ईयू के सांसदों, नोबेल विजेताओं ने की माँग- भीमा कोरेगाँव कांड के लोगों को रिहा करो
मशहूर दार्शनिक व भाषाविद नोम चोमस्की, नोबेल पुरस्कार से सम्मानित लोगों और यूरोपीय संसद के सदस्यों ने भीमा कोरेगाँव मामले में जेलों में बंद लोगों को रिहा करने की अपील की है।
उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखी चिट्ठी में गुजारिश की है कि भारतीय जेलों की स्थिति बदहाल है, स्वास्थ्य के देखभाल की उचित व्यवस्था नहीं है, लिहाज़ा इन लोगों को छोड़ दिया जाए। यह चिट्ठी भारत के मुख्य न्यायाधीश और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को भी भेजी गई है।
इस पर दस्तख़त करने वालों में दार्शनिक नोम चोमस्की, नोबेल पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार वोल सोयिंका व ओल्गा टोकार्सज़क, 'द गार्डियन' के संपादक एलन रसब्रिज़र, ब्राउन विश्वविद्यालय के आशुतोष वार्ष्णेय व कोलंबिया विश्वविद्यालय के पार्थ चटर्जी भी शामिल हैं।
जेल हैं बदहाल
पत्र में कहा गया है कि भारतीय जेलों में क्षमता से अधिक लोग हैं, पानी की कमी है, स्वास्थ्य सुविधाओं का इंतजाम नहीं है। कई लोगों को कोरोना संक्रमण हो चुका है। ऐसे में इन लोगों को जेल में रखना ख़तरे से खाली नहीं है, उनकी जान को ख़तरा है।
चार्जशीट में पहले आठ लोगों के नाम डाले गए थे। दस हज़ार पेज की चार्जशीट में मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा, प्रोफ़ेसर आनंद तेलतुम्बडे, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर हैनी बाबू, कबीर कला मंच की ज्योति जगताप, सागर गोरखे और रमेश गायचोर को नामजद किया गया है। सीपीआई माओवादी के मिलिंद तेलतुम्बडे के भी नाम हैं।
इस मामले में जनकवि वरवर राव, सुधीर धावले, रोना विल्सन, सुरेन्द्र गैडलिंग, अरुण फरेरा, वर्नन गोंसालवेस, शोमा सेन, महेश राउत, सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा को भी गिरफ़्तार किया गया था।
झारखंड में आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा के लिए काम कर रहे जेसुइट पादरी फ़ादर स्टैन स्वामी को गिरफ़्तार किया गया। उन पर माओवादियों से संबंध रखने का आरोप लगाया गया है। यह भी कहा गया है कि स्वामी की संस्था 'पर्सक्यूटिड प्रिज़नर्स सॉलिडरिटी कमिटी' माओवादियों की संस्था है।
मामला क्या है?
बता दें कि 2018 में भीम कोरेगाँव युद्ध की 200वीं वर्षगाँठ थी, इस कारण बड़ी संख्या में लोग जुटे थे। इस सम्बन्ध में शिव प्रतिष्ठान हिंदुस्तान के अध्यक्ष संभाजी भिडे और समस्त हिंदू अघाड़ी के मिलिंद एकबोटे पर आरोप लगे कि उन्होंने मराठा समाज को भड़काया, जिसकी वजह से यह हिंसा हुई।
लेकिन इस बीच हिंसा भड़काने के आरोप में पहले तो बड़ी संख्या में दलितों को गिरफ़्तार किया गया और बाद में 28 अगस्त, 2018 को सामाजिक कार्यकर्ताओं को।
क्या है भीमा कोरेगाँव
हर साल जब 1 जनवरी को दलित समुदाय के लोग भीमा कोरेगाँव में जमा होते हैं, वे वहाँ बनाए गए 'विजय स्तम्भ' के सामने अपना सम्मान प्रकट करते हैं। वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि ऐसा माना जाता है कि 1818 में भीमा कोरेगाँव युद्ध में शामिल ईस्ट इंडिया कंपनी से जुड़ी टुकड़ी में ज़्यादातर महार समुदाय के लोग थे, जिन्हें अछूत माना जाता था।
यह ‘विजय स्तम्भ’ ईस्ट इंडिया कंपनी ने उस युद्ध में शामिल होने वाले लोगों की याद में बनाया था जिसमें कंपनी के सैनिक मारे गए थे।
1818 की इस लड़ाई को कोरेगाँव की लड़ाई भी कहा जाता है। कई रिपोर्टों में कहा गया है कि पेशवा बाजीराव द्वितीय की अगुवाई में 28 हज़ार मराठा पुणे पर हमला करने की योजना बना रहे थे। लेकिन रास्ते में उनका सामना ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की क़रीब 800 सैनिकों की एक टुकड़ी से हो गई। यह टुकड़ी पुणे में ब्रिटिश सैनिकों की ताक़त बढ़ाने के लिए जा रही थी। वह जगह थी कोरेगाँव। इस बीच पेशवा ने कंपनी के सैनिक पर हमला करने के लिए अपने 2 हज़ार सैनिक भेजे।
कप्तान फ्रांसिस स्टॉन्टन की अगुवाई में ईस्ट इंडिया कंपनी की इस टुकड़ी ने क़रीब 12 घंटे तक मोर्चा संभाले रखा। बाद में जब मराठों को पता चला कि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी बड़ी टुकड़ी भेज रही है तब मराठों ने अपने सैनिक वापस बुला लिए।
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की उस टुकड़ी में भारतीय मूल के जो फ़ौजी थे उनमें ज़्यादातर महार दलित थे और वे बॉम्बे नेटिव इनफ़ैंट्री से ताल्लुक रखते थे।
31 दिसंबर 1817 से लेकर 1 जनवरी 1818 के बीच यह सब चला। ब्रिटिश सरकार के जनरल स्मिथ 3 जनवरी को जब कोरेगाँव पहुँचे तो पेशवा भी वहाँ नहीं थे।कई रिपोर्टों में कहा गया है कि इस लड़ाई में कंपनी की फ़ौज में से 275 मारे गए, घायल हुए या फिर लापता हो गए। ब्रिटिश अनुमानों के मुताबिक़, पेशवा के 500-600 सैनिक इस लड़ाई में मारे गए या घायल हुए।