जब तक जम्मू कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश है, मैं विधानसभा चुनाव नहीं लड़ूँगा: उमर
जम्मू कश्मीर में लगभग एक साल हो गया है जब पाँच अगस्त 2019 को भयानक बदलाव किए गए। मुझे अभी भी यह विश्वास नहीं हो रहा है जो मैंने उस सुबह टेलीविजन चैनल पर अपनी आँखों से देखा था। कुछ घंटे पहले ही आधी रात को मुझे नज़रबंद कर दिया गया था और दिन बीतते-बीतते सरकारी गेस्टहाउस में शिफ़्ट किया जाना था। केंद्र सरकार के मनोनीत प्रतिनिधियों ने वो सारे अधिकार हथिया लिए जो विधानसभा और चुनी हुई लोकप्रिय सरकारों में निहित थे। और इस तरह से शेष भारत से जम्मू कश्मीर के संवैधानिक रिश्ते को नए सिरे से लिख दिया गया। देश की संसद में 70 साल से ज़्यादा के इतिहास को लोकसभा और राज्यसभा ने एक दिन से भी कम समय में बदल दिया और साथ ही जम्मू कश्मीर के लोगों से किए गए संप्रभु वायदे को भी तोड़ दिया गया और प्रदेश के टुकड़े कर दिए गए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दोबारा चुने जाने के बाद से ये अफ़वाहें उड़ने लगी थीं कि बीजेपी लोकसभा में मिले बहुमत की आड़ में अनुच्छेद 370 और 35ए को ख़त्म कर देगी। यह आशंका तब और बलवती हो गई जब केंद्रीय अर्धसैनिक बल के ढेरों जवानों को श्रीनगर लाया गया और राज्य के अलग-अलग इलाक़ों में भेज दिया गया।
जब इस बारे में सवाल किए गए तब प्रदेश में सर्वोच्च संवैधानिक पद पर बैठे राज्यपाल ने इस बात से इनकार किया कि जम्मू कश्मीर के विशेष दर्जे को कोई ख़तरा है। राज्यपाल महोदय ने इन अफ़वाहों को बेबुनियाद क़रार दिया और कहा कि साल के आख़िर में विधानसभा चुनाव के लिए अतिरिक्त सुरक्षा बलों को लाया गया है। तो इसका क्या अर्थ निकाला जाए इतने ऊँचे संवैधानिक पदों पर बैठे हुए व्यक्ति ने लोगों से झूठ बोला या उनको जानकारी नहीं थी इस बारे में मेरी अपनी सोच है लेकिन आप अपने निष्कर्ष ख़ुद निकालें। 5 अगस्त के घटनाक्रम से कुछ दिन पहले ही नेशनल कॉन्फ़्रेंस के वरिष्ठ पदाधिकारियों की प्रधानमंत्री के साथ बैठक हुई थी। मैं आसानी से इस बैठक को भूलने वाला नहीं हूँ। एक दिन मैं इस बारे में लिखूँगा लेकिन यह मर्यादा का तकाजा है कि मैं इतना ही कहूँ कि जब मैं बैठक से बाहर निकला तो उस वक़्त की मेरी धारणा और अगले 72 घंटों में जो कुछ हुआ उसमें काफ़ी फर्क था।
एक क्षण में ही जिस बात का डर था वही हुआ।
जम्मू कश्मीर का विशेष दर्जा जिसकी वजह से राज्य का केंद्र से जुड़ाव था और जिसको बदला नहीं जा सकता था उसे ख़त्म कर दिया गया। इसके साथ ही वह व्यवस्था भी ख़त्म कर दी गई जिससे यह तय होता था कि जम्मू कश्मीर का निवासी कौन है। यह सच में कहना होगा कि बीजेपी ऐसा करेगी इस पर कोई अचरज नहीं था। यह दशकों से उसके चुनावी एजेंडे पर था, लेकिन सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि राज्य के संवैधानिक स्थिति को कम कर उसे दो केंद्र शासित राज्यों में तोड़कर उसका अपमान किया गया था।
पिछले 7 दशकों में केंद्र शासित प्रदेशों की हैसियत को बढ़ाकर उनको राज्य का दर्जा दिया गया था। यह पहला मौक़ा था जब राज्य की हैसियत को कम कर केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया।
