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शाह उवाच सवर्ण श्रेष्ठता का प्रतीक? आंबेडकर अपमानित हुए

शाह उवाच सवर्ण श्रेष्ठता का प्रतीक? आंबेडकर अपमानित हुए

आंबेडकर पर अमित शाह के बयान से क्या संदेश जाता है? क्या वह सवर्ण श्रेष्ठता दिखा रहे हैं? आंबेडकर के अलावा भगवान्, सात जन्म और स्वर्ग के नाम लेकर क्या गृहमंत्री लम्बे समय तक विवादों में नहीं घिर गए?

“हिन्दू धर्म विभीषिकाओं का वास्तविक घर है।” (डॉ. आंबेडकर, अन्निहिलेशन ऑफ़ कास्ट,पृ. 2O)

“मैंने पूर्ण जागरूकता के साथ यह खतरा मोल लिया है। मैं परिणामों से डरता नहीं हूँ। यदि मैं जनता को आंदोलित करने में कामयाब रहता हूँ तो मुझे ख़ुशी होगी।” (डॉ. आंबेडकर, अप्रकाशित लेखन - रिडल्स इन हिन्दुइस्म, पृ. 9 )

वंचित वर्ग के प्रेरणा पुंज डॉ. भीमराव आंबेडकर पर गृहमंत्री अमित शाह का बाबा साहब पर उवाच ने संसद के भीतर ही नहीं, बाहर भी प्रतिवाद का तूफ़ान खड़ा कर दिया है। उन्होंने राज्यसभा में बाबा साहब आंबेडकर के बार बार नाम लेने को ‘फैशन’ की संज्ञा दी थी। उनका उवाच था “ अभी एक फैशन हो गया है- आंबेडकर, आंबेडकर, आंबेडकर, आंबेडकर, आंबेडकर, आंबेडकर। इतना नाम अगर भगवान् का लेते तो सात जन्मों तक स्वर्ग मिल जाता।” सवर्ण वर्ग के अमित शाह के इस उवाच से पैदा प्रतिकार व प्रतिरोध का तूफान संसद परिसर की चार दीवारी तक ही सीमित रहने वाला नहीं है। बल्कि,यह देश में सवर्ण बनाम असवर्ण के बहु आयामी टकराव को जन्म दे सकता है। इसमें सामाजिक+सांस्कृतिक+ राजनीतिक विस्फोटों के काफी तत्व निहित हैं। आंबेडकर के अलावा भगवान्, सात जन्म और स्वर्ग के नाम लेकर गृहमंत्री शाह लम्बे समय तक विवादों में घिरे रहेंगे और भाजपा की चुनाव रणनीति भी प्रभावित होगी।

आइये, इन चार शब्दों: आंबेडकर, भगवान्, सात जन्म और स्वर्ग का विश्लेषण किया जाए। शाह जी का मुख्य तर्क या शिकायत यह है कि आंबेडकर के नाम की माला क्यों जपी जा रही है। बिल्कुल सही है। देश के दलित डॉ. आंबेडकर की पूजा भगवान् के रूप में करते हैं। निश्चित ही दलित समाज में ‘आंबेडकर कल्ट’ है। लेखक का यह निजी अनुभव भी है। लेकिन, यह इस कल्ट संस्कृति का उद्गम कहां से है? निश्चित ही, विभिन्न श्रेणियों में विभाजित हिन्दू समाज के शिखर श्रेणी में कल्ट का स्रोत है। इतिहास में पिछड़े समाज शक्तिशाली व सत्ताधारी वर्गों का अनुसरण करते रहे हैं। सो, इस दृष्टि से भारत के वंचित समाज भी अपवाद नहीं हैं। अब अमित शाह जी से यह पूछा जाना चाहिए कि डॉ. आंबेडकर किस पृष्ठभूमि, मूल्यों और संवैधानिक मार्ग दर्शन के प्रतीक हैं? 

