तीन साल बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 100 साल का हो जाएगा। ऐसे मौके पर संघ का सदस्य रह चुके होने का दावा करते हुए किसी व्यक्ति का हलफ़नामा दायर करना और यह आरोप लगाना कि आरएसएस से जुड़े संगठनों ने देश में विस्फोट की योजनाएँ बनायी हैं और उसको अंजाम दिया, बेहद गंभीर है। महाराष्ट्र में यशवंत शिन्दे ने खुद को संघ का पूर्व प्रचारक बताते हुए यह हलफनामा दिया है। आरएसएस की इस पर औपचारिक प्रतिक्रिया आना बाक़ी है।
जब संघ संगठन 25 साल का होने जा रहा था तब भी संघ ने बड़ा हमला झेला था। 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या के बाद पहली बार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर प्रतिबंध लगाया गया था। 18 महीने बाद यह प्रतिबंध 11 जुलाई 1949 को हटा लिया गया था। नाथूराम गोडसे का आरएसएस में शामिल होने का दाग कभी संघ धो नहीं सका है। अब उल्टे नाथूराम गोडसे की ही वीरगाथा अनौपचारिक रूप से गायी जाने लगी है।
संघ के लिए यह भी दुर्योग कहा जाएगा कि जब उसकी उम्र 1975 में 50 साल हो रही थी तब देश में आपातकाल के दौरान उस पर लगभग दो साल के लिए प्रतिबंध लगाया गया। जब 1977 में केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी, तभी आरएसएस से प्रतिबंध हटाया जा सका। 6 दिसंबर 1992 में जब संघ की उम्र 68 साल थी तब भी अयोध्या में विवादित ढांचा गिराए जाने के बाद उस पर प्रतिबंध लगा था।
समय-समय पर लगते रहे प्रतिबंधों के आईने में आरएसएस पर सवाल उठते रहे हैं। मगर, संघ को मूल रूप से तीन सवालों के जवाब देने में मुश्किलें आती हैं-
- सवाल नंबर 1 - स्वतंत्रता आंदोलन में आरएसएस ने हिस्सा क्यों नहीं लिया?
- सवाल नंबर 2 - नाथू राम गोडसे और संघ में क्या रिश्ता रहा? क्या कभी गोडसे ने संघ से इस्तीफा दिया या कभी संघ ने गोडसे को अपने संगठन से निकाला?
- सवाल नंबर 3 - तिरंगे के प्रति तिरस्कार का भाव आरएसएस ने क्यों रखा? संघ के मुखपत्र ‘द ऑर्गनाइजर’ में राष्ट्रीय ध्वज के रूप में तिरंगे की जगह भगवा ध्वज की वकालत और 2002 तक संघ मुख्यालय में राष्ट्रीय तिरंगा क्यों नहीं फहराया गया?
- सवाल नंबर 4 - आरएसएस का सदस्य महिलाएँ क्यों नहीं हो सकतीं?
आरएसएस ने कभी उपरोक्त सवालों पर खुलकर विचार प्रकट नहीं किए हैं। इसके बावजूद ऐसा नहीं है कि इन सवालों में उलझकर रह गया हो आरएसएस। संघ ने लगातार प्रगति की है, अपना विस्तार किया है। हालांकि संघ का सदस्य होने के लिए कोई निर्धारित प्रक्रिया नहीं है मगर rss.org में इस बाबत लिखा है कि किसी भी शाखा में शामिल होकर संघ से जुड़ा जा सकता है।
संघ में शामिल होने की सबसे बड़ी शर्त यही है कि वह पुरुष हो। इसके अलावा कोई पूर्व शर्त नहीं होती।
वेबसाइट में दी गयी जानकारी के अनुसार 2017 तक देश के अलग-अलग 36,729 स्थानों में 57,185 शाखाएँ लगती हैं। इसके अलावा 14,896 स्थानों में साप्ताहिक और 7594 मासिक बैठकें भी होती हैं। संघ के लोग अनौपचारिक रूप से दावा करते हैं कि उसके सदस्यों की संख्या 1 करोड़ से ज़्यादा है।
