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एक देश एक चुनावः संसद के दोनों सदनों में पास कराना है चुनौती, विपक्ष का रुख क्या है

एक देश एक चुनावः संसद के दोनों सदनों में पास कराना है चुनौती, विपक्ष का रुख क्या है

एक देश एक चुनाव प्रस्ताव से जुड़ा संवैधानिक संशोधन विधेयक मोदी सरकार लोकसभा में तो आसानी से पास करा लेगी लेकिन राज्यसभा में वो साधारण बहुमत से पीछे है। विधेयक को सदन में पेश किये जाते समय वहां मौजूद और मतदान करने वाले दो-तिहाई सदस्यों के समर्थन की भी जरूरत पड़ेगी। यानी कुल मिलाकर इस विधेयक को संसद में पास कराना एक चुनौती है। इंडिया गठबंधन के तमाम दल विरोध में हैं और वे इससे जुड़े कई गंभीर मुद्दे उठा रहे हैं। जानिए क्या बनेगी स्थितिः

मोदी सरकार ने बुधवार को बड़ा फैसला लेते हुए 'एक देश, एक चुनाव' को लेकर रामनाथ कोविंद पैनल के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। कोविंद पैनल को अपनी राय देने वाले 47 राजनीतिक दलों में से 32 ने इसका समर्थन किया और 15 ने इसका विरोध किया। एनडीए की सहयोगी तेलुगु देशम पार्टी, जिसने पैनल को अपनी राय नहीं दी थी, उसने अब कहा है कि वह सैद्धांतिक रूप से इस कदम का समर्थन करती है।

पैनल के सामने इस कदम का समर्थन करने वाली सभी 32 पार्टियाँ या तो भाजपा की सहयोगी हैं, या भाजपा से बेहतर तालमेल हैं। इनमें से बीजेडी अब बीजेपी के खिलाफ हो गई है। पैनल के सामने इस कदम का विरोध करने वाले 15 लोगों में से पांच एनडीए के बाहर के दल हैं जो राज्यों में सत्ता में हैं। कांग्रेस खुलकर इस प्रस्ताव के खिलाफ है और इसे लोकतंत्र के लिए खतरा बताया है।

एक साथ चुनाव लागू करने से पहले, कोविंद पैनल ने कई संवैधानिक संशोधनों का सुझाव दिया। जिन पर संसद की मंजूरी लेनी होगी, जबकि एकीकृत मतदाता सूची के लिए राज्य विधानसभाओं में बहुमत के समर्थन की जरूरत होगी। संविधान में संशोधन पर अनुच्छेद 368(2) में कहा गया है, "इस संविधान में संशोधन केवल संसद के किसी भी सदन में इस उद्देश्य के लिए एक विधेयक पेश करके शुरू किया जा सकता है, और जब विधेयक प्रत्येक सदन में बहुमत से पारित हो जाता है उस सदन की कुल सदस्यता और उस सदन के उपस्थित और मतदान करने वाले कम से कम दो-तिहाई सदस्यों के बहुमत से, इसे राष्ट्रपति के सामने पेश किया जाएगा। जो विधेयक पर अपनी सहमति देंगे और उसके बाद संविधान में विधेयक की शर्तों के साथ संशोधन किया जाएगा।”

हाल के लोकसभा चुनावों के बाद, जिन पार्टियों ने कोविंद पैनल के सामने इसका समर्थन किया था, उनके लोकसभा में 271 सांसद हैं (भाजपा के 240 सहित)। यह लोकसभा में साधारण बहुमत से केवल एक कम है। हालांकि टीडीपी सहित एनडीए के जिन दलों ने न तो इसका समर्थन किया और न ही विरोध, उन्हें अगर मिला दिया जाए तो लोकसभा में मोदी सरकार के पास 293 सांसदों की ताकत है।

अगर लोकसभा विधेयक पेश किये जाने के समय पूरा सदन बैठा हो तो मोदी सरकार को इसे पास कराने के लिए 362 वोटों या दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होगी, जबकि एनडीए के पास कुल ताकत 293 है। लेकिन यह स्थिति तभी बनेगी जब 439 सदस्य लोकसभा में मौजूद हों और मतदान कर रहे हों। अगर मतदान के दिन शेष 100 से अधिक सांसद अगर गैरहाजिर रहते हैं तो क्या विधेयक को एनडीए की 293 की ताकत के साथ दो-तिहाई बहुमत मिलेगा। मोदी सरकार को गैर-एनडीए दलों को इसका समर्थन करने के लिए राजी करने की जरूरत हर हालत में पड़ेगी।

इसका मतलब यह है कि जब तक कुछ विपक्षी दलों का भी इस विधेयक को समर्थन नहीं मिलता है, संवैधानिक संशोधन विधेयक लोकसभा में गिर सकता है। हालांकि राज्यसभा में कुछ हद तक बेहतर स्थिति है, लेकिन आंकड़े वहां भी इतने सहज नहीं हैं कि मोदी सरकार संतुष्ट हो सके। यानी संवैधानिक संशोधन के सफल होने के लिए विधेयक को दोनों सदनों में विशेष बहुमत से पारित कराना होगा।


