ऑक्सीजन की कमी के लिए कौन ज़िम्मेदार?
'प्यास लगे तब कुआँ खोदना' एक पुराना मुहावरा है। ऑक्सीजन के मामले में सरकार यही कर रही है। अब ऑक्सीजन का उत्पादन और आपूर्ति बढ़ाने की कोशिश की जा रही है। विशेष रेल गाड़ियों और सेना के हवाई जहाज़ों से बड़े शहरों में ऑक्सीजन भेजने का इंतज़ाम किया जा रहा है। ये सब तब हो रहा है, जब न जाने कितने लोग ऑक्सीजन की कमी से मौत का शिकार हो चुके हैं।
ऑक्सीजन की कमी कितनी ख़तरनाक है, इसका अंदाज़ा उत्तर प्रदेश के कुछ आँकड़ों से लगा सकते हैं। सरकारी प्रवक्ता के मुताबिक़, लखनऊ में रोज़ 65 मैट्रिक टन ऑक्सीजन की जरुरत है जबकि शुक्रवार को 56 मैट्रिक टन ही उपलब्ध था। यानी 9 मैट्रिक टन की कमी।
एक डाक्टर के मुताबिक़, ज़्यादातर रोगियों की जीवन रक्षा के लिए एक दिन में 25-30 लीटर ऑक्सीजन की जरुरत पड़ती है। अब 9 मीट्रिक टन की कमी होने पर कितने रोगियों की जान जा सकती है इसका अनुमान आप ख़ुद ही लगा सकते हैं।
बहरहाल यह सरकारी प्रवक्ता का बयान है, लखनऊ में 12 से 24 अप्रैल के बीच आक्सीजन के लिए जिस तरह हाहाकर मचा था और जिस तरह बड़ी संख्या में मौत हुई उसे देखकर लगता है कि कमी कुछ ज़्यादा ही थी।
कोटा बाँधने की नौबत
हालत कितनी गंभीर है इसका अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि कर्नाटक और उत्तर प्रदेश की सरकार ने अस्पतालों में रोगियों को कितना ऑक्सीजन दिया जाएगा, इसके लिए कोटा बाँध दिया है।
अब मरीज़ की देख रेख करने वाले डाक्टर यह तय नहीं करेंगे की किस मरीज़ को कितना ऑक्सीजन दिया जाय, बल्कि उन्हें सरकार द्वारा जारी एक चार्ट के मुताबिक़ ऑक्सीजन देना होगा। यह सब ऑक्सीजन की बर्बादी रोकने के नाम पर किया गया है।
रोगियों की भर्ती रोकी
कई अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी के कारण कोरोना के गंभीर रोगियों की भर्ती रोकने की ख़बरें भी आ रहीं हैं। सरकार अब जा कर बड़े अस्पतालों में ऑक्सीजन प्लांट लगाने की तैयारी कर रही है। सवाल यह है कि ये सब अब क्यों हो रहा है। पूरी दुनिया को पता था कि कोरोना का दूसरा दौर भी आएगा। बल्कि ब्रिटेन और अमेरिका जैसे कुछ देशों में दूसरे दौर की शुरुआत फ़रवरी - मार्च में हो चुकी थी। भारत में भी दूसरा दौर आना ही था।
डाक्टर और गणित के आधार पर वैज्ञानिक गणना करने वाले विशेषज्ञ पहले ही भविष्यवाणी कर चुके थे कि दूसरा दौर पहले से ज़्यादा घातक होगा। फिर भी केंद्र और राज्यों की सरकारें सावधान नहीं हुई। ऑक्सीजन का पर्याप्त इंतज़ाम नहीं किया गया।
यूरोप और अमेरिका में पहले दौर में जो कमियाँ महसूस की गयीं थीं उसे दूर कर लिया गया है। अस्पताल और सरकार ज़्यादा तैयार हैं इसलिए इस बार वहाँ ज़्यादा अफ़रा तफ़री नहीं है। लेकिन भारत में स्थिति उल्टी है। इस बार पहले दौर से ज़्यादा भयानक स्थिति दिखाई दे रही है।
सरकारी तंत्र क्यों फ़ेल हुआ
फ़रवरी मार्च में जब ब्रिटेन और यूरोप के कई देशों में कोरोना वायरस का नया स्ट्रेन फैलने लगा तब ये बात भी साफ़ हो गयी कि नया स्ट्रेन 70 प्रतिशत ज़्यादा तेज़ी से फैल रहा है। इसके आधार पर यूरोप और विकसित देशों ने तैयारी शुरू कर दी। भारत जैसे देश में ज़्यादा तेज़ी से वायरस के फैलने का सीधा मतलब होता है कि अस्पतालों में ज़्यादा भर्ती और ज़्यादा ऑक्सीजन की जरुरत।
केंद्र सरकार ने कोविड मॉनिटरिंग सेल बना रखा है। इंडियन काउंसिल आफ मेडिकल रीसर्च (आईसीएमआर) और केंद्र के कई तंत्र पहले से मौजूद हैं। इन सब के बावजूद सरकार को पता नहीं चला कि कोरोना का एक और बड़ा प्रकोप शुरू होने वाला है। अस्पताल में पर्याप्त बेड, ऑक्सीजन और ज़रूरी दवाओं का इंतज़ाम नहीं हो सका।
