इमरजेंसी भारत के संवैधानिक लोकतंत्र की एक भयानक दुर्घटना थी जिससे उबरने में उसे 19 महीने लग गए। लेकिन आज उसे लेकर सत्ता और विपक्ष में जिस तरह का वाकयुद्ध चल रहा है उसे देखकर लगता है कि मौजूदा राजनेता न तो उसकी गंभीरता को समझ रहे हैं और न ही उससे कोई सबक लेने वाले हैं। वे एक तरह से इमरजेंसी इमरजेंसी खेल रहे हैं। वो इंदिरा गांधी की इमरजेंसी थी और यह मोदी की इमरजेंसी है। दोनों में कौन बुरी थी और कौन अच्छी है इसी पर डिबेट हुए जा रही है।
एक तरफ प्रधानमंत्री अपने अधिनायकवाद को रत्ती भर स्वीकार किए बिना जनता को पचास साल पहले के उस हादसे की याद दिला कर उसे कांग्रेस की आलोचना का मुद्दा बनाना चाहते हैं तो दूसरी ओर ऐसे भी लोग हैं जो आज भी इमरजेंसी की शान में कसीदे पढ़ने से बाज नहीं आ रहे हैं। वही कहानी फिर दोहराई जा रही है कि इमरजेंसी लगाए जाने की स्थितियां सीआईए ने तैयार करवाई थीं और इमरजेंसी एक अनुशासन पर्व साबित हुई, जिससे लोग दफ्तर समय पर आने लगे, रेलगाड़ियां समय पर चलने लगीं और जमाखोरी, कालाबाजारी और महंगाई काबू में आ गई। यानी इमरजेंसी से पहले एक अराजक स्थिति थी जिसे दुरुस्त करने के लिए आपातकाल जरूरी थी।
दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि इमरजेंसी के बारे में गंभीर, वस्तुपरक और इतिहास सम्मत विश्लेषण अभी भी उपलब्ध नहीं है। अगर इतिहासकार प्रोफेसर विपिन चंद्र का विश्लेषण कांग्रेस की तरफ झुका हुआ है तो रामचंद्र गुहा का विश्लेषण भी बहुत तटस्थ और निष्पक्ष नहीं है। दूसरी ओर समाजवादियों, संघियों और साम्यवादियों की अपनी अपनी व्याख्याएं हैं। जयप्रकाश नारायण, चंद्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मधु लिमए, मधु दंडवते, एमजी देवसहायम जैसे नेताओं, अधिकारियों के अपने अनुभव और विश्लेषण हैं। विश्लेषणों की इस कतार में कुलदीप नैयर, गौर किशोर घोष जैसे पत्रकारों और नानी पालखीवाला, एचआर खन्ना, जस्टिस भीमसेन सच्चर और राजिंदर सच्चर जैसे न्यायविदों की अपनी व्याख्या है। अर्थशास्त्री अपने ढंग से उस कार्यकाल को देखते हैं।
निश्चित तौर पर इमरजेंसी तत्कालीन राजनीतिक व्यक्तित्वों के टकराव का नतीजा थी और उसमें सबसे प्रमुख टकराव था जयप्रकाश नारायण और इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व का टकराव। एक ओर इस टकराव को कम करने में विनोबा भावे जैसे संत लगे हुए थे तो दूसरी ओर इसे बढ़ाने में राष्ट्रीयस्वयं सेवक संघ के नेता नानाजी देशमुख और पत्रकारिता के दिग्गज रामनाथ गोयनका लगे थे।
जेपी लंबे समय तक विनोबा के भूदान आंदोलन और सर्वोदय आंदोलन में सक्रिय थे और उनका सम्मान करते थे। बल्कि कहा जाए कि जेपी ने समाजवाद छोड़कर उनका दामन थाम लिया था तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। लेकिन जब जेपी संघ के प्रभाव में आ गए तो वे विनोबा जी की सलाह मानने और उनसे संवाद करने से भी कतराने लगे। टकराव के आखिरी चरण में जेपी वर्धा के सेवाग्राम गए लेकिन बाबा (विनोबा) से मिलने पवनार तक नहीं गए। जबकि पवनार बमुश्किल छह सात किलोमीटर ही दूर है। यह बात विनोबा जी की जीवनी लिखने वाली निर्मला देशपांडे और दूसरी लेखिकाओं ने दर्ज की है।
विनोबा चाहते थे कि जेपी और इंदिरा गांधी में सार्थक बातचीत हो और दोनों अपने अपने टकरावपूर्ण रवैए को छोड़ें। विनोबाने कुछ समय बाद मौनव्रत धारण कर लिया और जब उनसे इमरजेंसी के बारे में पूछा गया तो उन्होंने एक कागज पर लिख कर दे दिया अनुशासन पर्व। अनुशासन पर्व का मतलब है महाभारत का वह हिस्सा जिसमें भीष्म शरशय्या पर पड़े हुए अपनी संतानों को राजधर्म की शिक्षा दे रहे हैं। निश्चित तौर पर देश पर आई इतनी बड़ी आपदा के समय विनोबा का मौन उचित नहीं था लेकिन इसी के साथ यह भी सवाल उठता है कि जेपी को टकराव किस सीमा तक ले जाना चाहिए था ?
