बंगाल में एनआरसी का हौव्वा उल्टा पड़ेगा बीजेपी को?
नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजंस (एनआरसी) का जिन्न असम से निकल कर पश्चिम बंगाल पहुँच चुका है। यह मुद्दा सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और विपक्षी दल बीजेपी के बीच भले ही राजनीतिक दाँवपेच का खेल हो, आम जनता के बीच अफ़रातफ़री का माहौल है। लोग परेशान हैं, जन्म-मृत्यु सर्टफ़िकट निकलवाने के लिए राज्य के एक छोर से दूसरे छोर का सफ़र कर सरकारी दफ़्तरों के सामने घंटों लाइन में खड़े होने लगे हैं।
कलकत्ता निगर निगम के मुख्यालय के सामने गुरुवार को सैकड़ों लोगों की लाइन लगी थी, लोगों को अपने बच्चों का जन्म सर्टिफ़िकेट और मरे हुए परिजनों का मृत्यु सर्टिफ़िकेट चाहिए। घंटों लाइन में खड़े होने के बाद कुछ लोगों को मिला तो कुछ को बाद में आने को कह दिया गया। दलालों की चाँदी है, उनकी फ़ीस कई गुणे ज़्यादा हो गई। नगर निगम के कर्मचारी परेशान हैं।
अफ़रातफ़री
निगम कर्मचारियों का कहना है कि यह स्कूल दाखिले का समय नहीं है। दुर्गापूजा की छुट्टी का माहौल बनने लगा है, लोग खरीददारी में लगे हुए हैं, अपने-अपने घर जाने की तैयारी में हैं, दफ़्तरों से छुट्टी के जुगाड़ में है। यह जन्म-मृत्यु सर्टिफिकेट का समय नहीं हो सकता, लेकिन सैकड़ों की भीड़ रोज़ होने लगी है।मुंशी मुशरर्फ़ हुसैन और उनकी बीवी रेशमा बेग़म कोलकाता से 200 किलोमीटर दूर उत्तर बंगाल के मुर्शिदाबाद ज़िले के सालार से आए हैं। वे अपने कॉलेज में पढ़ रहे बच्चों के जन्म सर्टिफ़िकेट के लिए लाइन में लग गए। इनके बच्चों का जन्म कोलकाता शहर में ही हुआ था और उसे साबित करने के लिए उनके पास अस्पताल का डिस्चार्ज सर्टिफिकेट है, लेकिन लोगों ने उन्हें बताया कि वह काफ़ी नहीं है और उनके पास नगर निगम का सर्टिफ़िकेट होना ही चाहिए।
ख़ुदकुशी
यह अफ़रातफ़री बेमतलब नहीं है और कोलकाता तक सीमित नहीं है। पिछले दिनों राज्य में चार लोगों ने आत्महत्या की, ख़बर है कि उन लोगों ने एनआरसी के डर से ऐसा कर लिया। मुख्य मंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि एनआरसी के आतंक से 11 लोगों ने ख़ुदकुशी कर ली है, जिसे बीजेपी ने ग़लत क़रार दिया।बीजेपी ख़ुदकुशी की बात भले न माने, पर वह अफरातफरी से इनकार नहीं करती। राज्य में एनआरसी की बात उसी ने उठाई। राज्य बीजेपी अध्यक्ष दिलीप घोष ने एक नहीं, कई बार कहा है कि पश्चिम बंगाल में हर हाल में एनआरसी लागू हो कर रहेगा।
ध्रुवीकरण
बीजेपी ने यह भी कहा है कि एनआरसी लागू होने के बावजूद किसी हिन्दू को राज्य के बाहर नहीं जाने दिया जाएगा। यहीं पूरे मामले का पेच फंसा हुआ है। यही बात केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह भी असम में कह चुके हैं।
मोटे तौर पर धर्मनिरपेक्ष और आज़ादी के बाद से किसी बड़े दंगे से दूर रहने वाले पश्चिम बंगाल में यह सवाल पूछा जा रहा है कि क्या बीजेपी का मतलब यह है कि मुसलमानों को राज्य के बाहर कर दिया जाएगा
राजनीतिक समीकरण
पिछली यानी 2011 में हुई जनगणना के अनुसार, पश्चिम बंगाल में 2 करोड़ 46 लाख यानी लगभग 27 प्रतिशत मुसलमान हैं। राज्य के तीन जिलों, मुर्शिदाबाद, मालदह और उत्तर दिनाजपुर में मुसलमान बहुसंख्यक हैं। इसके अलावा दक्षिण दिनाजपुर, बीरभूम, बर्द्धमान, नदिया, उत्तर चौबीस परगना, दक्षिण चौबीर परगना, हावड़ा और कोलकाता में मुसलमानों की तादाद 20 से 40 प्रतिशत है। कुल मिला कर राज्य विधानसभा की कुल 294 सीटों में से लगभग 80-90 सीटें ऐसी हैं, जहाँ मुसलमान चुनाव नतीजों को प्रभावित कर सकते हैं। लगभग 40-45 सीटों पर मुसलमानों का बहुमत है।
पर्यवेक्षकों का कहना है कि बीजेपी की रणनीति यह है कि उसे भले ही कुछ मुसलिम बहुल सीटों पर राजनीतिक नुक़सान हो, वह एनआरसी के बहाने हिन्दू-मुसलिम विभाजन को और तीखा करे, ध्रुवीकरण को बढ़ाए।
