहले महानिदेशक जॉन रीथ ने बीबीसी का पहला मूलमंत्र बताया था। जो बीबीसी और पत्रकारिता की आत्मा है।

एक ओर तो बीबीसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सबसे बड़ा मंच माना जाता है। उसके स्टार पत्रकारों को भी अपनी निजी राय रखने का उतना ही अधिकार होना चाहिए जितना बीबीसी के श्रोताओं, पाठकों और दर्शकों को है। दूसरी ओर निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता के साथ बात कहने के सिद्धान्त हैं जो स्थापना के समय से ही उसके मूलमंत्र रहे हैं और उसकी विश्वसनीयता का आधार रहे हैं।

सोशल मीडिया के इस युग में इन दोनों सिद्धान्तों के बीच सामंजस्य बिठा पाना कठिन हो गया है। ऊपर से बीबीसी की व्यावसायिक और परोपकारी शाखाओं- बीबीसी स्टूडियोज़ और बीबीसी मीडिया एक्शन के विज्ञापनों और अनुदानों के पैसे से चलने के कारण उसके व्यावसायिक हितों से ऊपर रहने के दावे पर संदेह होते हैं जो निर्मूल नहीं हैं। नीचे के लेख में इन सब प्रश्नों का मंथन तो नहीं हो पाया है लेकिन बीबीसी पर पड़ रहे राजनीतिक और छविमूलक दबावों का विश्लेषण ज़रूर है। पढ़िए:

केंद्रीय लंदन में बीबीसी के मुख्यालय, ब्रॉडकास्टिंग हाउस के बाहर एनिमल फ़ॉर्म और 1984 के लेखक और बीबीसी प्रसारक जॉर्ज ऑरवेल की एक काँस्य प्रतिमा है जिसके पीछे दीवार पर एनिमल फ़ॉर्म की भूमिका से ली गई यह पंक्ति खुदी है, "स्वतंत्रता का यदि कोई अर्थ है तो वह है लोगों को वह बताने का अधिकार जिसे वे सुनना नहीं चाहते।" इंगलैंड के पूर्व फ़ुटबॉल कप्तान और बीबीसी के लोकप्रिय खेल प्रसारक गैरी लिनेकर ने पिछले सप्ताह सुनक सरकार की नई शरणार्थी नीति की निंदा के अपने ट्वीट में बेबाक बात को कहने की स्वतंत्रता के उसी अधिकार का प्रयोग करने की कोशिश की थी। परंतु एक सार्वजनिक मीडिया संस्थान होने के नाते बीबीसी का दायित्व है कि इस स्वतंत्रता का निष्पक्षता, वस्तुनिष्ठता और रचनात्मकता के साथ प्रयोग करते हुए ऐसी सामग्री पेश करे जो जनहित में भी हो। क्योंकि बीबीसी के पहले महानिदेशक जॉन रीथ ने कहा था निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता प्रसारण की आत्मा है।

गैरी लिनेकर ने अपने ट्वीट में लिखा था, "यह ऐसी निहायत ही निर्दयी नीति है जो अत्यंत लाचार लोगों को उस भाषा में निशाना बना रही है जो तीस के दशक के जर्मनी की भाषा से बहुत भिन्न नहीं है।" 

गैरी लिनेकर को निजी तौर पर सरकार की शरणार्थी नियंत्रण नीति की निंदा या प्रशंसा करने का पूरा अधिकार है। परंतु बीबीसी प्रस्तुतकर्ता के नाते वे सार्वजनिक मंच पर ऐसी एकपक्षीय राय नहीं रख सकते जो बीबीसी के निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता के दायित्व का उल्लंघन करती हो।

समाचार और सामयिक चर्चा के कार्यक्रमों में काम करने वालों पर यह नियम और सख़्ती से लागू होता है। पर गैरी लिनेकर खेल कार्यक्रमों को पेश करते हैं और बीबीसी के नियमित कर्मचारी नहीं हैं बल्कि अनुबंध पर काम करते हैं। उन्होंने टिप्पणी भी अपने ट्विटर के मंच पर की है बीबीसी के किसी मंच पर नहीं। फिर भी जब उनके ट्वीट पर सत्ताधारी कंज़र्वेटिव पार्टी के कई दर्जन सांसदों समेत गृहमंत्री सुवेला ब्रेवरमैन ने आपत्तियाँ कीं तो बीबीसी प्रबंधकों ने उन्हें तलब किया और उनको सप्ताहांत के शो 'मैच ऑफ़ द डे' से हटा दिया गया जिसे वे पिछले 24 वर्षों से पेश करते आ रहे हैं।

इस पर विपक्षी लेबर पार्टी के सांसदों और नेताओं ने शोर मचाया और बीबीसी पर सरकार के दबाव में काम करने के आरोप लगे। गैरी लिनेकर के शो में भाग लेने वाले दूसरे खेल प्रस्तुतकर्ताओं, संवाददाताओं और खेल विशेषज्ञों ने भी लिनेकर के समर्थन में शो का बहिष्कार करने का फ़ैसला लिया जिसे एजेंसियों ने बीबीसी में बग़ावत की संज्ञा दे डाली। शनिवार का खेल शो बिना किसी प्रस्तुतकर्ता के आधा-अधूरा दिखाना पड़ा जिस पर दर्शकों के विरोध की बाढ़ आ गई। ट्विटर पर गैरी लिनेकर के चहेतों की संख्या 88 लाख है क्योंकि उनकी छवि ऐसे शालीन खिलाड़ी की रही है जिसे उसके 16 साल लंबे खेल जीवन में एक बार भी पीला या लाल कार्ड नहीं दिखाया गया।

