क्या बिहार में टाइगर ज़िंदा है?
बिहार की राजधानी पटना के तारा मंडल भवन के बाहर एक विशाल पोस्टर लग गया है। जिस पर लिखा है “टाइगर ज़िंदा है “ पोस्टर पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की एक विशाल तस्वीर है। यह पोस्टर एनडीए और नीतीश की पार्टी जेडीयू की लोकसभा चुनावों में जीत के जश्न का एक हिस्सा है। “टाइगर ज़िंदा है” सलमान ख़ान की 2017 में बनी एक ब्लॉक बस्टर फ़िल्म का नाम है जो एक अन्य फ़िल्म “एक था टाइगर” का सिक्वल था। सीएम के समर्थक दावा कर रहे हैं कि इस बार नीतीश को केंद्र में वही स्थान मिल गया है जो स्थिति लंबे समय से बिहार में थी। यानी जिसके साथ नीतीश, उस गठबंधन की सरकार।
वैसे तो नीतीश की पार्टी को लोकसभा की सिर्फ़ 12 सीटें मिली हैं, लेकिन केंद्र में बीजेपी को बहुमत नहीं मिलने के कारण नीतीश का वजन बढ़ा हुआ माना जा रहा है। ऐसा इसलिए भी कहा जा रहा है क्योंकि ‘इंडिया’ गठबंधन को भी नीतीश से परहेज़ नहीं है। एनडीए गठबंधन में शामिल होने से पहले नीतीश को ‘इंडिया’ में प्रधानमंत्री का दावेदार माना जा रहा था। नीतीश ने अब ख़ेमा नहीं बदलने की घोषणा कर दी है, लेकिन ऐसी घोषणाएं वो कई बार कर चुके हैं।
बिहार में चुनौती
नीतीश के सामने सबसे बड़ी चुनौती अगले साल विधानसभा चुनावों की होगी। 2020 के विधानसभा चुनाव में नीतीश आरजेडी के गठबंधन में थे। तब उनकी पार्टी महज़ 43 सीटों पर सिमट गयी थी, जबकि 2015 में उन्हें 71 सीटें मिली थीं। फिर भी वो पहले 75 सीटों वाले आरजेडी गठबंधन में और फिर 74 सीटों वाले बीजेपी गठबंधन में मुख्यमंत्री बने रहे। लोकसभा चुनावों में एनडीए की 29 सीटों पर जीत का एक बड़ा कारण चिराग़ पासवान की एलजेपी (आर) को माना जा रहा है। राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि चिराग़ पासवान और पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के कारण दलित वोट बीजेपी गठबंधन के साथ बने रहे।
इसके विपरीत उत्तर प्रदेश में मायावती की पार्टी बीएसपी से मोहभंग के कारण दलितों का एक बड़ा वर्ग इंडिया के साथ चला गया जिससे बीजेपी गठबंधन को ज़्यादा नुक़सान हुआ। चिराग़ पासवान की महत्वाकांक्षा छिपी नहीं है। 2020 के चुनावों से पहले वो ख़ुद को बिहार के मुख्यमंत्री पद का दावेदार मान रहे थे। लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी पांच सीटों पर लड़ी और सभी जीत गयी। इससे उनका मनोबल काफ़ी बढ़ा हुआ है। नीतीश के पुराने विरोधी उपेन्द्र कुशवाहा एनडीए में रहने के वावजूद लोकसभा चुनाव हार गये हैं। उन्हें अगर एडजस्ट नहीं किया जाता है तो वो भी एक चुनौती बन सकते हैं।
वोट का आंकड़ा
लोक सभा चुनावों में एनडीए को अच्छी सफलता मिली। उसके वावजूद वोट का आंकड़ा आरजेडी की तरफ़ झुका हुआ है। आरजेडी को लोकसभा चुनाव में 40 में से सिर्फ़ 4 और उसके गठबंधन को 10 सीटें मिलीं लेकिन आरजेडी का वोट प्रतिशत 2019 में 15.7 प्रतिशत से बढ़ कर 2024 में 22.14 प्रतिशत हो गयी। कुल 6 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी। दूसरी तरफ़ बीजेपी का वोट प्रतिशत 3.5, जेडीयू का 3.7 और एलजेपी का 1.5 प्रतिशत घट गया। आरजेडी को इसका फ़ायदा 2025 के विधानसभा चुनावों में मिल सकता है। आरजेडी की सबसे बड़ी समस्या ये है कि उसके साथ दलित वर्ग का कोई बड़ा नेता नहीं है। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने इसकी भरपाई ज़्यादा संख्या में दलितों और अति पिछड़ों को टिकट देकर की। तेजस्वी यादव को भी अपनी रणनीति बदलनी पड़ सकती है।
नीतीश की महत्वाकांक्षा
नीतीश काफ़ी समय से बिहार की राजनीति से निकलने के लिए तैयार बताये जाते हैं। प्रधानमंत्री, उप राष्ट्रपति या राष्ट्रपति बनने की उनकी महत्वाकांक्षा छिपी नहीं है। लोकसभा चुनावों से पहले नीतीश ने ‘इंडिया’ गठबंधन को एक करने में काफ़ी मेहनत की। लेकिन माना जाता है कि प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित नहीं किए जाने के कारण वो बीजेपी गठबंधन में शामिल हो गये। इसी तरह आरोप लगा था कि उप राष्ट्रपति पद नहीं दिए जाने के कारण वो एनडीए छोड़ कर आरजेडी के साथ इंडिया गठबंधन में चले गये थे। नीतीश की महत्वाकांक्षा इस बार भी पूरी नहीं हुई तो एनडीए सरकार के सामने एक बार फिर चुनौती आ सकती है।