OBC Politics: पिछड़ों के कोटे की लड़ाई अब चुनाव का मुद्दा
बी जे पी की फ़ायर ब्राण्ड नेता उमा भारती ने महिला आरक्षण पर भविष्य की लड़ाई का आग़ाज़ कर दिया है। उमा भारती ने पिछड़े वर्ग की महिलाओं को कोटा नहीं दिए जाने पर निराशा जताई है। उन्होंने तो दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग के साथ साथ पिछड़े मुसलमानों के लिए आधी सीटें आरक्षित करने की मांग कर डाली है। उनकी चिंता अकारण नहीं है।पिछड़ों के कई नेता लगातार कहते रहे हैं कि पिछड़े वर्ग की महिलाओं के लिए अलग कोटा नहीं होने पर एक बार फिर से लोक सभा और विधान सभाओं में सवर्ण जातियों का दब दबा बढ़ जाएगा।
अब सवाल ये उठ रहा है कि क्या महिला आरक्षण पिछड़ों वर्ग के क्षत्रपों का राजनीति पर दबदबा ख़त्म करने का एक बड़ा दांव बन सकता है।अब तक राजनीतिक आरक्षण नहीं होने के बाद भी लोक सभा और विधान सभाओं में पिछड़ी जातियों की संख्या बढ़ती जा रही है। लेकिन आबादी के अनुपात में अभी भी संख्या कम है। पिछड़ों के नेताओं का मानना है कि महिला आरक्षण में अलग से कोटा नहीं होने पर ज़्यादातर सीटें सवर्ण महिलाओं के पास चली जाएगी और पिछड़े नेताओं का राजनीतिक सपना अधूरा रह जाएगा।शिक्षा और सामाजिक पिछड़ेपन के कारण पिछड़ी जातियों की बहुत कम महिलायें राजनीति में सक्रिय हैं।
1993 में पंचायत,ज़िला परिषद और नगर निकायों में महिलाओं के लिए आरक्षण का क़ानून बनाए जाने के बाद भी पिछड़ा वर्ग से ज़्यादा संख्या में महिलायें राजनीति में दब दबा क़ायम नहीं कर पायीं। आम तौर पर राजनीति में असर रखने वाले परिवार की महिलायें ही आरक्षित सीटों से जीतती हैं। स्थानीय स्तर पर उनके पति या परिवार के पुरुष सदस्य उनके नाम पर काम करते हैं। इन महिलाओं के लिए विधान सभा या लोक सभा का चुनाव जीतना आसान नहीं होगा जबकि सवर्ण महिलायें आसानी से जीत सकती हैं। राजनीतिक हार से बचने के लिए जाति आधारित पार्टियों ने भी बिल को समर्थन देकर लोक सभा में पास कर दिया लेकिन उनकी राजनीतिक शक्ति घटने की आशंका अब भी बनी हुई है।
किसका होगा फ़ायदाः गृह मंत्री अमित शाह ने बिल पर बहस के दौरान बताया कि बी जे पी के 85 सांसद यानि 29 प्रतिशत पिछड़े वर्ग से हैं। 2019 के लोक सभा चुनाव में बी जे पी के 303 सदस्य जीते थे।विधान सभाओं में 27 फ़ीसदी और विधान परिषदों में 40 प्रतिशत पिछड़े वर्ग से हैं। मोदी सरकार में 29 मंत्री पिछड़े वर्ग से हैं। माना जाता है कि देश में पिछड़ों की आबादी 60 प्रतिशत है। इस हिसाब से पिछड़ों का प्रतिनिधित्व कम है। इसके बावजूद पिछड़े वर्ग का कोटा तय किए बिना इसे पास करा लेना मोदी सरकार की एक बड़ी जीत मानी जा सकती है।
महिला आरक्षण बिल को संसद में कई बार पेश किया गया। हर बार पिछड़ों के कोटा के मुद्दे पर उसे पास नहीं किया जा सका। 1996, 2002,2003 और 2008 में इस पर कोई सहमति नहीं बन पायी। 2010 में महिला आरक्षण बिल राज्य सभा से पास हो गया लेकिन लोक सभा में पिछड़े नेताओं के विरोध के कारण इसे पास नहीं किया जा सका। एक दिलचस्प बात ये है कि सवर्ण जिस पार्टी के साथ होते हैं वो पार्टी पिछड़े कोटा के बिना ही बिल पास कराना चाहती है। 