गृह मंत्री अमित शाह जब कश्मीर पहुंचे तो स्नाइपर्स गन वाली सुरक्षा का घेरा था, 700 से ज्यादा लोगों की गिरफ्तारी हो चुकी थी, इंटरनेट बंद, सड़कों पर आवाजाही खत्म और अतिरिक्त सुरक्षा बलों की तैनाती के बीच सड़कों पर ऐसी चौकसी थी जो यदा-कदा ही देखने को मिलती है। कहने की जरूरत नहीं है कि कश्मीरी अगर डर के साए में जी रहे हैं तो कश्मीर में हिन्दुस्तान का गृह मंत्री भी निडर होकर घूम-फिर नहीं सकता।
क्या हैं शाह के बयान के मायने?
गृह मंत्री अमित शाह ने कुछ बातें कही हैं जिसके दो मायने हैं। गौर करें-
- एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब कश्मीर भारत के विकास के लिए योगदान करेगा।
- लेने वाला नहीं, भारत को देने वाला प्रदेश बनेगा कश्मीर।
- घाटी में बदलाव को कोई रोक नहीं सकता।
स्पष्ट है कि गृह मंत्री के कहने का छिपा हुआ मतलब यह भी है कि अब तक भारत के विकास में कश्मीर का योगदान नहीं रहा है। यह सिर्फ लेने वाला प्रदेश रहा है। घाटी में बदलाव हर हाल में (ज़ोर-ज़बरदस्ती से भी इनकार नहीं) बदलाव लाया जाएगा। निश्चित रूप से इन बातों से कश्मीर के लोग खुश नहीं हो सकते। यह ताकत की भाषा है और कश्मीर के लोगों के सम्मान पर चोट पहुंचाने वाली है।
वाजपेयी की कश्मीर नीति से भटकी सरकार
कश्मीर के लोग तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को याद करते हैं जिन्होंने इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत के तीन मंत्र फूंके थे। आज इनमें से किसी की भी बात करने के लिए केंद्र की बीजेपी सरकार तैयार नहीं है।
जम्हूरियत को परिसीमन का काम पूरा होने से जोड़ दिया गया है मानो परिसीमन ही जम्हूरियत की शर्त हो। यह कब होगा इसे बताने के लिए भी केंद्र सरकार तैयार नहीं।
बंट चुका है कश्मीर
वाजपेयी सरकार में उपप्रधानमंत्री और गृह मंत्री रहे लालकृष्ण आडवाणी ने सन् 2000 में आरएसएस का वह प्रस्ताव खारिज कर दिया था जिसमें जम्मू-कश्मीर को तीन हिस्सों में बांटने और उन्हें केंद्र शासित प्रदेश बनाने की वकालत की गयी थी। मगर, उसी आरएसएस के प्रस्ताव को 19 साल बाद केंद्र सरकार में बीजेपी के नये नेतृत्व ने स्वीकार कर लिया। कश्मीर आज बंट चुका है।
शाह की भाषा में धौंस-पट्टी हावी
गृह मंत्री अमित शाह कहते हैं कि वे संसद में किए गये अपने वादे पर कायम हैं। सवाल यह है कि यह वादा शाह ने क्या जम्मू-कश्मीर के लोगों से पूछकर किया था? अगर नहीं, तो एक बार फिर वे कश्मीर के लोगों को चिढ़ा रहे है या फिर अपनी धौंस-पट्टी समझा रहे हैं।
धारा 370 हटने के बाद घाटी में बदला क्या है? 5 अगस्त 2019 के पहले भी आतंकी घटनाएं थीं, आज भी हैं। तब भी भारत-पाक सीमा पर घुसपैठ की घटनाएं थीं, आज भी हैं। तब भी सीज़ फायर उल्लंघन की घटनाएं थीं, आज भी हैं।
टारगेट किलिंग बढ़ी
नागरिकों की मौत, आतंकियों से मुठभेड़ की संख्या और घर छोड़कर आतंकी संगठनों में शामिल होने की युवाओं में होड़ घटी नहीं है बल्कि बढ़ी है। आतंकी भी मारे जा रहे हैं, सुरक्षा बल भी, और नागरिकों को भी अपनी जानें गंवानी पड़ रही है। 5 अगस्त 2019 के पहले टारगेट किलिंग का प्रचलन नहीं था। अब टारगेट किलिंग बहुत बढ़ गयी है।
नहीं पैदा होती उम्मीद
गृह मंत्री अमित शाह के कश्मीर दौरे पर पहुंचने से स्थानीय लोगों में कोई उम्मीद पैदा नहीं हुई है। ऐसी कोई उम्मीद पैदा करना उनका मकसद भी नहीं दिखता। अमूमन अलगाववादी आंदोलन से प्रभावित इलाकों में नेता जब पहुंचते हैं तो स्टेक होल्डर्स को विश्वास में लेने की पहल की जाती है। जेल में बंद लोगों को छोड़ा जाता है, मुकदमे हटाए जाते हैं या फिर ऐसी ही घोषणा का एलान होता है। मगर, गृह मंत्री अमित शाह के कश्मीर दौरे को लेकर ऐसी कोई पहल नहीं हुई।
ऐसा लगता है कि अमित शाह कश्मीर के बजाए शेष हिन्दुस्तान को संबोधित करने की परंपरा को ही आगे बढ़ा रहे हैं। कश्मीर पहुंचकर ‘हिन्दुस्तान सरकार को ललकारने वाली शक्तियों को जवाब देने का जज्बा’ दिखाकर वे सीना फुला रहे हैं। इससे यूपी समेत पांच राज्यों में होने वाले चुनावों में वे अलग किस्म से संदेश देते दिख रहे हैं।
बेकाबू हो चुका है कश्मीर: मलिक
जम्मू-कश्मीर के पूर्व उप राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने खुलकर कहा है कि उनके समय में कश्मीर में स्थिति नियंत्रण में थी और अब यह बेकाबू हो चुका है। इसका मतलब साफ है कि जम्हूरियत को लेकर स्थिति प्रतिकूल हुई है। ऐसे में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को शुरू करना मुश्किल होगा। परिसीमन के बहाने इसे अधिक दिनों तक रोका जाता है तो इसके अच्छे परिणाम नहीं आएंगे।
जून 2021 में जब प्रधानमंत्री ने कश्मीर के नेताओं से मुलाकात और बात की थी तब ऐसा लगा था कि केंद्र सरकार का रुख कश्मीर को लेकर कुछ बदला है।
मगर, 2021 के अंत की ओर बढ़ते-बढ़ते यह साफ हो चुका है कि केंद्र सरकार के रुख में कतई बदलाव नहीं हुआ है। न तो धमकी देने का अंदाज बदला है और न ही अपने किए पर कोई पछतावा ही नज़र आता है।
प्रदेश का दर्जा देना नाकाफ़ी
स्टेटहुड वापस देना यानी फिर से कश्मीर को प्रदेश का दर्जा दे देने का भरोसा स्थानीय लोगों में कतई आकर्षण पैदा नहीं करता। यह संभव हो जाने के बावजूद कश्मीर के लोगों को कुछ नया मिलता नहीं दिख रहा है।
असल बात है राजनीतिक दलों और नेताओं के साथ बातचीत। बातचीत जितनी जल्दी शुरू की जाएगी, विश्वास बहाली की कोशिशों के सफल होने की संभावना और अधिक बढ़ जाएगी। मगर, ऐसी पहल सामने नहीं आ रही है जो चिंता की बात है।