दूसरी ओर चंद्रशेखर ने यह बात दर्ज की है कि इंदिरा गांधी ने जेपी को जो पत्र लिखा था उसकी व्याख्या रामनाथ गोयनका ने जेपी से इस तरह के की कि वे आहत हुए और उन्होंने लड़ाई लड़ने की ठानी। जेपी को लंबे समय से नानाजी देशमुख और शोभाकांत जैसे लोग समझाने में लगे थे। वे उन्हें इंदिरा गांधी के विरुद्ध आंदोलन के लिए तैयार कर रहे थे। हालांकि जेपी और इंदिरा गांधी के बीच अच्छे रिश्ते भी थे। विशेष तौर पर प्रभावती और इंदिरा गांधी के बीच। उन रिश्तों के प्रमाण वे पत्र थे जिन्हें टकराव से पहले जेपी ने इंदिरा गांधी को वापस कर दिया था।
लेकिन आपातकाल की राजनीतिक स्थितियों के लिए व्यक्तित्वों के टकराव के अलावा वे राजनीतिक हालात भी जिम्मेदार थे जो आर्थिक संकट के कारण बन रहे थे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 1967 में पूरे विश्व में छात्र आंदोलन का असंतोष भड़क चुका था और भारत भी उससे अछूता नहीं था। छात्र परीक्षा भवन से कापियां फाड़ कर बाहर निकल रहे थे अपनी डिग्रियां जला रहे थे और व्यवस्था परिवर्तन के तमाम रास्ते ढूंढ रहे थे।
महंगाई और खाद्य संकट भी इस दौर में पैदा हुआ था। कहने का मतलब है कि हरित क्रांति का अपेक्षित परिणाम तब तक आया नहीं था। इन स्थितियों का प्रभाव बाद में नक्सल आंदोलन के रूप में परिवर्तित हुआ और फिर गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन और बिहार के छात्र आंदोलन ने उस श्रृंखला को आगे बढ़ाया। इस बीच 1971 के भारत पाक युद्ध और बांग्लादेश की शरणार्थियों का समस्या ने भारत की अर्थव्यवस्था पर अतिरिक्त बोझ भी डाल दिया था।
यहां यह बात याद दिलाना भी जरूरी है कि इमरजेंसी से पहले देश में ऐसे बहुत सारे समूह थे जो मानते थे कि देश की समस्याओं का इलाज क्रांति करके ही किया जा सकता है। क्रांति की इस अवधारणा में मार्क्सवाद का प्रभाव तो था ही जेपी ने उसे गांधी और माओ के जनांदोलनों से प्रभावित होकर नया रूप देना चाहा और `संपूर्ण क्रांति’ का नाम दिया। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जेपी जहां कांग्रेस से संवाद कर रहे थे वहीं वे नक्सलवादियों से भी संवाद कर रहे थे।
इमरजेंसी में जेल जाने वालों में अगर संघ के लोग थे तो अतिवामपंथी और वामपंथी भी थे। संघ के लोग जेपी से सट गए थे लेकिन जेपी चाहते थे कि इस आंदोलन में वामपंथी लोग हिस्सा लें और अहिंसक तरीके से देश में व्यवस्था परिवर्तन की प्रक्रिया को अंजाम दें। लेकिन वामपंथी बार-बार यह कहते थे कि पहले आप इस आंदोलन से संघ वालों को हटाइए तब वे आएंगे। जबकि जेपी कहते थे कि आप आ जाइए वे अपने आप हट जाएंगे। यह बहस उस समय के समाजवादी पत्रों से लेकर वामपंथी मुखपत्रों में भरी पड़ी है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 1989 में सोवियत संघ के पतन से पहले तक क्रांति का विचार दुनिया के