क्या सिर्फ़ साल बदलने से गड्ढे से बाहर आ जाएगी अर्थव्यवस्था?
दोनों ने किया इक़रार मगर मुझे याद रहा तू भूल गई...
अब आप इसे जनता की तरफ़ से सरकार के लिए गा लीजिए या शेयर बाज़ार की तरफ़ से इकॉनमी के लिए। ख़ास फर्क नहीं पड़ेगा।
2019 की कहानी कुछ ऐसी ही कहानी रही। लोगों ने बड़े अरमानों से मोदी सरकार को दोबारा कुर्सी तक पहुँचाया। उन्हें भी और जिन्होंने इस सरकार को वोट नहीं दिया उन्हें भी उम्मीद यही थी कि अब इकॉनमी रफ़्तार पकड़ेगी क्योंकि नई सरकार तमाम वो काम कर डालेगी जो पिछले दौर में नहीं हो पाए। तमाम उद्योग संगठनों, दबाव समूहों, सांस्कृतिक राजनीतिक संगठनों और तरह-तरह के विद्वानों ने सरकार को अपनी तरफ़ से श्योर शॉट तरक्की के फ़ॉर्मूले भी सौंप दिए थे। और सबको उम्मीद थी कि बजट आएगा और कमाल शुरू हो जाएगा।
बजट आया लेकिन वैसा नहीं आया जैसी उम्मीद थी, तो जो अरमान लगाए बैठे थे उनके दिल टूट गए। शेयर बाजार ने तो तुरंत ही दिल के टुकड़े दिखा दिए, भारी गिरावट के साथ। बाक़ी लोग भी धीरे-धीरे कुनमुनाने लगे, शिकायतें करने लगे, गुहार लगाने लगे। मगर सरकार मानने के मूड में नहीं थी। ऊपर से विपक्षी पार्टियाँ लगातार कह रही थीं कि इकॉनमी गड्ढे में जा रही है, सरकार को कुछ समझ में नहीं आ रहा है। शायद यह भी एक वजह थी कि सरकार के भीतर बैठे लोग यह मानने को तैयार नहीं थे कि हालात ख़राब हैं। उलटे हर उस आदमी को झूठा या देशद्रोही बताने की होड़ चल रही थी जो ऐसा कोई सवाल उठाता या आर्थिक बदहाली के आँकड़े सामने लाता।
लेकिन ऐसा कितने दिन चल सकता था। आख़िरकार सच सामने आना ही था और वह आया। एक के बाद एक आँकड़ों की बरसात होने लगी। सरकार ने भी पहले दबे-छिपे और फिर साफ़-साफ़ मानना शुरू किया कि कुछ तो गड़बड़ है। हालाँकि उनकी वकालत करने वाले आज भी यह साबित करने में जुटे हैं कि दरअसल अच्छे दिन ज़्यादा दूर नहीं हैं। और उनका ज़ोर सबसे ज़्यादा आर्थिक शब्दावली पर है। किताबों से परिभाषाएँ निकाल-निकालकर दिखाई जा रही हैं कि कैसे हालात उतने ख़राब नहीं हैं कि इसे मंदी कहा जा सके। पिछले साल इकॉनमी की चर्चा में एक नया शब्द जुड़ गया। यह था आर्थिक सुस्ती। अब सुस्ती और मंदी का फ़र्क तो आप शब्दकोष में देखें, पारिभाषिक शब्दावली में तलाशें या किसी राजभाषा अधिकारी से पूछें। लेकिन कोई न मिले तो उन विशेषज्ञों की मदद लें जो राजनीति और अर्थनीति पर समान अधिकार रखते हैं और किसी भी हद तक जाकर सरकार की वकालत के लिए तैयार रहते हैं। इनमें टेलिविज़न पर बहस की मेजबानी करनेवाले अनेक एंकर भी शामिल हैं।
खैर, बीत गई सो बात गई। अब तो ट्वेंटी-ट्वेंटी यानी सन 2020 शुरू हो चुका है। एक नया दशक। तो अब वक़्त है हिसाब लगाने का कि आनेवाले साल में क्या होगा, क्या हो सकता है।
एक बात तो साफ़ है। सरकार को यह अच्छी तरह से मालूम है कि अब जो करना है उसे ही करना है। शुरुआती ना-नुकुर के बाद जब से वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने यह मान लिया है कि हालत ठीक नहीं है, उसके बाद से उन्होंने सलाह सुननी भी शुरू की है और माननी भी। कॉर्पोरेट टैक्स में कटौती का एलान इसी का उदाहरण था। उसके बाद से भी दिख रहा है कि सरकार को जहाँ से जो सलाह मिल रही है उसे मानने में अब देर नहीं की जाती। सरकारी कंपनियों की बिक्री से लेकर इन्फ्रास्ट्रक्चर पर ख़र्च बढ़ाने तक के एलान इसी सिलसिले की कड़ियाँ हैं।
साल के आख़िरी दिन एक सौ दो लाख करोड़ रुपए के ख़र्च की योजना का एलान करके वित्त मंत्री ने फिर एक उम्मीद जगाने की कोशिश की है। इसमें सड़क, बंदरगाह, रेलवे, ग्रामीण विकास और तमाम ऐसी चीजों पर ख़र्च करने की तैयारी है जिनसे इकॉनमी रफ़्तार पकड़ सकती है। कहा गया है कि इससे एक नेशनल इन्फ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन यानी इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए लगातार पैसे की सप्लाई का इंतज़ाम किया जाएगा। 2025 तक पाँच ट्रिलियन डॉलर के सपने को पूरा करने की तरफ़ यह एक क़दम है और साथ ही यह एलान भी हुआ कि 2020 से हर साल सालाना इन्वेस्टमेंट समिट भी की जाएगी।
इन्वेस्टमेंट समिट का क्या फ़ायदा?
