राजनीति के लिए विज्ञान के इस्तेमाल से आई दूसरी लहर की तबाही!
क्या कोरोना की दूसरी लहर की तबाही से बचा जा सकता था? क्या लाखों लोगों की ज़िंदगी बचाई जा सकती थी? क्या कोरोना नियंत्रण के लिए ज़िम्मेदार एजेंसी आईसीएमआर के राजनीतिक इस्तेमाल की वजह से वह तबाही आई थी? ये सवाल इसलिए कि आईसीएमआर के लिए शोध करने वालों ने इस पर बड़ा खुलासा किया है।
‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ की एक रिपोर्ट के अनुसार शोधकर्ताओं का कहना है कि देश की शीर्ष विज्ञान एजेंसी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नैरेटिव में ठीक बैठने वाली अपनी रिपोर्ट तैयार की और उसी तरह के निष्कर्ष निकाले। जिस एक शोधकर्ता ने आईसीएमआर को लेकर ये दावे किए हैं उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया है कि 'विज्ञान का इस्तेमाल राजनीतिक हथियार के रूप में किया गया'।
दरअसल, आरोप है कि सरकार द्वारा नियुक्त वैज्ञानिकों ने सितंबर 2020 में यानी दूसरी लहर आने से आठ महीने पहले एक नए प्रकोप की आशंका को कमतर पेश किया। इसके बदले में एक ऐसी रिपोर्ट जारी की गई जिसमें बताया गया कि शुरुआती लॉकडाउन के प्रयासों के कारण संक्रमण फैलना रुक गया था। इस रिपोर्ट को देश के मीडिया ने जबरदस्त तरीक़े से फैलाया था। इससे लोगों में यह संदेश गया कि कोरोना संकट अब ख़त्म हो रहा है, जबकि सच्चाई इसके उलट थी। अख़बार ने लिखा है कि यह जो रिपोर्ट थी वह प्रधानमंत्री के दो बड़े लक्ष्यों से पूरी मेल खाती थी। एक तो पहली लहर की वजह से अर्थव्यवस्था बेपटरी हो चुकी थी उसको संभालना था और दूसरे कुछ महीने बाद कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले थे और इसके लिए चुनाव प्रचार करना था।
द न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, आईसीएमआर के लिए काम करने वाले उन वैज्ञानिकों के साथ ही शोध में शामिल डॉ. अनूप अग्रवाल ने उस रिपोर्ट को लेकर आपत्ति जताई थी। वह इसलिए चिंतित थे कि ये निष्कर्ष भारत को एक झूठी सुरक्षा की भावना में डाल देते। रिपोर्ट में कहा गया है कि डॉ. अग्रवाल ने अक्टूबर में एजेंसी के उच्च अधिकारी के सामने अपनी चिंताओं को रखा, लेकिन जवाब में उन्हें फटकार मिली।
इस बीच जब देश में कोरोना की दूसरी लहर आई तो कहा गया कि ऐसी तबाही शायद ही देश के इतिहास में कभी आई हो। भारत में जब दूसरी लहर अपने शिखर पर थी तो हर रोज़ 4 लाख से भी ज़्यादा संक्रमण के मामले रिकॉर्ड किए जा रहे थे। देश में 6 मई को सबसे ज़्यादा 4 लाख 14 हज़ार केस आए थे। यह वह समय था जब देश में अस्तपाल बेड, दवाइयाँ और ऑक्सीजन जैसी सुविधाएँ भी कम पड़ गई थीं। ऑक्सीजन समय पर नहीं मिलने से बड़ी संख्या में लोगों की मौतें हुईं। अस्पतालों में तो लाइनें लगी ही थीं, श्मशानों में भी ऐसे ही हालात थे। इस बीच गंगा नदी में तैरते सैकड़ों शव मिलने की ख़बरें आईं और रेत में दफनाए गए शवों की तसवीरें भी आईं। भारत की इस तबाही को पूरी दुनिया ने महसूस किया।