तमाम हिस्सों में एक वास्तविकता के रूप में स्वीकार किया जाता था। एशिया में चीन ने भी उस विचार को चरितार्थ करके दिखा दिया था इसलिए उसे यूरोपीय विचार मानकर उसे असंभाव्य नहीं माना जाता था। यह सही है कि संघ और जनसंघ के लोगों का इरादा इंदिरा गांधी को हटाकर सत्ता हासिल करना था और वे जयप्रकाश नारायण जैसे संत राजनेता का लाभ उठाकर ऐसा कर रहे थे। जेपी ने एक दो बार सीधे अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी का नाम लेकर ऐसा कहा था।
उन्होंने कहा कि इन दोनों का इरादा सिर्फ इंदिरा गांधी को हटाकर सत्ता पर काबिज होना है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि जेपी का वही बयान सबसे ज्यादा उद्धृत किया जाता है कि अगर संघ फासिस्ट है तो हम भी फासिस्ट हैं। इंदिरा गांधी को हटाने का इरादा वे लोग भी रखते थे जो संगठन कांग्रेस से जुड़े थे। लोकदल के लोग शहरी अर्थव्यवस्था की कीमत पर ग्रामीण अर्थव्यवस्था की उपेक्षा से असंतुष्ट थे। समाजवादी लोग सामाजिक परिवर्तन की राजनीति चाह रहे थे और सत्ता पर कब्जा करके असमानता को कम करने की कोशिश में थे। लेकिन गैर कांग्रेसवाद की रणनीति जो डा लोहिया ने बनाई थी वह जेपी के बहुत काम आई।
मधु लिमए ने अपनी पुस्तक `गैर कांग्रेसवाद का जन्म’ में लिखा है कि जेपी जिस तरह का लोकतंत्र चाहते थे वह समझ से परे था। वे लोकतंत्र में आ चुकी भ्रष्टाचार की बुराइयां तो दूर करना ही चाहते थे लेकिन उसी के साथ दल विहीन लोकतंत्र चाहते थे। वे सोच नहीं पा रहे थे कि संसदीय लोकतंत्र में दलविहीन व्यवस्था कैसे संभव है। हालांकि जेपी लगभग उन्हीं मुद्दों पर जोर दे रहे थे जिन पर डा भीमराव आंबेडकर, गांधी और लोहिया ने जोर दिया था। चाहे लोहिया की सप्तक्रांति हो या डा आंबेडकर की लोकतांत्रिक सामाजिक क्रांति।
जेपी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में एक साथ परिवर्तन चाहते थे लेकिन इतने बड़े परिवर्तन के लिए न तो भारतीय समाज तैयार था और न ही भारतीय राज्य व्यवस्था। इसी टकराव का परिणाम थी इमरजेंसी। जेपी के बारे में पत्रकार राजेंद्र माथुर की एक टिप्पणी भी बहुत सारगर्भित है—एक मसीहा के आखिरी तीन वर्ष। उसमें उनकी तुलना अर्नेस्ट हेमिंग्वे की कहानी `ओल्ड मैन एंड द सी’ के उस मछुआरे से की गई है जो समुद्र में मछली मारने जाता है और तट तक आते आते लहुलूहान हो जाता है।
शायद समाजवादियों और साम्यवादियों को यह समझाना आज भी कठिन होगा कि भारत में यकायक ऐसी कोई क्रांति नहीं होने जा रही है जिससे सब कुछ अचानक बदल जाए। हां सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक मोर्चे पर समता और समृद्धि लाने के लिए सतत प्रयास करते रहना पड़ेगा। फिर भी बहुत सारे समाजवादी और साम्यवादी अब यह मानने लगे हैं कि संवैधानिक लोकतंत्र के भीतर धीमे-धीमे ही परिवर्तन किया जा सकता है। हां उसे पलटने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियां सक्रिय रहती हैं और उनसे कैसे निपटा जाए इसके बारे में सोचना होगा और रणनीति बनानी होगी।