यदि वह ऐसा करने में कामयाब रही तो हिन्दुओं का बड़ा हिस्सा उस ओर झुक सकता है। इसी रणनीति के तहत बीजेपी ने राज्य की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस पर मुसलिम तु्ष्टीकरण की नीति अपनाने का आरोप लगाया है और मुख्य मंत्री ममता बनर्जी को ख़ास तौर पर निशाने पर रखा है।
असम से अलग है मामला
एनआरसी का मुद्दा पश्चिम बंगाल में बेहद पेचीदा मसला है, जिसे बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व तो नहीं ही समझ रही है, राज्य नेतृत्व भी उसे समझाने में नाकाम है। यहाँ मामला असम जैसा नहीं है। असम में बाहर के लोगों के आने से असमिया संस्कृति को ख़तरा होने का ठोस आधार था और इस आधार पर उन्हें एकजुट किया जा सका।पश्चिम बंगाल में जो लोग बांग्लादेश से आए हैं, वह किसी मायने में स्थानीय लोगों से अलग नहीं है। उनकी भाषा, संस्कृति ही नहीं खाना-पीना भी बिल्कुल एक है। बांग्लादेश युद्ध के ठीक पहले 1970-71 में लाखों बंगाली भाग कर पश्चिम बंगाल आए, जिनमें ज़्यादातर लोग वापस नहीं गए, यहीं बस गए। पश्चिम बंगाल के उत्तर और दक्षिण परगना, हावड़ा और कोलकाता में ऐसे लोगों की बहुत बड़ी तादाद है।
दिलचस्प बात यह है कि बांग्लादेश से आए लोगों में से अधिकतर हिन्दू हैं। इनकी तीसरी पढ़ी बंगाल में रह रही है। इस वर्ग को शांत करने के लिए बीजेपी अभी से कहने लगी है कि किसी हिन्दू को वापस नहीं भेजा जाएगा।
मुसलमान भी बांग्लादेश से पश्चिम बंगाल आए हैं, जिनकी तादाद उत्तर बंगाल के मालदा, मुर्शिदाबाद, दक्षिण दिनाजपुर और उत्तर दिनाजपुर में ज़्यादा है। वे आर्थिक कारणों से बेहतर जिन्दगी की तलाश में बंगाल आए। उनके ऊपर एनआरसी की तलवार ज़रूर लटक रही है। पर यह भी सच है कि इनमें से भी ज़्यादातर लोग 1971 के पहले या उसके आसपास ही आए हुए हैं।
राजनीतिक समीकरण
एक सच यह भी है कि भारतीय मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार ने पश्चिम बंगाल में बांग्लादेश से आए लोगों को नई जगहों पर टिकाने, घर वगैरह बनाने में मदद की है। इस पार्टी के स्थानीय काडर ने जन्म सर्टिफिकेट, राशन कार्ड वगैरह हाथोहाथ बनवाने का काम भी किया और इस बल पर उन इलाक़ों में बेहद लोकप्रिय भी हुई। इसलिए जो मुसलमान बांग्लादेश से आए हैं, उनमे से ज़्यादातर के पास ये काग़ज़ात होंगे।'इस पार बांग्ला, उस पार बांग्ला'
पश्चिम बंगाल में एनआरसी का मामला असम से अलग ऐतिहासिक कारणों से भी है। मौजूदा बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल एक ही थे। अंग्रेज़ों ने पहली बार 1905 में उन्हें अलग किया, जिसके ख़िलाफ़ इतना ज़बरदस्त आंदोलन चला कि सरकार को अपना फ़ैसला 1911 में वापस लेना पड़ा। भारत विभाजन के समय मुसलिम बहुल होने कारण वह इलाका पाकिस्तान को मिला जो बाद में बांग्लादेश बन गया। इसे इससे भी समझा जा सकता है कि बांग्ला भाषा की माँग करने वालों पर 21 फरवरी, 1952, को ढाका विश्वविद्यालय में हुई गोलीबारी पाकिस्तान विरोधी आंदोलन की नींव बन गई थी। इसलिए बँटवारा सिर्फ़ राजनीतिक है, सांस्कृतिक नहीं।सबसे बड़ी बात बांग्ला अस्मिता को चुनौती देने की है, जिसे अमित शाह या नरेंद्र मोदी नहीं समझ सकते। एक तरह का बंगाली राष्ट्रवाद है जो काफ़ी मजबूत है, वह धर्म से ऊपर है। बंगालियों के बारे में कहा जाता है कि वे पहले बंगाली होते हैं, उसके बाद हिन्दू-मुसलमान या भारतीय-बांग्लादेशी। उनके बीच की सबसे मजबूत कड़ी भाषा होती है। इसलिए जब बांग्लादेश से आए लोगों को भगाने की बात कही जाएगी तो यह बंगालियों को अपील नहीं करेगी, इसके उलट वे अपमानित महसूस करेंगे। इसलिए एनआरसी पश्चिम बंगाल में बीजेपी को उल्टा पड़ सकता है।