निश्चित ही बाबा साहेब उस सामाजिक पृष्ठभूमि से आते हैं जोकि हज़ारों साल से सवर्ण वर्गों की स्पृश्यता और अस्पृश्यता की शिकार रहती रही है। क्या शाह जी को मनुस्मृति की व्यवस्था को याद दिलाने की ज़रूरत है। डॉ. आंबेडकर ने सही कहा था कि राजनैतिक स्वतंत्रता से कहीं अधिक बड़ी है ‘सामाजिक स्वतंत्रता’। इसलिए, उन्हें ‘जाति का विनाश’ (annihilation of caste) लिखने की ज़रूरत हुई। शाह जी, ज़रा सोचें, यदि 1932 में पुणे में गांधी-आंबेडकर पैक्ट नहीं हुआ होता, तब क्या होता? याद रखें, आज़ादी से पहले और आज भी दलित समुदाय की संख्या सवर्णों से काफी अधिक है। यदि गुलाम भारत के दलित (गाँधी जी की भाषा में हरिजन और संविधान की भाषा में अनुसूचित जाति) आज़ादी के आंदोलन का संगठित विरोध करने पर उत्तर आते और अंग्रेज़ों के साथ खड़े हो जाते, तो क्या 15 अगस्त, 1947 को आसानी से आज़ादी मिल जाती? मत भूलें, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने आज़ादी के आंदोलन का बहिष्कार-सा ही किया था। यह भी याद करें, जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, जिन्होंने हिन्दू महासभा के नेता के रूप में बंगाल में मुस्लिम लीग की सरकार में मंत्रिपद स्वीकार किया था, ने 42 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन को कुचलने के लिए बरतानिया सरकार से अनुरोध भी किया था। ज़रा, इतिहास के सफों को पलटें।

लेकिन, शाह जी के ताज़ा उवाच में डॉ. आंबेडकर के प्रति सवर्ण वर्चस्व की गंध-सी उठती है। यदि यह लेखक संघ परिवार और अमित जी से पूछे कि वे महाराणा प्रताप, शिवाजी, सावरकर, नाथूराम गोडसे जैसे ऐतिहासिक पात्रों के नामों की माला क्यों जपते हैं? क्या वे  सावरकर और नाथूराम गोडसे के नामों की तिलांजलि की घोषणा कर सकते हैं? सवर्णों के नायकों के नामों (विवेकानंद, अरविन्द, रवीन्द्रनाथ टैगोर, तिलक, गोखले, गाँधी, सुभाष, भगत सिंह, नेहरू, हेडगवारकर, गुरूगोलवरकर, इंदिरा, अटल बिहारी आदि) का  हजारों बार उल्लेख किया जाता है। 

संसद रहे या सार्वजनिक सभाएं, नेताओं के भाषणों में सवर्ण नामों की रसधारा बहती चली जाती है। लेकिन, शाह जी डॉ. भीमराव आंबेडकर के नाम से उबल पड़ते हैं। लेखक की दृष्टि में, इस उवाच में ‘सवर्ण दर्प’ की गंध उठती प्रतीत-सी होती है।

दूसरा शब्द, भगवान। अमित शाह जी भगवान का नाम क्यों लिया?  क्या उनके पास ऐसा कोई लिखित प्रमाण है कि भगवान् का नाम रटने से स्वर्ग मिल ही जाता है, जन्म जन्मांतर से मोक्ष मिल जाती है और इह -लोक परलोक सुधर जाता है? निसंदेह, अमित शाह जी ने भगवान् का नाम खूब लिया है; लालकृष्ण आडवाणी जी ने रथयात्रा निकाली थी; मुरली मनोहर जोशी जी, उमा भारती जी जैसे नेता बाबरी मस्ज़िद ध्वंस के साक्षी भी थे। क्या आप लिखित गारंटी दे सकते हैं कि ऐसे पवित्र कर्म (ध्वंस) के साक्षी नेताओं का स्वर्ग में स्थान आरक्षित हो चुका है? क्या इसका भी कोई सर्टिफाइड प्रमाण है कि 6 दिसंबर, 92 के रोज़ ध्वंस में दिवंगत होने वाले आम ‘कारसेवकों’ को स्वर्ग में स्थान मिल ही गया है? क्या अयोध्या में राम जी की प्राणप्रतिष्ठा करने वाले  स्वर्गधाम की प्रात्रता रखते हैं? क्या उनके नाम लिखित में पंजीकृत हुए हैं? क्या इसके लिए भगवान् श्रीराम ने आपको लिखित में आश्वासन -सन्देश भेजा है? यदि भेजा है तो दोनों सदन -पटलों पर रखें और जनता के दर्शन के लिए जारी करें। 