2020 के मार्च- अप्रैल में जब कोरोना एक महामारी के रूप पहली बार फैली तो सरकार इसे अचानक आयी हुई बीमारी बताकर साफ़ बच गयी। हालाँकि तब भी भारत में इसका प्रवेश अचानक नहीं हुआ था। चीन में 2019 के नवंबर - दिसंबर में इस बीमारी की शुरुआत हो गयी थी।
मौत का तांडव
2020 का फ़रवरी मार्च आते- आते यूरोप और अमेरिका सहित कई देशों में कोरोना के चलते मौत का तांडव शुरू हो चुका था। केरल और महाराष्ट्र के रास्ते भारत में भी इसका प्रवेश हो चुका था।
सरकार तब सावधान हुई जब इसने विस्फोटक रूप लेना शुरू कर दिया। तब इसे एक नयी बीमारी बता कर सरकार अपने ज़िम्मेदारी से साफ़ बच गयी। एक साल बाद भी वही हाल होना ये बताता है कि सरकार पूरी तरह से नकारा है और असंवेदनशील भी हो चुकी है।
आसान है ऑक्सीजन का उत्पादन
ऑक्सीजन कोई ऐसी गैस नहीं है जिसका उत्पादन मुश्किल है। देश के कुछ बड़े अस्पतालों में इसके प्लांट लगे हुए हैं। ये प्लांट हवा से ऑक्सीजन को अलग कर देते हैं। पाइप के ज़रिए इसे सीधे रोगी के बेड तक पहुँचा दिया जाता है और जरुरत के हिसाब से रोगी को दिया जाता है।
सरकार अब जर्मनी से 23 प्लांट हवाई जहाज़ से मंगाने जा रही है जिसे अस्पतालों में लगाया जाएगा। इस काम में 10-15 दिन लग ही जाएँगे तबतक कोरोना की दूसरी लहर उतार पर होगी और शायद तुरंत इसकी जरुरत भी नहीं पड़े। ऑक्सीजन कांसंट्रेटर नाम की छोटी मशीन भी आती है जिसे बेड के साथ लगाया जा सकता है। सरकार सावधान होती तो बड़ी संख्या में कांसंट्रेटर बनाए जा सकते थे।
स्टील कारख़ानों में बनता है ऑक्सीजन
स्टील बनाने वाले कारख़ानों में बड़े पैमाने पर ऑक्सीजन की ज़रूरत होती है, इसलिए उनमें ऑक्सीजन के विशाल प्लांट लगे होते हैं। अस्पतालों को इन्हीं प्लांटों से ऑक्सीजन की आपूर्ति होती है। इन प्लांटों से ऑक्सीजन की आपूर्ति ज़्यादा जटिल है। इनमें बनने वाले ऑक्सिजन को पहले ठंढा करके तरल या लिक्विड रूप में लाया जाता है। फिर इन्हें विशेष टैंकरों में भर कर जरुरत की जगह पर पहुँचाया जाता है। ये टैंकर ऐसे होते हैं जो गैस को तरल रूप में बनाए रखते है।
ज़्यादातर स्टील प्लांट झारखंड, बंगाल, ओडिशा, तमिलनाडु और आँध्र प्रदेश में है। दिल्ली और मध्य भारत के शहरों में ऑक्सीजन की आपूर्ति इन्हीं जगहों से होती है। ज़ाहिर है कि इतनी दूर से ऑक्सीजन आने में समय लगेगा। इसके अलावे बढ़ी हुई माँग के हिसाब से टैंकर भी उपलब्ध नहीं हैं। इस ऑक्सीजन को अस्पतालों में उपयोग के लिए लोहे के सिलिंडरों में भरना पड़ता है। सिलिंडर की भी कमी है।
आम तौर पर पाँच हज़ार तक में मिलने वाले सिलिंडर 30 से 70 हज़ार में बिक रहे हैं। इसलिए सरकार जो कह रही है कि कुछ दिनों में पर्याप्त ऑक्सीजन उपलब्ध हो जाएगा, एक छलावा है।
दर असल जिन शहरों में अभी कोरोना का संक्रमण विस्फोटक स्थिति में है, उन शहरों में एक से दो हफ़्तों के बीच संक्रमण का ग्राफ़ उतार पर होगा।
कोरोना का चक्र ऐसा ही है। एक बार वह तेज़ी से बढ़ता है, फिर लॉक डाउन जैसे उपायों और लोगों की अपनी सावधानी से संक्रमण का चक्र टूट जाता है, तब ग्राफ़ नीचे आने लगता है। ज़ाहिर है कि अगले कुछ दिनों में ऑक्सीजन की माँग कम हो जाएगी, तब सरकार अपनी पीठ ठोंक सकती है कि ऑक्सीजन का पर्याप्त इंतज़ाम हो चुका है। लेकिन सरकार और कोरोना से लड़ाई के इंतज़ाम में जुटे अमले का असली इम्तिहान तब होगा जब उन राज्यों और शहरों में कोरोना का विस्फोट होगा जहाँ अभी स्थिति नियंत्रण में है।