मुसलिम नेता असदुद्दीन ओवैसी देश में लगातार संगठित और मज़बूत होते हिंदू राष्ट्रवाद के समानांतर अल्पसंख्यक स्वाभिमान और सुरक्षा का तेज़ी से ध्रुवीकरण कर रहे हैं। यह काम वे अत्यंत चतुराई के साथ संवैधानिक सीमाओं के भीतर कर रहे हैं। मुमकिन है कि उन्हें कांग्रेस सहित अन्य राजनीतिक दलों के उन अल्पसंख्यक नेताओं का भी मौन समर्थन प्राप्त हो जिन्हें हिंदू राष्ट्रवाद की लहर के चलते इस समय हाशिये पर डाला जा रहा है।
बिहार के चुनावों में जो कुछ प्रकट हुआ है उसके अनुसार, ओवैसी का विरोध अब न सिर्फ़ बीजेपी के हिंदुत्व तक ही सीमित है बल्कि वे तथाकथित धर्म निरपेक्ष राजनीति को भी अल्पसंख्यक हितों के लिए ख़तरा मानते हैं। बिहार चुनाव में बीजेपी के ख़िलाफ़ विपक्षी गठबंधन का समर्थन करने के सवाल पर वे इस तरह के विचार व्यक्त भी कर चुके हैं।
ओवैसी को लेकर बीजेपी पर आरोप
पृथक पाकिस्तान के निर्माता मुहम्मद अली जिन्ना की अविभाजित भारत की राजनीति में उदय को लेकर जो आरोप तब कांग्रेस पर लगाए जाते रहे, वैसे ही इस समय ओवैसी को लेकर बीजेपी पर लग रहे हैं। जिन्ना की तरह ओवैसी अल्पसंख्यकों के लिए किसी अलग देश की माँग तो निश्चित ही नहीं कर सकेंगे पर देश के भीतर ही उनके छोटे-छोटे टापू खड़े करने की क्षमता अवश्य दिखा रहे हैं।
कहा जा सकता है कि जिन्ना के बाद ओवैसी मुसलिमों के दूसरे बड़े नेता के रूप में उभर रहे हैं।
जिन्ना की तरह ही ओवैसी ने भी विदेश से पढ़ाई करके देश की मुसलिम राजनीति को अपना कार्यक्षेत्र बनाया है। ओवैसी ने भी क़ानून की पढ़ाई लंदन के उसी कॉलेज (Lincoln’s Inn London) से पूरी की है जहां से जिन्ना बैरिस्टर बनकर अविभाजित भारत में लौटे थे।
ओवैसी का शुमार दुनिया के सबसे प्रभावशाली पाँच सौ मुसलिम नेताओं में है। उनकी उम्र अभी सिर्फ़ 51 साल है। भारत में नेताओं की उम्र देखते हुए कहा जा सकता है कि ओवैसी एक लम्बे समय तक मुसलिम राजनीति का नेतृत्व करने वाले हैं।
ममता दीदी चिंतित
बिहार में मुसलिम-बहुल क्षेत्रों की पाँच सीटें जीतने के बाद ओवैसी के पश्चिम बंगाल के चुनावों में भाग लेने के फ़ैसले से ममता बनर्जी का चिंतित होना ज़रूरी है पर वह बेमायने भी हो गया है। ऐसा इसलिए क्योंकि ओवैसी बंगाल में वही करना चाह रहे हैं जो ममता बनर्जी इतने सालों से करती आ रहीं थीं और अब अपने आपको मुक्त करने का इरादा रखती हैं।
ओवैसी ममता को बताना चाहते हैं कि उन्होंने बंगाल के अल्पसंख्यकों का यक़ीन खो दिया है। इसका फ़ायदा निश्चित रूप से बीजेपी को होगा पर ओवैसी को इसकी अभी चिंता नहीं है।
बीजेपी ने ममता की जो छवि 2021 के विधानसभा चुनावों के लिए प्रचारित की है वह यही कि राज्य की मुख्यमंत्री मुसलिम हितों की संरक्षक और हिंदू हितों की विरोधी हैं। इस तर्क के पक्ष में वे तमाम निर्णय गिनाए जाते हैं जो राज्य की 27 प्रतिशत मुसलिम आबादी के लिए पिछले सालों में ममता सरकार ने लिए हैं।
देखिए, ओवैसी की राजनीति पर चर्चा-