2010 में सवर्ण कांग्रेस के साथ थे इसलिए कांग्रेस पिछड़े कोटा से बचती रही। अब सवर्णों का बड़ा वर्ग बी जे पी के साथ है इसलिए बी जे पी भी बिना पिछड़ा कोटा के बिल ले आयी और पास भी करा लिया। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव जैसे नेताओं को भी मजबूरी में समर्थन देना पड़ा। लेकिन इस बार उनको एक बड़ी सफलता कांग्रेस के समर्थन के रूप में मिली।कांग्रेस की नेता सोनिया गांधी ने भी बिल पर बहस के दौरान पिछड़ों के कोटा का समर्थन किया।
कोटा की मांग अब ख़त्म होगीः सवाल ये है कि क्या पिछड़ी जातियों के दम पर राजनीति करने वाले क्षेत्रीय नेता अब कोटा की मांग छोड देंगे या 2024 के लोक सभा चुनावों में इसे एक बड़ा मुद्दा बनायेंगे।2024 में महिला आरक्षण लागू नहीं होगा क्योंकि इस बिल में साफ़ कर दिया गया है कि 2025 तक जनगणना और चुनाव क्षेत्रों की नयी सीमा तय होने के बाद ही महिला आरक्षण लागू होगा। नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव और अखिलेश यादव जैसे नेता जाति के हिसाब से जनगणना की मांग पहले से कर रहे हैं। अब इसमें महिला आरक्षण कोटा भी जुड़ जाएगा।
पिछले दो लोक सभा चुनावों में बुरी तरह हार के बाद कांग्रेस भी पिछड़ों की वोट शक्ति समझने लगी है। 2019 के लोक सभा चुनावों में राहुल गांधी ने जनेउ दिखाया, ख़ुद को कश्मीरी ब्राह्मण घोषित किया लेकिन सवर्ण कांग्रेस के साथ नहीं आए। अब कांग्रेस को पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यकों से ज़्यादा उम्मीद है। दलित और आदिवासियों का एक वर्ग भी महिला आरक्षण में अलग से कोटा की मांग उठा रहा है। वर्तमान व्यवस्था इस वर्ग की महिलाओं को उनके वर्ग में ही आरक्षण मिलेगा। इस समय लोक सभा में दलितों के लिए 84 और आदिवासियों के लिए 41 सीटें आरक्षित हैं। दलित और आदिवासी नेता इसमें आरक्षण नहीं चाहते हैं। 2019 के चुनावों में क़रीब 15 प्रतिशत (80) महिलायें जीत कर आयीं। आरक्षण के बाद महिलाओं की संख्या कम से कम 180 हो जाएगी। पिछड़े नेताओं को डर है कि महिला सीटों पर मुक़ाबला के लिए उन्हें 10-15 साल और इंतज़ार करना होगा। विधान सभाओं में महिलाओं की संख्या और भी कम क़रीब 10 प्रतिशात ही है। पिछड़ों का कोटा नहीं होने पर यहाँ भी समीकरण बदल सकता है।
कोटा के बिना क्यों आता है बिल
लोक सभा की एक संसदीय समिति ने 2010 के बाद कहा था कि पिछड़े वर्ग की महिलाओं के लिए आरक्षण पर विचार किया जाना चाहिए। लेकिन जो भी पार्टी सत्ता में रही वो पिछड़े कोटा के लिए तैयार नहीं हुई। असल में सवर्णो को महिला आरक्षण में पिछड़ों का कोटा पसंद नहीं है। पिछड़ों का कोटा होने का साफ़ मतलब होगा कि सवर्ण राजनीतिक तौर पर कमज़ोर होंगे। लोक सभा और विधान सभाओं में उनकी संख्या कम हो सकती है।
कांग्रेस अब सत्ता से बाहर है और उसके साथ आई एन डी आई ए गठबंधन में पिछड़ों के नेतृत्व वाली पार्टियाँ ज़्यादा मज़बूत हैं इसलिए कांग्रेस अब पिछड़ों के कोटा का समर्थन कर रही है।आई एन डी आई ए के नेताओं की एकता का एक और आधार ओ बी सी कोटा बन सकता है। आई एन डी आई ए में शामिल ज़्यादातर दल ओ बी सी कोटा के पक्ष में हैं। ज़ाहिर है कि कोटा की लड़ाई अभी ख़त्म नहीं बल्कि शुरू हुई है।