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ओबीसी मुक्त बीजेपीः छोटे दल अब और इस्तेमाल होने को तैयार नहीं

ओबीसी मुक्त बीजेपीः छोटे दल अब और इस्तेमाल होने को तैयार नहीं

बीजेपी में 8 ओबीसी विधायक अभी तक पार्टी छोड़ चुके हैं। जिनमें तीन मंत्री भी शामिल हैं। ताजा नाम डॉ धर्म सिंह सैनी का है। किसी पार्टी से इतने बड़े पैमाने पर ओबीसी नेताओं का मोहभंग बता रहा है कि बीजेपी का हिन्दुत्व का एजेंडा उसी पार्टी के तमाम नेताओं को नामंजूर है। 

2017 में जिस ओबीसी मतदाता के कसीदे पढ़ते हुए बीजेपी सत्तासीन हुई थी, 2022 में उसी ओबीसी मतदाता के प्रतिनिधि बीजेपी को लगभग कोसते हुए किनाराकशी कर रहे हैं। तीन मंत्री - स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान, धर्म सिंह सैनी ओबीसी के बड़े नेताओं में हैं और अपने-अपने इलाकों में लंबे समय से दक्षिणपंथी पार्टी का झंडा उठाए घूम रहे थे। हालांकि अभी तीन बड़े ओबीसी नेता सपा में आए हैं लेकिन अगर उनके प्रोफाइल का ठीक से अध्ययन किया जाए तो सारी कहानी साफ हो जाती है कि आखिर ओबीसी का बीजेपी से क्यों मोहभंग हुआ।

बात शुरू करते हैं डॉ धर्म सिंह सैनी से, जिन्होंने आज इस्तीफा दिया। डॉ सैनी के पास योगी कैबिनेट में आयुष जैसा महत्वहीन मंत्रालय था। जबकि डॉ सैनी 2002 के विधानसभा चुनाव से लगातार सदन में पहुंच रहे हैं। लेकिन बीजेपी ने कभी इस रूप में उन्हें स्वीकार नहीं किया कि वे ओबीसी के तहत आने वाले सैनी उपजाति के बड़े नेता है। फिरोजाबाद, शिकोहाबाद, टूंडला, मुजफ्फरनगर, बरेली, शाहजहांपुर आदि जिलों में सैनी समुदाय की अच्छी खासी तादाद है। सैनियों के अपने संगठन हैं, जिनके जरिए डॉ धर्म सिंह सैनी सक्रिय थे। इतना ही नहीं मुस्लिम समाज में भी डॉ सैनी की ठीकठाक मौजूदगी थी। 2017 में उनकी जीत में मुसलमानों ने भी भूमिका निभाई थी, इसे डॉ सैनी खुद भी जानते हैं। इसके बावजूद बीजेपी में उनकी पहुंच सीमित थी और अपने समाज के लिए काम कराने की उनकी अपनी क्षमता का बीजेपी ने कभी इस्तेमाल नहीं होने दिया।

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स्वामी प्रसाद मौर्य उस मौर्य समुदाय से हैं, जो राज्य में तीसरा सबसे बड़ा ओबीसी (यादव और कुर्मी से आगे) ग्रुप है और कुल आबादी का 8 फीसदी है। स्वामी प्रसाद मौर्य पूर्वी यूपी में कुशीनगर जिले के पडरौना निर्वाचन क्षेत्र से विधायक हैं। उनकी जाति पर उनका प्रभाव रायबरेली, ऊंचाहार, शाहजहांपुर और बदायूं जिलों के आसपास फैला हुआ है।माना जा रहा है कि यूपी की 403 सीटों में से 100 से ज्यादा सीटों पर मौर्य लोगों की अच्छी खासी मौजूदगी है। इसलिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इस समुदाय ने अपनी सौदेबाजी की ताकत को बढ़ाने के लिए महान दल नामक अपनी पार्टी बनाई है। यह भी कोई संयोग नहीं है कि अखिलेश यादव ने अपना अभियान शुरू होने से पहले महान दल के साथ गठबंधन किया था।

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स्वामी प्रसाद मौर्य की तरह, दारा सिंह चौहान भी ओबीसी हैं। वह नोनिया जाति से है जिसे ओबीसी में सबसे पिछड़ा माना जाता है और पूर्वी यूपी में आबादी का 3 फीसदी है। यह समुदाय वाराणसी, चंदौली और मिर्जापुर के आसपास फैला हुआ है। हालांकि बीजेपी ने भी जन शक्ति पार्टी को साथ रखा हुआ जो नोनिया वोटों के दावे करती है। बहरहाल, दारा सिंह इस समुदाय के सबसे बड़े नेता हैं।