मैं आज तक यह समझ नहीं पाया कि इसकी ज़रूरत क्या थी सिवाये इसके कि प्रदेश के लोगों को बेइज्जत किया जाए और उनको सज़ा दी जाए। अगर लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाना था क्योंकि वहाँ की बौद्ध आबादी लंबे समय से यह माँग कर रही थी तब तो जम्मू को अलग राज्य बनाने की माँग उससे भी पुरानी है। और अगर बँटवारे का कोई धार्मिक आधार था तो यह बात कैसे समझी जा सकती है कि लद्दाख का करगिल इलाक़ा मुस्लिम बाहुल्य है और वह जम्मू कश्मीर से अपने को अलग करने के ख़िलाफ़ है। आइए आपको बता दें कि लद्दाख लेह और करगिल दो ज़िलों से मिलकर बना है।
अनुच्छेद 370 में फेरबदल क्यों
संसद में अनुच्छेद 370 में फेरबदल करने के समय ढेर सारे तर्क दिए गए थे जिनका कोई आधार नहीं था। यह कहा गया था कि अनुच्छेद 370 की वजह से पृथकतावाद फैला और कश्मीर में हिंसा भड़की और इस क़दम को उठाने से आतंकवाद के ख़ात्मे की शुरुआत हुई। अगर यह बात सच है तब इस घटना के लगभग एक साल के बाद केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट में यह कहने के लिए क्यों मजबूर हुई कि जम्मू कश्मीर मे हिंसा बढ़ रही है। दूसरा तर्क दिया गया- अनुच्छेद 370 की वजह से जम्मू कश्मीर में ग़रीबी है। अगर सरसरी नज़र से भी देखा जाए तो भी यह बात साफ़ होती है कि देश के दूसरे राज्यों की तुलना में जम्मू कश्मीर में सबसे कम ग़रीबी है। फिर यह भी कहा गया कि अनुच्छेद 370 की वजह से जम्मू कश्मीर में निवेश नहीं आता। ऐसे लोगों को बताना चाहता हूँ कि जम्मू कश्मीर आतंकवाद की शुरुआत से पहले देश के सबसे प्रगतिशील राज्यों में से एक था जहाँ उद्योग-धंधे फल फूल रहे थे और उत्पादन के लिए बढ़िया निवेश आ रहा था। पर्यटन के क्षेत्र में काफ़ी अच्छा निवेश हो रहा था। जम्मू कश्मीर में सुरक्षा बलों की मौजूदगी की वजह से निवेश आना बंद हो गया। यही कारण है कि इतने बड़े बदलाव के एक साल बाद राज्य में न के बराबर निवेश हुआ है।
यह भी दावा किया गया था कि अनुच्छेद 370 की वजह से जम्मू कश्मीर पिछड़ा हुआ है। हक़ीक़त यह है कि यहाँ गुजरात जैसे विकसित राज्यों की तुलना में मानवीय विकास के मानदंड काफ़ी बेहतर हैं।
और अंत में यह कहा गया कि अनुच्छेद 370 अस्थाई है। वे यह बताना भूल गए कि दरअसल ऐसा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 1947 की वजह से था जिसपर फिर मैं कभी आगे लिखूँगा।
यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में कहा था कि इतने साल अस्तित्व में रहने की वजह से अनुच्छेद 370 अब स्थाई हो गई है और अब इसको रद्द करना असंभव है। चुनावी वायदे को पूरा करने के राजनीतिक कारण के अलावा अनुच्छेद 370 को ख़त्म करने का कोई आधार नहीं है। जो कुछ भी 5 अगस्त 2019 को किया गया उसका कोई संवैधानिक, वैधानिक, आर्थिक, सुरक्षा संबंधी कोई तर्क नहीं है। और इसी तर्क को नेशनल कॉन्फ़्रेंस ने सुप्रीम कोर्ट में रखा।
जम्मू कश्मीर को मिलने वाला विशेष संवैधानिक दर्जा राज्य पर कोई एहसान नहीं था। इसकी वजह से राज्य का भारत में विलय हुआ था। उस वक़्त जब राज्यों से कहा गया था कि वो भारत या पाकिस्तान में विलय करें तब यह फ़ैसला करने के पीछे धर्म एक बड़ा कारण था। मुस्लिम बाहुल्य जम्मू कश्मीर के लिए भारत में विलय करना और उसके बाद 1947 में भारतीय फौज के साथ पाकिस्तानी हमलावरों को पीछे धकेलना यह अपने आप में इतिहास में अप्रतिम उदाहरण है। इस वजह से भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि काफ़ी मज़बूत हुई। जम्मू कश्मीर ने सिर्फ़ इतनी माँग की थी अपनी विशिष्ट पहचान को बचाए रखने के लिए भारत के संविधान के तहत कुछ विशेष अधिकार मिले। इस संदर्भ में कोई समय-सीमा तय नहीं की गई थी।
