देशप्रेम की कसौटी है मुस्लिमों पर अत्याचार के ख़िलाफ़ खुलकर बोलना!

06:33 pm Oct 22, 2024 | पंकज श्रीवास्तव

“कहीं का भी अन्याय हर जगह न्याय के लिए ख़तरा है। हम पारस्परिकता के अपरिहार्य नेटवर्क में फँसे हैं… जो कुछ भी सीधे प्रभावित करता है, वह सभी को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है।”

यह बर्मिंघम सिटी जेल से लिखे गये मार्टिन लूथर किंग जूनियर के मशहूर पत्र का हिस्सा है। 16 अप्रैल 1963 को लिखा गया यह ‘खुला पत्र’ स्थानीय श्वेत पादरियों द्वारा लिखे गये ‘एकता के आह्वान’ के जवाब में लिखा गया था जिन्होंने किंग जूनियर को ‘बाहरी’ बताते हुए अलबामा राज्य की शांति भंग करने का आरोप लगाया था। उनका कहना था कि अश्वेतों को अन्याय के ख़िलाफ़ नागरिक प्रतिवाद आयोजित करने के बजाय अदालतों का रुख़ करना चाहिए और किसी भी स्थिति में धैर्य बनाये रखना चाहिए। लेकिन जेल से ‘खुला पत्र’ जारी करके मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने ‘एकता’ के नाम पर नस्लवादी यथास्थिति बनाये रखने के छद्म को उजागर कर दिया।

14 अप्रैल 1968 को किंग जूनियर की गोली मारकर हत्या कर दी गयी। लेकिन शहीद किंग जूनियर और उनका बर्मिंघम जेल से लिखा गया पत्र पूरी दुनिया में नागरिक अधिकार आंदोलनों के लिए किसी मशाल की तरह हैं। वे बार-बार हमें सचेत करते हैं कि अगर आप कहीं भी अन्याय को देखकर चुप हैं तो पूरा ख़तरा है कि आपको भी न्याय न मिले जब आप अन्याय के शिकार हों।

इसकी तुलना भारत से करें तो एक भयावह सच से सामना होता है। सिर्फ़ मुसलमान होने की वजह से देश के करोड़ों नागरिकों के प्रति होने वाला भेदभाव और घृणा अब उस स्तर पर है जहाँ नरसंहार होने की आहट सुनाई पड़ती है। लेकिन बड़ी आबादी चुप है। धार्मिक उन्माद से भरी भीड़ उनकी सरेआम लिंचिंग कर देती है, उनसे लाठी डंडों के ज़ोर पर जयश्रीराम कहलाया जाता है और कोई कार्रवाई नहीं होती है। आलम ये है कि एक वर्दीधारी रेलवे सुरक्षाकर्मी सिर्फ़ कपड़े और दाढ़ी देखकर उन्हें गोलियों से भून देता है। साथ में ये भी कहता है कि भारत में रहना है तो मोदी-योगी कहना होगा। सत्ता संरक्षण में एक नागरिक के रूप में गरिमापूर्ण जीवन का संवैधानिक अधिकार मुसलमानों से छीनने की कोशिश की जा रही है। कुछ नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं ओर इने-गिने राजनेताओं को छोड़ दें तो तमाम शरीफ़ लोग भी अन्याय से आँख बचाकर इस दौर के पार हो जाने का इंतज़ार कर रहे हैं। वे भूल जाते हैं कि ऐसा करके वे अपने लिए न्याय की संभावनाओं को ख़त्म कर रहे हैं।

भारत में मुसलमानों के साथ होने वाले अन्याय के ख़िलाफ़ ये खुलकर बोलने का वक़्त है। ऐसा न करना आइडिया ऑफ़ इंडिया यानी भारत नाम के विचार के साथ ग़द्दारी है। जो लोग हिंदू होने की वजह से इसे किसी ग़ैर का मसला समझ रहे हैं, वे अनजाने में अपने धर्म को छोड़कर ‘अधर्म’ का साथ दे रहे हैं। देश और धर्म का तक़ाज़ा है कि इस अन्याय के ख़िलाफ़ खुलकर बोलें।