राजभर यूपी में एक और शक्तिशाली ओबीसी समुदाय है, जिसकी पूर्वी यूपी में महत्वपूर्ण भूमिका है, जहां माना जाता है कि यह आबादी का लगभग 15 से 20 फीसदी है। ऐसे समाज में जहां जाति और उपजातियां चुनावी अंकगणित में सबसे बड़ा निर्णायक कारक हैं, ये बहुत बड़ी संख्या है, और कोई भी पार्टी या नेता उनकी उपेक्षा नहीं कर सकता।

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यही वजह है कि ओम प्रकाश राजभर राज्य की राजनीति में एक अहम खिलाड़ी के तौर पर उभरे हैं। उनके दल सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी ने 2017 में, बीजेपी के साथ थी। योगी आदित्यनाथ की कैबिनेट में लंबे इंतजार के बाद मंत्री बने, लेकिन तीन महीने पहले अखिलेश यादव के पास चले गए। उनके इस कदम के प्रभाव को बेअसर करने के लिए, बीजेपी ने राजभर की दो कम चर्चित पार्टियों - भीम राजभर की भारतीय सुहेलदेव जनता पार्टी और बाबू लाल राजभर की शोषित समाज पार्टी के साथ गठजोड़ किया। लेकिन ये दोनों दल ओम प्रकाश राजभर के मुकाबले कहीं नहीं ठहरते। इन दोनों के साथ, बीजेपी ने कुछ महीने पहले सात छोटी जाति-आधारित पार्टियों के साथ गठबंधन किया था।

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यूपी में अपनी जातियों और उप-जातियों के बीच स्थानीय प्रभाव वाले इन छोटे दलों के उद्भव को कभी बेहतर ढंग से आंका नहीं गया। ओबीसी समूह में यादव ग्रुप ने सारा फायदा अकेले ले लिया। इसी तरह दलितों में जाटव ग्रुप ने सारा फायदा ले लिया। लेकिन अब ओबसी की इन छोटी-छोटी जातियों की राजनीतिक, सामाजिक लालसा जागी है। संयोग से ओमप्रकाश राजभर, स्वामी प्रसाद मौर्य ने इसे मंच और आवाज दे दी है। अखिलेश इस राजनीतिक स्थिति को भांप गए और बीजेपी अपने गुरुर में रही।

2014 में, बीजेपी ने इन छोटी-छोटी जातियों के नेताओं का 'इस्तेमाल' कर उनकी भावना का सफलतापूर्वक फायदा उठाया और उन्हें हिंदुत्व के पाले में फंसाया। नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने इस सोशल इंजीनियरिंग का नेतृत्व किया और आरएसएस का मानना ​​​​था कि उसने यूपी में 20 फीसदी मुसलमानों की तुलना में एक बड़ी हिंदू एकता स्थापित की है।

बीजेपी इसे छोटे जाति समूहों का स्थायी समर्थन मानकर इन्हें भूल गई। जबकि इन कमजोर जातियों ने हिंदुत्ववादी ताकतों का समर्थन इस विश्वास के साथ किया था कि उन्हें सत्ता में उनका हिस्सा मिलेगा, लेकिन बीजेपी के साथ तीन चुनावों के बाद, वे निराश और मोहभंग महसूस कर रहे हैं।

2017 में अखिलेश यादव की हार का एक मुख्य कारण यह भी था कि उनकी 'एकमात्र' मुस्लिम-यादव पार्टी की छवि बन गई थी। जबकि बीजेपी गैर-यादव समुदायों को सफलतापूर्वक अपने पाले में ले आई थी। इस स्थिति को बदलने के लिए अखिलेश यादव लंबे समय से काम कर रहे हैं। बीजेपी से जिस ओबीसी का मोहभंग हुआ है, वो उनकी मदद कर रहा है।

ओबीसी भी निराश महसूस कर रहे थे कि योगी आदित्यनाथ को बीजेपी के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य के बजाय मुख्यमंत्री बनाया गया था। योगी आदित्यनाथ ने अपने कार्यकाल के दौरान इस धारणा को दूर करने का कोई प्रयास नहीं किया कि वह एक ठाकुर नेता के रूप में मुखर हैं। मोदी और शाह ने महसूस किया कि योगी के नेतृत्व में ओबीसी नाराज हैं। उन लोगों ने योगी को हटाना चाहा लेकिन योगी को आरएसएस का ठोस समर्थन है।

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