इतिहास आपको याद रखेगा डॉ. मनमोहन सिंह
उन्हें कभी अनमना प्रधानमंत्री (रिलक्टेंट पीएम) कहा गया, तो कभी "एक्सीडेंटल पीएम"। कुछ के लिए वे गैर राजनीतिक प्रधानमंत्री थे। कुछ के लिए 'दरबारी पीएम'। सही मायने में डॉ. मनमोहन सिंह ऐसे प्रधानमंत्री थे, जिनके दस साल के कार्यकाल के दौरान देश के नागरिकों को सूचना का अधिकार अधिनियम, शिक्षा का अधिकार अधिनियम, वनाधिकार अधिनियम (संशोधन), खाद्य सुरक्षा अधिनियम, भूमि सुधार एवं अधिग्रहण अधिनियम और मनरेगा जैसे आधा दर्जन से अधिक ऐसे संवैधानिक और लोकतांत्रिक अधिकार मिले, जिन पर किसी भी नागरिक को गर्व होना चाहिए। बेशक, 2009 से 2014 तक का उनका दूसरा कार्यकाल विवादों में घिरा रहा, लेकिन यह जगजाहिर हो चुका है कि जिस 2जी स्पेक्ट्रम और कोयला घोटाले के कारण उनकी सरकार पर "पॉलिसी पैरालिसिस" के आरोप लगे, वे कोर्ट में दम तोड़ चुके हैं। देखते ही देखते ऐसा कथानक गढ़ा गया, जिसने उनकी छवि को दागदार बना दिया।
मनमोहन सिंह कोई खांटी राजनेता नहीं थे, और इसे उन्होंने कभी छिपाया भी नहीं। आज भारतीय अर्थव्यवस्था जिस मुकाम पर खड़ी है, उसमें वही मिडिल क्लास खुद को दोराहे पर पा रहा है, मनमोहन सिंह कभी जिसके चहेते हुआ करते थे। उसी मिडिल क्लास ने उन्हें सत्ता से बेदखल करने में अहम भूमिका निभाई थी, जिसने अन्ना आंदोलन को हवा दी थी। मनमोहन सिंह अर्थशास्त्री थे और उन्होंने 1972 में ही लाइसेंस कोटा राज की खामियों को पकड़ लिया था। और जब 1991 में उन्हें मौका मिला तो उन्होंने प्रधानमंत्री नरसिंह राव की अगुआई में वित्त मंत्री रहते देश की अर्थव्यवस्था को हमेशा के लिए बदल दिया।
निसंदेह उसमें खामियां थीं। उदारीकरण और नई अर्थव्यवस्था ने पूरी तरह से मिडिल क्लास और उसके सपनों को बदल दिया। लेकिन उनकी पूरी योजना में समावेशी अर्थव्यवस्था का सपना था, जिसके अक्स 20 साल बाद नज़र आए जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उन्हें अपने उत्तराधिकारी के तौर पर देश की कमान सौंपी थी। 2004 में किसी ने सोचा भी नहीं था कि मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बन सकते हैं। निंदकों को यह भी लगा कि शायद उनकी सरकार कार्यकाल पूरा न करे। लेकिन एक-एक कर मनमोहन सिंह आगे बढ़ते गए।
यह नहीं भूलना चाहिए कि 2008 की वैश्विक मंदी के दौरान अपना भारत थोड़े से हिचकोले खाकर बच निकला, तो उसके पीछे मनमोहन सिंह की आर्थिक नीति और दूरदर्शिता ही थी। यह मनमोहन सिंह थे जिन्होंने नोटबंदी की संभावित नाकामियों को भांप लिया था। विकास दर की जिस रफ्तार की आज नरेंद्र मोदी सरकार बात कर रही है, उसकी बुनियाद मनमोहन सिंह के कार्यकाल में रखी गई थी। इस वाक्य को इस डिसक्लेमर के साथ पढ़िए कि मोदी सरकार ने विकास दर को आंकने का पैमाना बदल दिया है। उसने आधार वर्ष बदल दिया (2004-05 से 2011-12), यदि पहले वाले आधार वर्ष पर बात करें, तो मोदी सरकार के कार्यकाल में विकास दर की रफ्तार मनमोहन सरकार की रफ्तार से कम ही आंकी जाएगी।
मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दौरान लाए गए जिस मनरेगा को प्रधानमंत्री मोदी ने संसद में पिछली सरकार की "नाकामियों का स्मारक" बताया था, उसने कोरोना और मनमाने ढंग से लागू किए गए लॉकडाऊन के दौरान ग्रामीण अर्थव्यवस्था को संभाले रखा। महानगरों से रातोंरात अपने गांव-घर को निकले लोगों के लिए यही मनरेगा संबल बना था। आज मोदी सरकार 80 करोड़ लोगों को मुफ्त में अनाज देकर दानदाता बनी हुई है, लेकिन मनमोहन ने इस अधिकार को खाद्य सुरक्षा के जरिये संवैधानिक अधिकार में बदल दिया था। 1927 के वनाधिकार अधिनियम में संशोधन कर 2006 में जो वनाधिकार अधिनियम (एफआरआई) लाया गया उसने जंगलों में रह रहे करोड़ों आदिवासियों और पारंपरिक वनवासियों को सम्मानजनक ढंग से जीने का अधिकार दिया।
सूचना के अधिकार ने सरकारों और नौकरशाहों की जवाबदेही सुनिश्चित करने में अहम भूमिका निभाई है, जिसे आज कमजोर किया जा रहा है।
आज जब वह नहीं हैं, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व महासचिव प्रकाश करात शायद अफसोस करें कि उन्होंने एक तत्कालीन रूप से गैरजरूरी मुद्दे पर मनमोहन सरकार से समर्थन वापस लिया था। 2009 में माकपा ने भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के बाद समर्थन वापस लेकर यूपीए सरकार को संकट में डाल दिया था। अमेरिका का जो होना है, वह तो हो ही रहा है, लेकिन इससे जनवादी तरीके से आगे बढ़ रही सरकार को धक्का लगा था। उस सरकार में लेफ्ट पार्टियां सेफ्टी वाल्व का काम कर रही थीं।
मनमोहन सिंह राजनीतिक प्रधानमंत्री नहीं थे, जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। वह अच्छे वक्ता भले नहीं थे, लेकिन उनकी बातें अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सम्मान के साथ सुनी जाती थीं। एक वाकये को याद किया जा सकता है। 2010 में टोरंटो में जी20 सम्मेलन से पहले द्विपक्षीय बातचीत से पहले ओबामा ने उनके बारे में कहा था, "मैं आपको बता सकता हूं कि यहां जी 20 में जब प्रधानमंत्री बोलते हैं, तो लोग सुनते हैं। इसलिए क्योंकि अर्थव्यवस्था से जुड़े मुद्दों, वैश्विक ताकत बनने की भारत की बारीकियों और वैश्विक शांति और समृद्धि के प्रति उनकी गहरी समझ है।"
बेशक उनसे भी ग़लतियां हुईं, जैसे कि उन्होंने यूपीए सरकार के समय सहयोगी दलों के दबाव में कई ऐसे फैसले लिए जिससे सरकार के प्रदर्शन पर असर पड़ा। वरना यूपीए का पहला कार्यकाल आर्थिक-सामाजिक गैरबराबरी दूर करने की दिशा में मील का पत्थर है। मनमोहन सिंह भले ही गैर राजनीतिक प्रधानमंत्री थे, इसके बावजूद उनकी तुलना चीन के देंग श्याओपिंग से की जा सकती है, जिन्होंने 1978 में चीन में आर्थिक सुधार पर चलते हुए चीन का नक्शा ही बदल दिया। हालांकि कम्युनिस्ट श्याओपिंग से तुलना कांग्रेस के लोगों को भी नागवार गुजर सकती है। मगर ध्यान रहे यह तुलना सिर्फ आर्थिक सुधारों तक ही सीमित है।
मनमोहन सिंह ने शायद मीडिया के चाल-चलन को अपने कार्यकाल के अंतिम दौर में काफी पहले ही भांप लिया था। 2013 में ही मीडिया ने नरेंद्र मोदी के सुर में सुर मिलाना शुरू कर दिया था, जिसका खामियाजा यूपीए और मनमोहन सिंह को उठाना पड़ा था। इसके बावजूद इस कम बोलने वाले प्रधानमंत्री ने मीडिया का सामना करने से गुरेज नहीं किया। 2014 में जाते जाते डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा था कि "मीडिया की तुलना में इतिहास उनके प्रति दयालु होगा"! इतिहास आपको याद रखेगा डॉ. मनमोहन सिंह!