नरेंद्र मोदी के दौर में गुजरात सरकार ने वाइब्रेंट गुजरात नाम के ऐसे ही आयोजनों से धूम मचा रखी थी। देश के दूसरे तमाम राज्य भी ऐसी ही समिट करके इन्वेस्टमेंट खींचने के बड़े-बड़े एलान करने में लगे हुए हैं। अब यही काम दिल्ली में होगा, पूरे देश के लिए। ऐसे आयोजनों में बड़े-बड़े एलान और हेडलाइनें तो बनती ही हैं, फ़ायदा कितना होता है इसपर विद्वानों में भारी मतभेद है। दोनों ही पक्ष अपने-अपने समर्थन में आँकड़ों का ढेर लगाकर दिखा सकते हैं।
लेकिन फ़िलहाल निवेश को किनारे रख दें तब भी सरकार के हाथ में काफ़ी मुश्किल काम है और जो कुछ वह कर रही है उसका असर पड़ने में काफ़ी वक़्त लगनेवाला है। यह बात गाहे-बगाहे याद दिलाई जाती है कि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने जो कामकाज किया, उसी का फ़ायदा यूपीए सरकार के दौर में नज़र आया। यानी अर्थव्यवस्था सुधर भी जाए और उसका राजनीतिक लाभ भी वक़्त पर मिल जाए, यह लक्ष्य हासिल करना इस सरकार के लिए अब इसी साल की नहीं बल्कि 2024 तक की बड़ी चुनौती होने जा रही है।
वित्त मंत्री ने बजट का इंतज़ार न करके इंफ्रास्ट्रक्चर पर ख़र्च का एलान अभी कर दिया। इसका साफ़ अर्थ यही है कि सरकार समझ रही है कि उसके पास ज़्यादा वक़्त नहीं है। आर्थिक मोर्चे पर थोड़ी सी देरी भी अब महँगी पड़ सकती है।
बल्कि झारखंड के चुनाव एक तरह से ख़तरे की घंटी बजा चुके हैं। शायद इसीलिए सरकार अब जल्दबाज़ी में दिख रही है।
दूसरा नुस्खा जो विद्वान सुझा चुके हैं और जिसपर अमल क़रीब-क़रीब तय लग रहा है वह है इनकम टैक्स में कटौती। कैसे होगी, कितनी होगी यह कहना मुश्किल है। लेकिन इतना तय है कि मध्यवर्ग को ख़ुश करने का इंतज़ाम होगा। और इस बात का भी कि इस ख़ुशी के साथ उसकी जेब में कुछ पैसा भी पहुँचे ताकि वह जश्न के मूड में आए और हाथ खोलकर ख़र्च करे। आख़िर इकॉनमी की समस्या का सबसे बड़ा इलाज भी यही है कि बाज़ार में माँग पैदा हो। यानी लोग ख़र्च करने को तैयार हों।
समाधान क्या?
लेकिन ये सारे नुस्खे काम करें इसके लिए सबसे ज़रूरी होगा अमन-चैन। इस वक़्त देश के अलग-अलग हिस्से जिस तरह उबाल खा रहे हैं उस हालत में ऊपर बताया गया कोई भी नुस्खा काम नहीं आएगा। और अगर लोगों की जेब का पैसा जुर्माना भरने में चला गया तो फिर इकॉनमी का पहिया कौन घुमाएगा? तो सबसे पहली और सबसे बड़ी चुनौती यह है कि सरकार इस वक़्त पूरे देश का भरोसा जीते, नए सिरे से जीते और उनके मन में आ रही किसी भी तरह की आशंका को दूर करे। उसके बिना किसी आर्थिक फ़ॉर्मूले से समाज आगे नहीं बढ़ा करते।