समाज नहीं पार्टी के लिए चिंतित हैं वंचित तबक़े के सांसद
कार्यपालिका, न्यायपालिका और निजी क्षेत्र में शीर्ष पदों पर नुमाइंदगी न होने के कारण समाज के दलित, पिछड़े तबक़े, महिलाओं और निःशक्त लोगों को हर मोर्चे पर शोषण का सामना करना पड़ रहा है। यह तबक़ा संसद में पहुँचे अपने समाज के नेताओं को बड़ी उम्मीद भरी नज़रों से देखता है। लेकिन ये नेता अपनी पार्टी लाइन के मुताबिक़ काम करने व शीर्ष नेतृत्व की प्रशंसा करने में जुटे हैं और वंचित समाज का नेतृत्व करने के लिए तैयार नहीं है।
हाल ही में एक सामाजिक संस्था “वी, द पीपल” की ओर से नई दिल्ली स्थित कांस्टीट्यूशन क्लब में उन सांसदों को एक कार्यक्रम में सम्मानित किया गया, जिनसे इस संस्था को सामाजिक न्याय की उम्मीद थी। संस्था ने सांसदों व मंत्रियों को अपनी तरफ़ से ज्ञापन भी सौंपा। संस्था की ओर से प्रमुख माँगें निम्नवत थीं -
1- संविधान लागू हुए 69 साल हो गए और और 1991 में मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों के लागू होने के बाद भी अब तक पिछड़े वर्ग को प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है। केंद्र सरकार की नौकरियों में पिछड़े वर्ग की हिस्सेदारी 6 प्रतिशत है।
2- समूह ग और घ की नौकरियों में नियुक्तियाँ न कर ठेके पर कर्मचारी रखे जा रहे हैं। इसमें किसी तरह का आरक्षण नहीं है और शीर्ष पदों पर बैठे सवर्ण अधिकारी सवर्ण लोगों को ही ठेके का काम दे रहे हैं। ठेके के कर्मचारी सवर्ण ही रखे जा रहे हैं।
3- विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों में संविदा पर सवर्णों की भर्ती हो रही है। सरकार अब संयुक्त सचिव, निदेशक, उप सचिव जैसे पदों पर लेटरल एंट्री के माध्यम से सवर्णों की भर्ती कर रही है, बहुजन समाज को कोई स्थान नहीं दिया जा रहा है।
4- विश्वविद्यालयों और डिग्री कॉलेजों में भर्ती के लिए ऐसी रोस्टर प्रणाली बनाई गई है कि ओबीसी, एससी, एसटी को निर्धारित आरक्षण नहीं मिल पा रहा है।
5 - 85 प्रतिशत बहुजन आबादी को 50 प्रतिशत आरक्षण में समेट दिया गया है। ओबीसी आरक्षण में क्रीमी लेयर लगाकर उन्हें जगह नहीं दी जा रही है।
इसके अलावा आयोजकों ने निजी क्षेत्र में वंचित तबक़े की हिस्सेदारी, ठेकों, पत्रकारिता सहित विभिन्न क्षेत्रों में हिस्सेदारी की भी बात सांसदों के सामने रखी।
इस कार्यक्रम में केंद्रीय मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते, संतोष गंगवार, रामदास अठावले सहित दो दर्जन से ज़्यादा सांसद आए। उन्होंने अपने विचार रखे। सांसदों के विचार सुनकर निराशा होती है कि वे अपनी पार्टी लाइन से आगे बढ़ने का साहस नहीं कर पाते। जो समस्याएँ उनके सामने रखी जाती हैं, उस पर विचार करने, सरकार से उस पर बात करने के बजाय सरकार से जुड़े पार्टी सांसद यही जताने में लगे रहे कि सरकार बहुत अच्छा काम कर रही है। अभी जो गड़बड़ियाँ हैं, वह पिछली सरकार की वजह से हैं। सभी सांसदों की बातें सामने रखना संभव नहीं है, लेकिन वंचित तबक़ों की पैरोकारी करने वाले प्रमुख सांसदों की समीक्षा जरूरी हो जाती है, जिनसे समाज कुछ अपेक्षा करता है।