उस वक़्त यह समझा गया था कि जब तक जम्मू कश्मीर भारत का हिस्सा है संविधान के तहत मिला उसका विशेष दर्जा बना रहेगा। इस संदर्भ में पिछले साल जो कुछ भी हुआ वह बहुत दुखदायी है।
पिछले 30 सालों में आतंकवाद के बावजूद जम्मू कश्मीर वायदे के मुताबिक़ भारत का हिस्सा बना रहा। उसने लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हिस्सा लिया और देश के विकास में अपना योगदान दिया। लेकिन हमसे जो वायदे किए गए थे वे पूरे नहीं किए गए। यह इतिहास का वह लम्हा है जब यह सवाल पूछना महत्वपूर्ण है कि लोकप्रिय होना ज़्यादा ज़रूरी है या सही होना। जम्मू कश्मीर को मिले विशेष दर्जे को हटाना एक लोकप्रिय फ़ैसला हो सकता है लेकिन देश के संप्रभु वायदे से पीछे हटना कभी भी सही नहीं है।
हम लोग जो नेशनल कॉन्फ़्रेंस से जुड़े हुए हैं वे कभी भी इस बात पर राज़ी नहीं होंगे जो जम्मू कश्मीर के साथ किया गया और न ही इस बात को कभी स्वीकार करेंगे। हम इस बात का विरोध करेंगे और क़ानूनी चुनौती के तौर पर सुप्रीम कोर्ट में हमारा विरोध जारी रहेगा। हम लोकतंत्र और शांतिपूर्ण विरोध में विश्वास करते हैं। अफ़सोस है कि हमारे लोकतांत्रिक अधिकारों को कुचल दिया गया। दर्जनों राजनेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया और बहुतेरों को ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से नज़रबंद रखा गया। अभी भी ढेर सारे ऐसे लोग नज़रबंद हैं। 1980 के उत्तरार्ध में पृथकतावादी राजनीति का विरोध करते हुए नेशनल कॉन्फ़्रेंस के हज़ारों कार्यकर्ता और पदाधिकारी आतंकवादी हिंसा का शिकार हुए। क्योंकि हमने मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टी होना तय किया था। जिस तरीक़े से एक सुनियोजित प्रचार मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के ख़िलाफ़ सरकार के इशारे पर ज़्यादातर राष्ट्रीय मीडिया कर रहा है ऐसे में यह सवाल पूछना वाजिब है कि क्या यह बलिदान सही था।
जहाँ तक मेरा सवाल है जब तक जम्मू कश्मीर एक केंद्र शासित प्रदेश है तब तक मैं विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ूँगा।
मैं भारत भूमि में सबसे ज़्यादा ताक़तवर विधानसभा का सदस्य रहा। मैं छह साल तक इस विधानसभा का नेता भी रहा हूँ। लिहाज़ा मैं कभी भी ऐसे सदन का सदस्य न तो हो सकता हूँ और न होऊँगा जिसके अधिकार छीन लिए गए हैं।
अभी हमारे लगभग सभी वरिष्ठ सहयोगी अपने-अपने घरों में नज़रबंद हैं लिहाज़ा नेशनल कॉन्फ़्रेंस की बैठक नहीं हो पाई, यह तय करने के लिए कि हमारा अगला राजनीतिक क़दम क्या होगा। मैं पूरी शिद्दत के साथ पार्टी को मज़बूत करने में लगा रहूँगा। इसके एजेंडे को बढ़ाता रहूँगा और लोगों की आकाँक्षाओं को प्रतिनिधित्व देने का काम करता रहूँगा। इस दौरान पिछले एक साल में जम्मू कश्मीर में जो अन्याय किया गया है उसके ख़िलाफ़ हमारी लड़ाई जारी रहेगी।
साभार: इंडियन एक्सप्रेस (मूल लेख अंग्रेजी में है। इसका हिंदी में अनुवाद किया गया है।)