आरएसएस पर दाग सिर्फ इतना नहीं है कि नाथूराम गोडसे उनकी शाखा में शामिल हो चुके थे। संघ प्रमुख एमएस गोलवलकर गांधीजी की हत्या के बाद गिरफ्तार हुए थे। यह बहुत बड़ा दाग है जो मिटाए नहीं मिट सकेगा। लेकिन, सच यह भी है कि महात्मा गांधी की हत्या में न तो आरएसएस की संलिप्तता प्रमाणित हो सकी और न ही एम.एस गोलवलकर की। यही बात संघ और संघ समर्थक अपने बचाव में पेश करते हैं।
आरएसएस पर प्रतिबंध हटाने की घोषणा करते हुए तत्कालीन गृहमंत्री बल्लभ भाई पटेल ने कई शर्तें रखी थीं और तब एमएस गोलवलकर ने सभी शर्तें मान ली थीं-
- शर्त नंबर 1 : आरएसएस अपने संगठन का संविधान बनाएगा। उसे प्रकाशित करेगा और अपने संगठन का चुनाव कराएगा।
- शर्त नंबर 2 : आरएसएस राजनीतिक गतिविधियों से दूर रहेगा।
- शर्त नंबर 3 : संघ केवल सांस्कृतिक गतिविधियों में ही हिस्सा लेगा।
- शर्त नंबर 4 : हिंसा और गोपनीयता का त्याग करे आरएसएस।
- शर्त नंबर 5 : भारत के राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे का सम्मान करेगा संघ।
- शर्त नंबर 6 : संविधान के प्रति वफादार रहने की शपथ लेगा संघ।
- शर्त नंबर 7 : गोपनीयता का त्याग करेगा संघ।
इन शर्तों को मान लेने के बावजूद आरएसएस ने इसका पालन नहीं किया। राष्ट्रीय ध्वज का सम्मान करने वाली शर्त पुख्ता उदाहरण है। इस पर अमल संघ ने संविधान बनने के 52 साल बाद शुरू किया। राजनीतिक गतिविधियों से दूर रहने की शर्त भी मान ली गयी है, ऐसा कहा नहीं जा सकता। संगठनात्मक चुनाव और लोकतांत्रिक प्रक्रिया जैसी शर्तें तो स्पष्ट रूप से अधूरी हैं। तो, क्या संघ आज तक केंद्र सरकार से वादाखिलाफी करता रहा है?
…तो पटेल ने इसलिए लगाया था संघ पर प्रतिबंध!
सरदार वल्लभ भाई पटेल ने 11 सितंबर 1948 को गोलवलकर को एक चिट्ठी का जवाब देते हुए संघ पर प्रतिबंध के कारणों को भी स्पष्ट किया था। पटेल गांधी की हत्या में आरएसएस की संलिप्तता पर कोई टिप्पणी नहीं करते। बल्कि, हिन्दुओं के लिए संघ के योगदान को चिन्हित भी करते हैं लेकिन वे यह भी कहते हैं कि गांधीजी की हत्या के बाद संघ के लोग खुशियाँ मना रहे थे और इसलिए उन पर प्रतिबंध लगाना ज़रूरी था-
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आपत्ति इस बात पर है कि आरएसएस बदले की भावना से मुसलमानों पर हमले करता है। आपके हर भाषण में सांप्रदायिक जहर भरा रहता है। इसका नतीजा यह हुआ कि देश को गांधी का बलिदान देना पड़ा। गांधी की हत्या के बाद आरएसएस के लोगों ने खुशिया मनाईं और मिठाई बांटी। ऐसे में सरकार के लिए आरएसएस को बैन करना जरूरी हो गया।
सरदार वल्लभ भाई पटेल की गोलवलकर को चिट्ठी
अपने गठन के इतने साल बाद भी आरएसएस विवादों से नाता नहीं तोड़ पाया है। एक ऐसे दौर में जब संघ प्रमुख मोहन भागवत कहते हैं कि एक हाथ में लाठी रखना वक्त का तकाजा है और कोई पूर्व संघ प्रचारक होने का दावा कर रहा व्यक्ति विस्फोट कराने की साजिश का आरोप लगाता है तो यह वक्त मुश्किल दिनों की याद दिलाता है। अगर ये मामला आगे बढ़ा तो अदालत में संघ पर प्रतिबंध का इतिहास और प्रतिबंध को हटाने से जुड़ी शर्तों की भी याद दिलायी जाएगी।