सबसे पहले सतना से तीसरी बार बीजेपी से सांसद चुने गए गणेश सिंह के भाषण पर चर्चा करते हैं। गणेश सिंह की चर्चा इसलिए ज़रूरी है क्योंकि सोलहवीं लोकसभा में अन्य पिछड़े वर्ग के कल्याण के लिए बनी समिति की अध्यक्षता उन्होंने की थी और हाल ही में समिति की 135 पेज की रिपोर्ट सामने आई है।
इस रिपोर्ट को तैयार कराते समय स्वाभाविक रूप से गणेश सिंह ने आईएएस से लेकर ठेकों पर हो रही भर्तियों में धांधलियों व पिछड़े वर्ग के शोषण के गवाह रहे पीड़ितों से बात की है, जिसका जिक्र उन्होंने रिपोर्ट में किया है। स्वाभाविक है कि उन्हें यह जानकारी है कि वंचित तबक़ों के साथ किस तरह से भेदभाव किया जा रहा है।
गणेश सिंह ने अपने संबोधन में साफ़ कहा कि ओबीसी को आरक्षण राजनीतिक मजबूरियों के चलते मिल गया, इस वर्ग ने आरक्षण के लिए संघर्ष नहीं किया।
हक़ीक़त देखें तो गणेश सिंह के समुदाय से ही आने वाले पंजाब राव देशमुख ने 1944 में ही अखिल भारतीय ओबीसी फ़ेडरेशन बना लिया था और आरक्षण दिया जाना इस संगठन की माँग रही थी। इसके अलावा ओबीसी आरक्षण के लिए लंबा संघर्ष चला है।
विभिन्न राज्यों ने 1991 से पहले आरक्षण का प्रावधान किया है। यह कहना बौद्धिक बेइमानी या नासमझी ही कही जाएगी कि ओबीसी आरक्षण धुप्पलबाजी में मिल गया। साथ ही अगर राजनीतिक मजबूरियों की बात करें तो राजनीतिक मजबूरी में ही सही, वीपी सिंह के काल में मजबूरी में बेहतर काम हुआ। काश, बीजेपी भी राजनीतिक मजबूरी में प्राइवेट सेक्टर में वंचित तबक़े को प्रतिनिधित्व दे देती!
इसके अलावा आरोप लगाए गए कि कांग्रेस के शासनकाल में ओबीसी आरक्षण के लिए कुछ नहीं हुआ। हक़ीक़त यह है कि जनता पार्टी सरकार गिरने के बाद इंदिरा गाँधी ने मंडल कमीशन का कार्यकाल बढ़वाया और उसे रिपोर्ट पूरी करने का मौक़ा दिया, जिसके लिए बीपी मंडल ने इंदिरा सरकार के प्रति आभार भी जताया है।
1993 में कांग्रेस के काल में ही कोर्ट के आदेश के बाद मंडल कमीशन की सिफ़ारिशें लागू हुईं और 2007 में कांग्रेस के शासन में ही मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में आरक्षण देने की मंडल कमीशन की एक और सिफ़ारिश को लागू करा दिया।
बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी व अपना दल के सांसद थोड़ा क्रांतिकारी नजर आए। लेकिन बीजेपी के जिन सांसदों से वंचित तबक़े के हितों के लिए सरकार से लड़ने की अपेक्षा की गई, उन्होंने पूरी तरह निराश किया।