बंगाल में क्या होगा
देखना यही बाक़ी रहेगा कि बंगाल के मुसलिम मतदाता ओवैसी के साथ जाते हैं या फिर वैसा ही करेंगे जैसा वे पिछले चुनावों में करते रहे हैं। मुसलिम मतदाता ऐसी परिस्थितियों में ऐसे किसी भी उम्मीदवार के पक्ष में अपना वोट डालते रहे हैं जिसकी बीजेपी या उसके द्वारा समर्थित प्रत्याशी के विरुद्ध जीतने की सबसे ज़्यादा सम्भावना हो, फिर चाहे वह ग़ैर-मुसलिम ही क्यों न हो।
बिहार के मुसलिम मतदाताओं ने 2015 के चुनाव में ओवैसी के बजाय नीतीश का इसलिए समर्थन किया था क्योंकि तब वे बीजेपी के ख़िलाफ़ आरजेडी के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे थे। इस बार उन्होंने विपक्षी महागठबंधन का भी इसलिए समर्थन नहीं किया कि उसमें शामिल कांग्रेस ने नागरिकता क़ानून, तीन तलाक़ और मंदिर निर्माण आदि मुद्दों को लेकर अपना रुख़ स्पष्ट नहीं किया।
बीजेपी को ओवैसी जैसे नेताओं की उन तमाम राज्यों में ज़रूरत रहेगी जहां मुसलिम आबादी का एक निर्णायक प्रतिशत उसके विपक्षी दलों के वोट बैंक में सेंध लगा सकता है। इनमें असम सहित उत्तर-पूर्व के राज्य भी शामिल हो सकते हैं।
बीजेपी को होगा फ़ायदा
ओवैसी अपनी कट्टरवादी सोच के साथ मुसलिम आबादी का जितनी तीव्रता से ध्रुवीकरण करेंगे उससे ज़्यादा तेज़ी के साथ बीजेपी को उसका राजनीतिक लाभ पहुँचेगा। बीजेपी सहित किसी भी बड़े राजनीतिक दल ने अगर बिहार में चुनाव प्रचार के दौरान ओवैसी के घोषित-अघोषित एजेंडे पर प्रहार नहीं किए तो उनकी राजनीतिक मजबूरियों को समझा जा सकता है।
ममता बनर्जी मुसलिम मतदाताओं से खुले तौर पर यह नहीं कहना चाहेंगी कि वे अगर तृणमूल के उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ ओवैसी की पार्टी को वोट देंगे तो वे फिर से मुख्यमंत्री नहीं बन पाएंगी और इससे उनके ही (मुसलिमों के) हितों पर चोट पड़ेगी।
ओवैसी का स्टैंड
बिहार में अपने उम्मीदवारों की जीत के बाद ओवैसी ने कहा था कि ये नतीजे उन लोगों के लिए संदेश हैं जो सोचते हैं कि उनकी पार्टी को चुनावों में भाग नहीं लेना चाहिए। उन्होंने कहा था, ‘क्या हम कोई एन.जी.ओ. हैं कि हम सिर्फ़ सेमिनार करेंगे और पेपर पढ़ते रहेंगे हम एक राजनीतिक पार्टी हैं और सारे चुनावों में भाग लेंगे।’
अतः अब काफ़ी कुछ साफ़ हो गया है कि ओवैसी का एजेंडा बीजेपी के ख़िलाफ़ मुसलिमों द्वारा उस विपक्ष को समर्थन देने का भी नहीं हो सकता जो अल्पसंख्यक मतों को बैसाखी बनाकर अंततः बहुसंख्यक जमात की राजनीति ही करना चाहता है। कांग्रेस के कमज़ोर पड़ जाने का बुनियादी कारण भी यही है।
बंगाल चुनाव के नतीजे ना सिर्फ़ बीजेपी का भविष्य तय करेंगे, बल्कि तृणमूल कांग्रेस की कथित अल्पसंख्यक परक नीतियों और सबसे अधिक तो ओवैसी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए निर्णायक साबित होंगे। बीजेपी अगर विपक्ष-मुक्त भारत के निर्माण में लगी है तो उसमें निश्चित ही ओवैसी की पार्टी को शामिल करके नहीं चल रही होगी!