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लालू ने आडवाणी का 'रथ' रोका था; नीतीश रोक पाएँगे मोदी का 'रथ'?

लालू ने आडवाणी का 'रथ' रोका था; नीतीश रोक पाएँगे मोदी का 'रथ'?

लालू यादव ने बत्तीस साल पहले लालकृष्ण आडवाणी के ‘राम रथ’ को बिहार के समस्तीपुर में रोकने का साहस दिखाया था। क्या नीतीश कुमार विपक्षी एकता से 2024 में मोदी के ‘विजय रथ’ को रोकने की हिम्मत दिखा सकते हैं?

नई दिल्ली में पहले (बुधवार को) नीतीश-तेजस्वी की फिर (गुरुवार को) शरद पवार की राहुल गांधी और माल्लिकार्जुन खड़गे से हुई महत्वपूर्ण मुलाक़ातों ने कोलकाता और लखनऊ से निकलने वाली विपक्षी आवाज़ों के सुर भी बदल दिए हैं! अभिषेक बनर्जी द्वारा केंद्र पर किया गया ताज़ा हमला और गैंगस्टर अतीक अहमद के बेटे के एनकाउंटर को लेकर अखिलेश द्वारा योगी सरकार के ख़िलाफ़ किया गया हमला इसका उदाहरण है। हाल के अपने विवादास्पद इंटरव्यू और बयानों से उठे तूफ़ान के तत्काल बाद शरद पवार का राहुल गांधी से मिलने दिल्ली पहुँचना भी एक बहुत बड़ी घटना है। इसे राहुल गांधी की देश के लिए ज़रूरत के प्रति पवार के अप्रत्याशित सम्मान का सार्वजनिक प्रदर्शन भी माना जा सकता है।

प्रधानमंत्री पिछले साल की बारह जुलाई को पटना में थे। वे वहाँ बिहार विधानसभा के शताब्दी समारोह में भाग लेने पहुँचे थे। इस अवसर पर मोदी की मुलाक़ात तेजस्वी यादव से होनी ही थी। तेजस्वी के साथ संक्षिप्त बातचीत में पीएम ने राजद नेता को सलाह दे डाली कि उन्हें अपना वज़न कुछ कम करना चाहिए। तेजस्वी ने मोदी के चैलेंज को मंज़ूर कर लिया। तेजस्वी ने न सिर्फ़ खुद का वज़न कम करके उसे नीतीश कुमार के साथ बाँट लिया, बिहार का राजनीतिक होमोग्लोबीन दुरुस्त करने के बाद अब दोनों नेता मुल्क की सेहत ठीक करने के काम में जुट गए। 26 फ़रवरी को हुई पूर्णिया (बिहार) की रैली में उन्होंने संकेत दे ही दिए थे।

तेजस्वी के साथ मिलकर पिछले साल किए गए राजनीतिक विस्फोट के बाद जब पत्रकारों ने नीतीश से सवाल किया था कि क्या वे 2024 में पीएम पद के उम्मीदवार हैं? बिहार के मुख्यमंत्री का शब्दों को तौलकर दिया गया जवाब था: ‘’मैं किसी चीज़ की उम्मीदवारी की दावेदारी नहीं करता। केंद्र सरकार को 2024 के चुनाव में अपनी सम्भावना को लेकर चिंता करनी चाहिए।’’ पूर्णिया रैली में भी नीतीश ने इसी बात को दोहराया था।

कर्नाटक (10 मई) के बाद मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ सहित जिन राज्यों में इसी साल विधानसभा चुनाव होने हैं वे मोदी की 2024 में वापसी के लिए निर्णायक सिद्ध होने वाले हैं। 2024 के लिहाज़ से वर्तमान में विपक्षी दलों की सरकारों वाले सिर्फ़ ग्यारह राज्यों (बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना, पंजाब, छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखंड, हिमाचल, दिल्ली) में ही लोकसभा की सीटों की अगर गिनती कर लें तो आँकड़ा 232 का होता है। विपक्षी ओडिशा और आंध्र प्रदेश को भी जोड़ लें तो कुल सीटें 278 हो जातीं हैं। 

उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, असम, उत्तराखण्ड, हरियाणा और गुजरात सहित बाक़ी राज्य अलग हैं। अन्दाज़ लगाया जा सकता है कि सीटों की ऐसी स्थिति में बीजेपी अपने 303 के वर्तमान आँकड़े को 2024 में कैसे क़ायम रख पाएगी? दावा तो 300 से ज़्यादा सीटें प्राप्त होने का किया जा रहा है!

जो लोग नीतीश कुमार की राजनीति को अंदर से जानते हैं, कह सकते हैं कि ‘सुशासन बाबू’ की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ और क्षमताएं नरेंद्र मोदी से कम नहीं रही हैं।

इसीलिए जब बिहार के पूर्व उप-मुख्यमंत्री सुशील मोदी ने आरोप लगाया था कि नीतीश के भाजपा-जद(यू) गठबंधन से विद्रोह के पीछे उनकी इस माँग को केंद्र द्वारा नहीं माना जाना था कि उन्हें उपराष्ट्रपति पद दिया जाए तो किसी ने यक़ीन नहीं किया। 

दो मत नहीं कि भ्रष्टाचार के मामलों में ममता बनर्जी के अत्यंत क़रीबियों पर हुई केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई, गिरफ़्तारियों और राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति के चुनावों में तृणमूल कांग्रेस द्वारा निभाई गई संदेहास्पद भूमिका ने 2024 के चुनावों में मोदी के ख़िलाफ़ उनके द्वारा संयुक्त विपक्ष का साथ देने के समीकरण बदल दिए थे। ममता ने, भाजपा को दिखाने के लिए ही सही, अपने आपको विपक्षी एकता के समूचे परिदृश्य से बाहर कर लिया था।

नीतीश कुमार विपक्ष की एकता के इस अवसर को भी अगर चूक जाते तो कहा नहीं जा सकता था कि 2024 के परिणामों के बाद उनका, जद(यू) और बाक़ी विपक्षी दलों का भविष्य क्या बनता!  नीतीश कुमार ने अपने क़दम से इतना तो सुनिश्चित कर ही दिया है कि जद(यू) और राजद सहित तमाम छोटे-बड़े क्षेत्रीय दल भाजपा के ‘बुलडोज़र’ के नीचे आने से बच जाएँगे।

लालू यादव ने बत्तीस साल पहले (सितम्बर 1990 में) लालकृष्ण आडवाणी के ‘राम रथ’ को बिहार के समस्तीपुर में रोकने का साहस दिखाया था। देश की राजनीति उसके बाद बदल गई थी। कांग्रेस की अगुवाई और तमाम विपक्षी दलों के समर्थन से नीतीश कुमार 2024 में मोदी के ‘विजय रथ’ को रोकने की हिम्मत दिखा सकते हैं। बहुत मुमकिन है 95-वर्षीय आडवाणी भी उम्र के आख़िरी पड़ाव पर देश के साथ ही किसी समस्तीपुर क्षण की प्रतीक्षा कर रहे हों!

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