शायद यही कारण है कि गैरी लिनेकर विवाद को सुलझाने के लिए टिम डेवी को न केवल गैरी लिनेकर को वापस बुलाना पड़ा है और दर्शकों से उनका चहेता खेल शो न दिखा पाने के लिए माफ़ी माँगनी पड़ी है, बल्कि एक समीक्षा समिति बिठानी पड़ी है जो सोशल मीडिया पर निजी राय प्रकट करने के लिए नए दिशा-निर्देश तैयार करेगी। संभावना इस बात की है कि समाचार और सामयिक चर्चा से इतर विषयों पर और अनुबंध पर काम करने वालों के लिए नियमों को फिर से ढीला कर दिया जाए। क्योंकि बीबीसी के सामने निष्पक्षता का असली संकट बीबीसी के चैयरमैन रिचर्ड शार्प को लेकर है। 

चैयरमैन का काम बीबीसी के काम पर नज़र रखने के साथ-साथ उसे सरकारी दबाव और हस्तक्षेप से बचाना है। लेकिन इस समय वे अपने ही अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं।

बीबीसी चैयरमैन की नियुक्ति सरकार की सिफ़ारिश पर ब्रितानी राजा द्वारा की जाती है। रिचर्ड शार्प विश्व के सबसे प्रतिष्ठित व्यावसायिक बैंक गोल्डमल सैक्स के बैंकर और प्रधानमंत्री ऋषि सुनक के बॉस रहे हैं। उन्होंने अपने एक बैंकर मित्र से पूर्व प्रधानमंत्री बोरीस जॉन्सन के लिए आठ लाख पाउंड के कर्ज़ की गारंटी दिलवाई थी। उनपर आरोप है कि उन्होंने यह बात उस समिति को नहीं बताई जो बीबीसी चैयरमैन पद के लिए उनके आवेदन पर विचार कर रही थी। वे कंज़र्वेटिव पार्टी को चंदा भी देते रहे हैं जिससे एहसान के बदले पद लेने का संदेह पैदा होता है। इसलिए विपक्ष उनके इस्तीफ़े की माँग कर रहा है। उनकी नियुक्ति की वैधता पर और आवेदन के समय प्रधानमंत्री को कर्ज़ दिलवाने की बात बताने की नैतिकता पर जाँच चल रही है।

बीबीसी महानिदेशक टिम डेवी के सामने इस समय दो बड़ी चुनौतियाँ हैं। पहली यह सुनिश्चित करना कि गैरी लिनेकर जैसे प्रभावशाली लोगों के लिए बनाए जाने वाले नियम न्यायसंगत हों और निष्पक्षता से लागू हों। यदि आप गैरी लिनेकर पर कार्रवाई करेंगे पर एप्रेंटिस के प्रस्तुतकर्ता एलन शुगर पर लेबर पार्टी के पूर्व नेता जैरमी कॉर्बिन के ख़िलाफ़ बोलने के बावजूद कुछ नहीं करेंगे तो सवाल उठेंगे। दूसरी यह सुनिश्चित करना है कि राजनीतिक दबाव के सामने न झुकने की नीति समान रूप से लागू हो। यदि आप भारत के प्रधानमंत्री की आलोचना करने वाली डॉक्यूमेंटरी को तो दबाव की परवाह न करते हुए दिखाएँगे परंतु डेविड एटेनबरॉ की नई शृंखला वाइल्ड आइल्स पर बनी और ब्रिटेन के पर्यावरणी विनाश की कहानी कहने वाली डॉक्यूमेंटरी को देश के दक्षिणपंथियों के भय से चैनल पर न दिखाकर केवल आइप्लेयर पर दिखाएँगे तो भी सवाल उठेंगे।

ऐसा नहीं है कि पहले बीबीसी पर सवाल न उठे हों। कंज़र्वेटिव पार्टी बीबीसी पर वामपंथी झुकाव का आरोप लगाती रही है और लेबर पार्टी दक्षिणपंथी झुकाव का। बीबीसी का सबसे गंभीर टकराव 2003 में प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर की लेबर सरकार के साथ इराकी रासायनिक हथियारों की क्षमता की रिपोर्ट को लेकर हुआ था जिसके कारण एंड्र्यू गिलिगन के साथ-साथ बीबीसी चैयरमैन गैविन डेविस और महानिदेशक ग्रेग डाइक को भी इस्तीफ़ा देना पड़ा था। दूसरा सबसे बड़ा टकराव अस्सी के दशक में मारग्रेट थैचर की कंज़र्वेटिव सरकार के साथ फ़ॉकलैंड युद्ध और उत्तरी आयरलैंड में चल रही हिंसा को लेकर हुआ था। इसके बाद ऐन 1983 के आमचुनाव से पहले बीबीसी ने अपने साप्ताहिक स्तंभ पैनोरामा में श्रीमती थैचर पर एक डॉक्यूमेंटरी दिखाई थी जिसके शीर्षक 'मैगीज़ मिलिटेंट टेंडेंसीज़' ने खलबली मचा दी थी।

दिलचस्प बात यह है कि बीबीसी की निष्पक्षता को लेकर जितने सवाल ब्रिटेन में उठते रहे हैं उतने ही विदेशों में भी उठे हैं। दक्षिण एशिया में भारत और पाकिस्तान दोनों की सरकारों को बीबीसी की निष्पक्षता पर संदेह रहे हैं। परंतु बीबीसी को मालूम है कि कई बार शिकायतें इसलिए भी होती हैं क्योंकि सब पक्षों को कुछ अपेक्षाएँ रहती हैं। यही उसकी असली शक्ति भी है। इसलिए यदि उसे अपना अस्तित्व बनाए रखना है तो जॉन रीथ की बातें याद रखते हुए सबसे पहले अपनी निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता को बचाना होगा।

(प्रभात ख़बर से साभार)

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