बहराइच में हुई हालिया सांप्रदायिक हिंसा उस प्रपंच का एक नमूना भर है जिसका निशाना आम मुसलमान हैं। बहराइच के बीजेपी विधायक सुरेश्वर सिंह ने अपनी ही पार्टी के आठ लोगों के ख़िलाफ़ दंगा भड़काने की एफआईआर दर्ज कराई है जो देश और उत्तर प्रदेश पर राज कर रही बीजेपी की घृणित रणनीति को बेपर्दा करती है। ऐसे तमाम वीडियो सामने हैं जिसमें दंगाई कह रहे हैं कि पुलिस ने दो घंटे का समय दिया था, लेकिन ठीक से साथ नहीं दिया वरना पूरा महाराजगंज क़स्बा साफ़ कर देते। मतलब जितने भी मुस्लिमों के घर और दुकानें हैं, जला दी जातीं। तमाम और वीडियो सोशल मीडिया पर तैर रहे हैं जिसमें मुस्लिम नौजवान से लेकर बुज़ुर्ग तक आँख में आँसू लिए सवाल कर रहे हैं कि आख़िर उनका क़सूर क्या है? वे तो घटनास्थल (जहाँ हरा झंडा उतारकर भगवा झंडा लहराने की कोशिश में एक नौजवान की जान गयी) से कई किलोमीटर दूर रहते हैं, उनका कोई लेना-देना नहीं था, फिर भी उनका घर क्यों जलाया गया? दुकानें क्यों फूँकी गयीं? उन्हें मारा-पीटा क्यों गया?

भारत का स्वतंत्रता संग्राम इस लिहाज़ से अनूठा रहा है कि इसने अहिंसक प्रतिवाद संगठित करते हुए एक ऐसे आधुनिक राष्ट्र-राज्य की नींव डाली जिसमें धर्म, क्षेत्र, भाषा या नस्ल के भेद के बिना सब बराबर माने गये।

अतीत का भारत सैकड़ों छोटे-बड़े राज्यों में बँटा एक भूभाग था जिसमें समय-समय पर प्रतापी राजा, सम्राट या बादशाह हुए जिन्होंने तलवार के बल पर एक बड़ा राज्य क़ायम करने में कामयाबी पायी जो उनके बाद की कुछ पीढ़ियों तक चला। लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन ने कन्याकुमारी के शोक को कश्मीर के शोक से जोड़कर साम्राज्यवाद के ख़िलाफ एक विराट जनशक्ति निर्मित की और समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के आधार पर एक नया राज्य क़ायम किया। एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक संविधान को सर्वोच्च स्थान दिया जिस पर शासकों के आने-जाने से फ़र्क़ नहीं पड़ता।

लेकिन आज़ादी के अमृतकाल में भारत को बँटवारे की दुखद स्मृतियों से उलझाया जा रहा है। मुसलमानों को इसका गुनहगार बताते हुए बदला लेने का आह्वान किया जा रहा है। जबकि भारतीय मुसलमानों के पुरखे मुहम्मद अली जिन्ना को नहीं, महात्मा गाँधी और नेहरू को मानने वाले थे इसलिए उन्होंने इस्लाम के नाम पर बनाये गये पाकिस्तान को छोड़कर भारत में रहना क़बूल किया जहाँ उनकी स्थिति हर हाल में ‘अल्पसंख्यक’ वाली रहनी थी।

सरदार पटेल ने 1950 में एक भाषण में कहा था कि,

“हमारा एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है…यहाँ हर एक मुसलमान को यह महसूस करना चाहिए कि वह भारत का नागरिक है और भारतीय होने के नाते उसका समान अधिकार है। यदि हम उसे ऐसा महसूस नहीं करा सकते तो हम अपनी विरासत और इस देश के लायक़ नहीं।” ( आज़ादी के बाद का भारत, लेखक- बिपन चंद्र) 

मोदी से लेकर योगी तक सरदार पटेल के गुण गाते नहीं थकते। लेकिन उनके शासन को सरदार पटेल की इस कसौटी पर कस कर देखिए। उनके राज में किसी भी आम मुसलमान को पाकिस्तानी कहा जा सकता है, आतंकवादी कहा जा सकता है। देश के प्रति उसकी निष्ठा पर संदेह किया जा सकता है। इतना ही नहीं, तमाम धार्मिक जुलूसों के पहिये किसी मस्जिद के सामने थम जाते हैं और मुसलमानों के प्रति गालियों से भरी नारेबाज़ी शुरू हो जाती है। हरे रंग का धार्मिक झंडा उतारकर भगवा फहराने में वीरता समझी जाती है। हद तो ये है कि ऐसे जुलूसों में भजनों की जगह ऐसे मुसलमानों के प्रति घृणा से भरे उत्तेजक गाने बजाये जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में ये उम्मीद भी की जाती है कि कोई प्रतिक्रिया न हो। मुस्लिम सांसद को लोकसभा के अंदर गाली दी जा सकती है लेकिन प्रधानमंत्री के मुँह से एक शब्द नहीं निकलता।

मुसलमान अब देश में तभी स्वीकार है जब वह एपीजे अब्दुल कलाम जैसी प्रतिभा रखता हो लेकिन हिंदू के लिए महात्मा गांधी नहीं नाथूराम गोडसे को आदर्श मानना सिखाया जा रहा है।