इन हालात पर 'द न्यूयॉर्क टाइम्स' ने एक लंबी-चौड़ी रिपोर्ट तैयार की है। अख़बार द्वारा इंटरव्यू लिए गए वर्तमान और पूर्व सरकारी शोधकर्ताओं और दस्तावेज़ों के अनुसार वरिष्ठ अधिकारियों ने प्रधानमंत्री मोदी के राजनीतिक एजेंडे को प्राथमिकता देने के लिए विशिष्ट संस्थानों के वैज्ञानिकों को वायरस के ख़तरे को कम दर्शाने के लिए मजबूर किया।
अख़बार से अनूप अग्रवाल ने कहा, 'लोगों की मदद करने के बजाय विज्ञान को एक राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है।'
द न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा है कि शोधकर्ताओं और दस्तावेज़ों के अनुसार भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद या आईसीएमआर के वरिष्ठ अधिकारियों ने ख़तरा दिखाने वाले आँकड़े को छुपाया। शोधकर्ताओं ने कहा कि उन्होंने एक और अध्ययन को वापस लेने के लिए वैज्ञानिकों पर दबाव डाला जिसमें सरकार के प्रयासों पर सवाल उठाए गए थे। उन्होंने यह भी कहा कि एजेंसी को उस एक तीसरे अध्ययन से अलग कर लिया गया जिसमें दूसरी लहर का अनुमान लगाया गया था।
एजेंसी के वैज्ञानिकों ने इंटरव्यू में कहा कि मध्य स्तर के शोधकर्ताओं को चिंता थी कि अगर उन्होंने वरिष्ठों से सवाल किया तो उन्हें प्रमोशन और अन्य अवसरों से वंचित कर दिया जाएगा।
कोरोना नियंत्रण के लिए सरकार पर लापरवाही के आरोप लगते रहे हैं। ऐसा इसलिए कि प्रधानमंत्री मोदी ने जनवरी में दावा किया था कि भारत ने 'मानवता को एक बड़ी आपदा से बचाया है।' उस समय के स्वास्थ्य मंत्री हर्ष वर्धन ने मार्च में कहा था कि 'देश कोरोना के खात्मे की ओर था'। इस बीच प्रधानमंत्री ने कई राज्यों में चुनावी रैलियाँ कीं। प्रधानमंत्री को इसलिए जबरदस्त आलोचना झेलनी पड़ी थी जब उन्होंने चुनावी रैली में कहा था कि उनकी रैली में इतनी ज़्यादा भीड़ पहले कभी नहीं हुई थी और वह अप्रत्याशित थी। तब प्रधानमंत्री की इसलिए आलोचना की गई थी कि कोरोना संक्रमण के दौर में भी वह ज़्यादा भीड़ बुला रहे हैं। उनकी इसलिए भी आलोचना की गई थी सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों की पालना नहीं होने के आरोप लगे थे। सरकार की ऐसी प्रतिक्रियाओं पर आलोचनाओं के बीच डॉ. हर्ष वर्धन को जुलाई में पद छोड़ना पड़ा था।
इस मामले से जुड़े वैज्ञानिकों के अनुसार, राजनीति ने पिछले साल की शुरुआत में आईसीएमआर के रवैये को प्रभावित करना शुरू कर दिया था। मार्च 2020 में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा लगाए गए देशभर में लॉकडाउन के बीच सरकार ने तबलीगी जमात को संक्रमण फैलाने का दोषी ठहराया था। कुछ दक्षिणपंथियों ने मुसलमानों पर हमले किए। तब तबलीगी जमात को इसके लिए दोषी ठहराने का आईसीएमआर पर भी आरोप लगा। तब जिस तरह से आँकड़े जारी किए जाते थे उस पर सवाल उठाए गए। उस समय के आईसीएमआर के मुख्य वैज्ञानिक रमन गंगाखेदकर ने एक इंटरव्यू में जमात को 'अप्रत्याशित आश्चर्य' बताया था। लेकिन न्यूयॉर्क टाइम्स के साथ इंटरव्यू में, डॉ. गंगाखेदकर ने कहा कि उन्होंने मुसलमानों को लक्षित करने वाले सरकार के बयानों पर 'पीड़ा' व्यक्त की थी। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि एजेंसी के महानिदेशक बलराम भार्गव ने उन्हें कहा था कि इस मामले से उन्हें चिंतित नहीं होना चाहिए।