कोविंद पैनल में एक साथ चुनाव का विरोध करने वाली 15 पार्टियों की संसद में संयुक्त ताकत 205 सांसदों की है। इसमें से इंडिया गठबंधन के सदस्यों की संख्या 203 है। कुल मिलाकर, इंडिया में वे पार्टियां भी शामिल हैं, जिन्होंने कोविंद पैनल के सामने कुछ भी नहीं कहा था। उन्हें मिलाकर लोकसभा में विपक्ष के पास 234 सांसद हैं।

राज्यसभा में, छह नामांकित सदस्यों को छोड़कर, एनडीए के पास 115 सांसद हैं। अगर उन 6 को मिला दिया जाए तो एनडीए गठबंधन के पास 121 सांसद हैं, और इंडिया गठबंधन के पास 85 सांसद हैं। विधेयक पेश किए जाने के समय यदि राज्यसभा के 250 सदस्यों में से सभी सदस्य उपस्थित हों, तो साधारण बहुमत 125 बैठता है और दो-तिहाई सांसद 164 बैठते हैं। वर्तमान में राज्यसभा में 234 सांसद हैं। इस तरह राज्यसभा में सांसदों के आंकड़े मोदी सरकार की मदद नहीं कर रहे हैं।

जिन 15 पार्टियों ने विरोध किया उनमें चुनाव आयोग द्वारा मान्यता प्राप्त शेष चार राष्ट्रीय पार्टियाँ - कांग्रेस, आम आदमी पार्टी (AAP), बहुजन समाज पार्टी (BSP) और CPI (M) शामिल हैं। इन 15 में से, कांग्रेस, आप, डीएमके, तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और सीपीआई (एम) राज्यों में सत्ता में हैं। अन्य में एआईयूडीएफ, एआईएमआईएम, सीपीआई, एनपीएफ, समाजवादी पार्टी (एसपी), एमडीएमके और तमिलनाडु की विदुथलाई चिरुथिगल काची, सीपीआई (एम-एल) और सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया शामिल हैं। हालाँकि, बसपा, जिसके पास अब राज्यसभा में सिर्फ एक सांसद है, ने इस कदम का समर्थन करने के लिए अपना रुख बदल लिया है।

भाजपा और एनपीपी के अलावा, एक साथ चुनाव का समर्थन करने वाली 32 पार्टियों में भाजपा के सहयोगी ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (एजेएसयू), अपना दल (सोनेलाल), असम गण परिषद, लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास पासवान), नेशनल डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (नागालैंड की) शामिल हैं। इनके अलावा सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा (असम में सत्ता के साथ), मिज़ो नेशनल फ्रंट और यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी लिबरल ऑफ़ असम; जेडीयू, शिवसेना (शिंदे गुट) जो बाद में भाजपा के साथ जुड़ी हैं, वे भी अब विधेयक के समर्थन में हैं।

बीजू जनता दल (बीजेडी), जो भाजपा के साथ था, लेकिन अब इस साल विधानसभा चुनावों के बाद ओडिशा में प्रमुख विपक्षी दल है, ने भी पहले प्रस्ताव का समर्थन किया था। भाजपा के पूर्व सहयोगी अकाली दल और एआईएडीएमके ने भी 'एक देश, एक चुनाव' का समर्थन किया था। इन दलों का रुख अब क्या रहता है, यह देखना महत्वपूर्ण होगा। क्योंकि इन दलों ने भाजपा को लेकर अपना रुख कई मौकों पर बदला है। मोदी सरकार के प्रस्ताव के समर्थन में मौजूद 32 पार्टियों में से बाकी 15 छोटी हैं और गैर-मान्यता प्राप्त पार्टियां हैं।

जिन पार्टियों ने पैनल को जवाब नहीं दिया उनमें भारत राष्ट्र समिति (जो हाल तक तेलंगाना में सत्ता में थी), आईयूएमएल, नेशनल कॉन्फ्रेंस, कर्नाटक बीजेपी की नई सहयोगी जेडी (एस), झारखंड मुक्ति मोर्चा (झारखंड में सत्तारूढ़ पार्टी), केरल शामिल थीं। कांग्रेस (एम), एनसीपी (शरदचंद्र पवार), आरजेडी, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी (आरएसपी), वाईएसआरसीपी; टीडीपी और आरएलडी (ये दोनों अब बीजेपी के सहयोगी हैं), शिरोमणि अकाली दल (मान); राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी और सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट शामिल हैं। एक साथ चुनाव पर उच्च स्तरीय पैनल ने कुल 62 राजनीतिक दलों से राय मांगी, जिनमें से 47 ने अपने जवाब भेजे, 15 ने जवाब नहीं दिया। 18 दलों ने पैनल के साथ व्यक्तिगत बातचीत भी की।

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