क्या अमित शाह जी यह ज़रूरी है कि आम्बेडकरवादी भगवान को मानते ही हों? बाबा साहब ने अपने जीवन काल में ही सवर्ण हिन्दुओं के भगवान् को त्याग ही दिया था। वे हिन्दू धर्म का परित्याग कर गौतम बुद्ध के अनुयायी बन गए थे। उन्होंने कहा था कि वे हिन्दू धर्म में जन्मे ज़रूर हैं, लेकिन उनकी मृत्यु इस धर्म में नहीं होगी। बौध धर्म का सबसे बड़ा सन्देश ही यह है ‘अपना दीपक, आप बनें।’ बाबा साहब ने हाशिये के लोगों में ‘विवेचनात्मक चेतना की ज्योति’ जगाई थी। क्या अमित शाह जी अपने सीने पर हाथ रख कर कह सकते हैं कि पिछले दो दशकों में गुजरात समेत भारत में दलितों पर ऊंची जातियों के अत्याचार बंद हो गए हैं, दलित-हत्या की कोई घटना नहीं हुई है। क्या अमित शाह जी अपने परम मित्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और हिन्दू धार्मिक नेताओं से कहेंगे कि अयोध्या, काशी विश्वनाथ, सोमनाथ-द्वारिका, तिरुपति बाला जी, रामेश्वरम जैसे तीर्थ स्थानों पर दलित पुजारी भी नियुक्त किये जायें? अगले वर्ष से शुरू हो रहे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के शताब्दी वर्ष में भावी सरसंघ चालक दलित, आदिवासी, पिछड़ा समुदायों से होगा। क्या इसकी घोषणा अमित जी अपनी मातृ संस्था संघ से करवा सकेंगे? क्या दलितों और आदिवासियों को आरक्षण संविधान ने दिया है या भगवान् ने? अमित जी, इसका ही निर्णायक फैसला कर दें। देश आभारी रहेगा।

अमित जी के उवाच से ‘भगवान्’ का नाम अनायास ही नहीं फूटा है। इसके पीछे विशेषीकृत मानसिकता है। इसी संदर्भ में यह लेखक देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री चंद्रचूड़ के नाम का उल्लेख करना चाहेगा। उन्होंने कहा था कि अयोध्या में विवादास्पद राम जन्म भूमि का फ़ैसला देने से पहले वे सही मार्ग दर्शन के लिए भगवान् के पास गए थे। इसका अर्थ यह भी निकला कि उनका संविधान और कानूनी पुस्तकों में कोई विश्वास नहीं था। उनके लिए ईश्वर से प्राप्त अदृश्य सन्देश ही सब कुछ था। भगवान् की यह अवधारणा उनकी विशिष्ट सांस्कृतिक+सामाजिक+ आर्थिक संरचना को दर्शाती है। दलित परिवार से होने के कारण बाबा साहेब को कितनी ही विभेदकारी कष्टों को झेलना पड़ा था, लेकिन चंद्रचूड़ जी को ऐसे कष्ट नहीं भोगने पड़े थे, और न ही अमित शाह जी को। ज़ाहिर है, एक छोर पर डॉ. आंबेडकर और दूसरे छोर पर चंद्रचूड़ व अमित शाह, दोनों छोरों के भगवानों की  अवधारणाएं समान नहीं होंगी।

इसी अवधारणा से जुड़ा हुआ है ‘सात जन्म’ की अवधारणा। क्या संघ और अमित शाह जी के पास सात जन्म के अस्तित्व के कोई ठोस सुबूत हैं? यदि हैं तो वे निश्चित ही दलितों और अन्य लोगों के साथ शेयर करें। इससे उन्हें कौन रोकता है।