जुलाई 2020 में डॉ. भार्गव ने एजेंसी के वैज्ञानिकों को दो निर्देश जारी किए थे, जिन्हें उनके आंतरिक आलोचकों ने राजनीति से प्रेरित माना। पहले निर्देश में उन्होंने कई संस्थानों के वैज्ञानिकों को केवल छह सप्ताह में भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा विकसित एक कोरोना वैक्सीन को मंजूरी देने में मदद करने का आह्वान किया था। बाद में डॉ. भार्गव ने कहा था कि एजेंसी का लक्ष्य भारत के स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त तक वैक्सीन को मंजूरी देना है। 15 अगस्त को प्रधानमंत्री मोदी लाल क़िले के प्राचीर से देश को संबोधित करते हैं। तब सवाल उठाए गए कि वैक्सीन को इतनी जल्दी मंजूरी दिलाना क़रीब-क़रीब नामुमकीन है तो क्या यह फ़ैसला राजनीतिक है? बता दें कि इसके क़रीब 5 महीने बाद भारत में वैक्सीन को मंजूरी जनवरी में दी जा सकी।
अध्ययन से जुड़े वैज्ञानिकों के अनुसार पिछले साल जुलाई के अंत में जारी किए गए डॉ. भार्गव के दूसरे निर्देश ने वैज्ञानिकों को उन आँकड़ों को वापस लेने के लिए मजबूर किया जो बताते थे कि वायरस 10 शहरों में फैल रहा था। वह आँकड़ा एजेंसी के सीरोलॉजिकल अध्ययनों में आया था। उन आँकड़ों में दिखा था कि रोकथाम के प्रयासों के बावजूद दिल्ली और मुंबई सहित कुछ इलाक़ों में संक्रमण दर ऊँची थी। द न्यूयॉर्क टाइम्स द्वारा समीक्षा किए गए 25 जुलाई के एक ईमेल में डॉ. भार्गव ने वैज्ञानिकों से कहा कि आँकड़ा प्रकाशित करने के लिए “मैंने स्वीकृति नहीं दी है”।
एजेंसी के चिकित्सक रहे डॉ. अग्रवाल ने कहा कि उन्होंने अक्टूबर में अपनी चिंताओं को डॉ. भार्गव के सामने रखा, जिन्होंने उन्हें कहा कि यह 'उनके किसी काम की बात नहीं है।' उन्होंने कहा कि डॉ. भार्गव ने फिर एक अन्य वैज्ञानिक को बुलाया, जिन्होंने डॉ. अग्रवाल के साथ अध्ययन के बारे में चिंता व्यक्त की थी। भार्गव ने उन दोनों को फटकार लगाई। फिर डॉ. अग्रवाल ने अक्टूबर में इस्तीफा दे दिया और बाद में वह अमेरिका चले गए। अब बाल्टीमोर में एक चिकित्सक के रूप में काम कर रहे डॉ. अग्रवाल ने कहा कि एजेंसी के साथ उनके अनुभव ने उन्हें भारत छोड़ने के लिए मजबूर किया था।
भारत के बड़े वायरोलॉजिस्टों में से एक और पूर्व सरकारी सलाहकार शाहिद जमील ने कहा, ‘विज्ञान ऐसे वातावरण में पनपता है जहाँ आप खुले तौर पर सबूतों पर सवाल उठा सकते हैं और निष्पक्ष रूप से चर्चा कर सकते हैं।’ उन्होंने कहा, ‘दुख की बात है कि कई स्तरों पर यह नहीं हो रहा है।’
रिपोर्ट के अनुसार, आईसीएमआर ने विस्तृत सवालों का जवाब देने से इनकार कर दिया। उन्होंने एक बयान में कहा कि वह एक ‘प्रमुख अनुसंधान संगठन’ है जिसने भारत की टेस्टिंग क्षमता को बढ़ाने में मदद की थी। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय ने टिप्पणी के अनुरोधों का जवाब नहीं दिया।