प्रसिद्ध समाजवादी नेता हरिकेवल प्रसाद के पुत्र रवींद्र कुशवाहा अब बीजेपी नेता बन चुके हैं। सलेमपुर से सांसद रवींद्र कुशवाहा ने अपने पिता को वंचितों का मसीहा बताते हुए बीजेपी की तारीफ़ में दुनिया का सबसे ऊंचा पुल बना डाला। उन्होंने यह साबित करने में पूरी ऊर्जा लगा दी कि प्रधानमंत्री ओबीसी सांसदों से अलग से मिलते हैं और यह विश्व इतिहास में पहली बार हुआ है। उनके मुताबिक़, नरेंद्र मोदी व अमित शाह ओबीसी समुदाय से हैं, जिससे अब ओबीसी तबक़े को कोई परेशानी नहीं रह गई है।
कुशवाहा के माध्यम से ही संभवतः कांस्टीट्यूशन क्लब में बैठी ऑडियंस को पता चला होगा कि अमित शाह ओबीसी हैं! दुर्भाग्य से कांग्रेस के किसी नेता ने इस कार्यक्रम में शिरक़त नहीं की, जिससे पता चल सके कि इन मसलों पर उनका क्या पक्ष है। कांग्रेस किस तरह से वंचितों का आवाज बनने की योजना बना रही है और अब तक उसने क्या किया है। इस मसले पर बात करने पर वहाँ आए तमाम लोगों ने कांग्रेस का मजाक भी बनाया कि जो दल इस तबक़े से जुड़ा ही नहीं, कार्यक्रम में शामिल ही नहीं हो पा रहा है, उससे क्या उम्मीद की जा सकती है!
हालाँकि बीजेपी सरकार की सहयोगी अपना दल की नेता अनुप्रिया पटेल ने ज़रूर थोड़ा सा आश्वस्त किया। उन्होंने लोगों से कहा कि आप लोगों के दुख दर्द, तकलीफों की सुनवाई के लिए हमारे दरवाजे खुले हैं और आप अपनी कोई भी समस्या लेकर आ सकते हैं। उन्होंने शून्यकाल का इस्तेमाल कर वंचितों के सवाल संसद में उठाने का वादा किया।
‘सत्य हिन्दी’ ने एक समीक्षा में दिखाया था कि वंचित तबक़े को 49.5 प्रतिशत आरक्षण देने के नियम का पालन उत्तर प्रदेश के डिग्री कॉलेजों की भर्तियों में नहीं हो रहा है। इसके अलावा चयन में ओबीसी तबक़े की मैरिट भी ज़्यादा गई है, क्योंकि 52 प्रतिशत ओबीसी आबादी को 27 प्रतिशत आरक्षण में समेट दिया गया है और सामान्य पदों पर उन्हें नहीं जाने दिया गया।
इस तरह के अनेक मामले हैं, जहाँ वंचित तबक़े के साथ अन्याय हो रहा है। वहीं वंचित तबक़ा जिन माननीयों से न्याय की आस लगाए बैठा है, वह सरकार की शान में कसीदे गढ़ने में व्यस्त हैं।
नेता जिन वोटरों से जातीय आधार पर वोट माँगने जाते हैं, उनसे जुड़े मसले के लिए सरकार से लड़ाई लड़ने का माद्दा कहीं से नहीं दिखा रहे हैं। वह बताने में व्यस्त हैं कि सरकार ने ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा दे दिया, लेकिन यह बताने के लिए तैयार नहीं हैं कि इस वर्ग को शोषण से बचाने के लिए क्या उपाय किए जा रहे हैं और भविष्य में वह इन मसलों पर किस तरह से सहयोग कर सकते हैं।
अंग्रेजों से स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने वाले नेताओं ने समता मूलक समाज का सपना देखा था और शुरुआती वर्षों में उसके मुताबिक़ काम भी किया गया। अब नेता पुत्र या राजनीति में करियर बनाने की कवायद में लगे लोग जिस दल में जा रहे हैं, उसका प्रचार करने के अलावा संभवतः किसी मसले पर सोचने के लिए तैयार नहीं हैं।