कथित मुख्यधारा का मीडिया घृणा की आग में घी डालने में रात-दिन जुटा है। यही वजह है कि बहराइच में छत की रेलिंग तोड़कर हरा झंडा उतारने और भगवा झंडा लगाने की कोशिश में गोली का शिकार बने नौजवान के शव के साथ वीभत्स अत्याचार का झूठ प्रचारित किया गया। हद तो ये है कि पिछले दिनों ग़ाज़ियाबाद के एक घर में खाना बनाने वाली रीना कुमारी को ‘रुबीना ख़ातून’ बताकर प्रचारित किया गया। रीना कुमारी अपने पेशाब से आटा गूँथते हुए सीसीटीवी में क़ैद हुई थी।

ज़ाहिर है, यह सब एक राजनीतिक प्रोजेक्ट का हिस्सा है। आज़ादी के आंदोलन में अंग्रेज़ों के साथ खड़ा रहा आरएसएस तमाम भ्रम फैलाकर आज जब सत्ता में है तो वह आज़ादी के आंदोलन के तमाम संकल्पों को उलटने में जुटा है। हिंदू समाज में जितनी भी कुरीतियाँ हैं उनसे ध्यान हटाने के लिए उसने मुस्लिम विरोधी घृणा को ‘एकता’ का आधार बनाया है। ख़ासतौर पर सोशल मीडिया का उपयोग करते हुए मुसलमानों को रात-दिन शैतान और भारत विरोधी जिहादी बताने का अभियान जारी है। कॉरपोरेट मीडिया तो साथ है ही। किसी सभ्य देश में अदालतें इस पर सख़्त कार्रवाई करतीं लेकिन यहाँ तो एक केंद्रीय मंत्री की सार्वजनिक रूप से की गयी हिंसक नारेबाज़ी को यह कहकर दरकिनार कर दिया जाता है कि उसने ऐसा ‘मुस्कराते' हुए कहा था।

ऐसा नहीं कि मुसलमानों में सब फ़रिश्ते ही हैं। उनमें भी अपराधी हैं, माफ़िया हैं, चोर हैं, बेईमान हैं जैसे कि हिंदुओं में या अन्य किसी भी धर्म में हैं। लेकिन ऐसे लोगों के अपराध की सज़ा तय करना अदालतों का काम है। और किसी भी अपराध के लिए क़ानून बुलडोज़र से घर तोड़ने की सज़ा नहीं देता जैसा कि आज मुसलमानों के ख़िलाफ़ बात-बात में कार्रवाई होती है। यह न्याय व्यवस्था के नाश का संकेत है। वरना लोग बिना मुक़दमा शुरू हुए बग़ैर ज़मानत चार-पाँच साल तक जेल में न काट रहे होते जैसा कि जेएनयू के पूर्व छात्र उमर ख़ालिद के साथ हो रहा है।

साफ़ तौर पर यह सवाल अब हिंदुओं से पूछा जाना चाहिए कि धर्म के नाम पर हो रहा यह अधर्म कब तक बर्दाश्त करोगे। वेदांत तो संपूर्ण संसार को ब्रह्म की अभिव्यक्ति मानता है तो मुस्लिम इससे बाहर कैसे हुए? स्वामी विवेकानंद ने ‘इस्लामी शरीर और वेदांती मस्तिष्क के मेल को भारत का भविष्य’ बताया था तो उनका साथ कैसे दे सकते हो जो इस मेल को नष्ट करके भविष्य को गर्त में डालना चाहते हैं? अगर मुसलमानों के साथ हर कदम पर होने वाले अन्याय को बर्दाश्त करोगे तो कल तुम्हारे साथ भी न्याय नहीं होगा। यह मार्टिन लूथर किंग जूनियर की चेतावनी को याद करने का सबसे ज़रूरी वक़्त है।

पुनश्च: इस लेख की शुरुआत में जनसंहार की आशंका व्यक्त की गयी है। यह कोई कपोल कल्पना नहीं है। नवंबर 2021 में यूएस हॉलोकास्ट म्यूज़ियम ने भारत को उन देशों की सूची में शीर्ष पर रखा था जहाँ अल्पसंख्यकों का जनसंहार हो सकता है। 2022 की जनवरी में ‘जेनोसाइड वॉच’ के संस्थापक ग्रेगरी स्टेंटन ने अमेरिकी कांग्रेस के सामने भी इसी तरह की रिपोर्ट रखी थी। उन्होंने ‘हरिद्वार धर्म संसद’ में मुस्लिमों के सफाये की अपील करने वाले सार्वजनिक भाषणों का उदाहरण देते हुए चेतावनी दी थी कि भारत में जनसंहार हो सकते हैं। ग्रेगरी स्टेंटन वही हैं जिन्होंने 1989 में अफ्रीकी देश रवांडा के बारे में ऐसी ही चेतावनी जारी की थी जो 1994 में सही साबित हुई थी।