आपातकाल के बारे में इस संक्षिप्त विश्लेषण के साथ यह कहना लाजिमी है कि वह इंदिरा गांधी का बेहद दोषपूर्ण निर्णय था। वे भारतीय राज्यव्यवस्था की जिस गाड़ी को चला रही थीं, उन्होंने उसे चलाने का नैतिक अधिकार खो दिया तो उसकी स्टीयरिंग किसी और के हाथ में दे देनी थी और अपनी जीत की जिद में लोकतंत्र की गाड़ी को गलत दिशा में ले जाकर टक्कर नहीं मान देनी थी।
जहां तक मोदी की बात है तो वे किसी आकस्मिक दबाव के कारण अधिनायकवाद नहीं चला रहे हैं। वे स्वभाव से अधिनायकवादी हैं और उनका पितृ संगठन यानी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जो फिलहाल उनकी आलोचना कर रहा है उसने उन्हें यही प्रशिक्षण भी दिया है। बल्कि उनके भीतर इन्हीं गुणों को देखकर उनको आगे भी बढ़ाया है। हालांकि नरेंद्र मोदी ने पिछले दस सालों से आपातकाल जैसी लोकतांत्रिक दुर्घटना नहीं की है लेकिन उन्होंने संसदीय लोकतंत्र की इस गाड़ी को उल्टी साइड से यानी दाहिनी पटरी से चलाया है।
उसके लिए उन्होंने बहुत सारे विपक्षी संगठनों, नेताओं, पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और दलित, अल्पसंख्यक, आदिवासी, किसान, युवाओं और मजदूर वर्ग के लोगों को कुचला और लहूलुहान किया है। इंदिरा गांधी ने लोकतांत्रिक संस्थाओं को बुरी तरह से जख्मी किया था लेकिन उनमें असाध्य और संक्रामक रोग का आरोपण नहीं किया था। जबकि मोदी ने समाज से लेकर राज्य की संस्थाओं तक को सांप्रदायिकता और अधिनायकवाद की गंभीर बीमारी का शिकार बना दिया है। दिक्कत यह है कि वे इसे बीमारी न मानकर स्वाभाविक प्रवृत्ति मान रहे हैं।
मोदी ने अगर आपातकाल का ठीकरा पूरी तरह से कांग्रेस पर फोड़ने की कोशिश की है तो कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने उन्हें पिछले दस साल में संवैधानिक मूल्यों से किए गए खिलवाड़ की याद दिलाते हुए कहा है कि रस्सी जल गई पर बल नहीं गया।
आज लोकतंत्र की तलाश को, पचास साल पहले की घटना को एकतरफा तरीके से याद करना और उसके लिए किसी एक व्यक्ति और पार्टी को दोषी ठहराना और बदले में संविधान की प्रतियां लहराकर उसे बचाने का प्रतीकात्मक संदेश देने से, आगे ले जाने की जरूरत है। अगर बात यहीं तक रखी जाएगी तो एक तरह से इमरजेंसी इमरजेंसी खेलने वाली बात होगी। इस देश की जनता को मौलिक अधिकारों के बारे में बताना होगा और पुलिस प्रशासन को भी इस बात की हिदायत देनी होगी कि उसके साथ किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं चलेगी। यह काम गहरे बदलाव के बिना नहीं होगा। लेकिन इसी के साथ यह ध्यान रखना होगा कि टकराव की वह स्थितियां न बनें जो इमरजेंसी से पहले बनी थीं।