सात जन्मों की मान्यता प्राचीन पुराणों पर ही तो आधारित है। यदि मनु स्मृति सहित इस मान्यता को यथावत स्वीकार कर लिया जाता है तब आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था और संवैधानिक संस्थाओं की भी कोई ज़रूरत नहीं है। क्या किसी प्राचीन ग्रन्थ में कॉर्पोरेटपति व पूँजी का उल्लेख है? यदि है तो बतलायें। प्राचीन मिथकों से जन्मी अवधारणाओं, रूपकों, प्रतीकों की बैसाखियों पर खड़े हो कर आधुनिक हाईटेक में उनको पुनर्जीवित करने से यही ज़ाहिर होता है कि वे मध्ययुगीन दृष्टि से दलित बौद्धिकता के पुंजों को देखना चाहते हैं। परोक्ष रूप से यह कृत डॉ. आंबेडकर को कमतर करताृ है। सारांश में, संसद में देश के शिखर पदाधिकारी द्वारा ‘सात जन्मों’ की बात करना निरर्थक ही नहीं,  हास्यास्पद लगती है। ऐसे अतार्किक कथनों से वे कैसी संस्कृति का निर्माण कर रहे हैं? इसका प्रभाव भावी पीढ़ी पर क्या पड़ेगा, सोचा है?

और अंत में, अमित शाह जी स्वर्ग के आकर्षण की दुहाई देते हैं। जाल फेंकते हैं कि सात जन्मों तक स्वर्ग का आनंद मिल जाता। दूसरे अर्थों में, यदि आंबेडकर के स्थान पर ईश्वर का कीर्तन करते तो अगले सात जन्मों तक स्वर्ग के सुख भोगने की पात्रता अर्जित कर लेते। क्या अमित जी बतलाएंगे कि भगवान का बार बार नाम लेना फैशन नहीं कह लाएगा? जहां तक स्वर्ग का सवाल है, सभी धर्मों में स्वर्ग के लालच की व्यवस्था को रखा गया है; जन्नत बनाम दोज़ख; हैल बनाम हैवन और स्वर्ग व नरक। दलित हमेशा से नरक वासी बने रहने के लिए अभिशप्त हैं। आज़ भी वे घोड़ी पर बैठ कर शादी नहीं कर पाते हैं। पुलिस संरक्षण में बारात ले जानी पड़ती है। आए दिन ऐसी घटनाएं घटती हैं। ऊंची जाति के दबंग दलित दूल्हे और बारातियों के साथ मारपीट करते हैं। क्या ऐसी शोषित व वंचित मानवता स्वर्ग और सात जन्मों की कल्पना कर सकती है? 

बाबा साहब ने तो हाशिए की मानवता को स्वर्ग व नरक के मोहजाल से मुक्ति की चेतना से लैस करने की कोशिश की थी। भगवान से लेकर स्वर्ग व नरक की अवधारणा भरे पेट -भरी तिजोरी की उपज होती है। यह अवधारणा दलितों के तस्सुवर के लिए बिल्कुल पराई है। अमित जी कुछ भी सोचें और सफाई दें, यथार्थ तो यही है कि उनके लिए दलित समाज की  संवेदनाएं, चिंताएं और सरोकार नितांत अपरिचित ही रहेंगे। यदि ऐसा नहीं होता तो वे दलित दीप स्तंभ डॉ. भीम राव आंबेडकर के नाम को ’फैशन’ के साथ नत्थी नहीं करते, और न ही भगवान, सात जन्म तथा स्वर्ग का मायाजाल रचते! यदि दलित वर्ग ’जय श्रीराम, हर हर महादेव, विश्व गुरु, हिंदू राष्ट्र, वसुधैव कुटुंबकम्’ जैसे उद्बोधनों को ’फैशन’ की संज्ञा देने लगे, तब गृहमंत्री अमित शाह को कैसा लगेगा? वैसे आंबेडकर-विवाद ने विपक्ष को पुनः एकजुट होने का अवसर दे दिया है। इस मुद्दे पर इंडिया गठबंधन के विभिन्न घटक फिर से क़रीब आने लगे हैं; तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी, राष्ट्रीय जनता दल, डी.एम.के. आदि दलों के सांसद संसद के भीतर और बाहर कांग्रेस के साथ विरोध प्रदर्शन में शिरकत कर रहे हैं। याद करें, अडानी मुद्दे पर बड़े घटकों के स्वर अलग सुनाई देने लगे थे। पर आंबेडकर के अपमान के सवाल पर एकजुटता की नई लहर दिखाई दे रही है।

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