नीतीश ने जदयू को बचाने का ज़िम्मा आरसीपी को क्यों दिया?
बिहार की राजनीति में 2021 नई चुनौतियाँ लेकर आया है। राज्य में 2020 के विधानसभा चुनाव में जनता दल यूनाइटेड (जदयू) का शर्मनाक प्रदर्शन रहा। इसके बावजूद जूनियर पार्टनर के रूप में जदयू के नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने। नीतीश के पदभार संभालने के साथ ही उम्मीद की जा रही थी कि सरकार पर धीरे-धीरे बीजेपी अपना नियंत्रण बढ़ाएगी। यह बहुत जल्द दिखने लगा है। ऐसे में जदयू ने एक अहम फ़ैसला लेते हुए नौकरशाह से राजनेता बने आरसीपी सिंह को पार्टी का अध्यक्ष बनाया है। वह पार्टी में नीतीश कुमार के सबसे विश्वसनीय साथी माने जाते हैं।
कौन हैं आरसीपी?
रामचंद्र प्रसाद सिंह या रामचंद्र बाबू या आरसीपी का जन्म बिहार के नालंदा ज़िले के मुस्तफापुर गाँव में 8 जुलाई 1958 को सुखदेव नारायण सिंह और दुखलालो देवी के यहाँ हुआ। पटना विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा के परिणाम आने के पहले ही उन्होंने संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) परीक्षा में सफल होकर एक अहम उपलब्धि हासिल की। उस दौर में पटना विश्वविद्यालय में ग्रेजुएशन में भी 4-5 साल लग जाते थे, ऐसे में उनके सहपाठी व अध्यापकों का इस उपलब्धि से चौंक जाना स्वाभाविक था। आरसीपी ने यूपीएससी की भारतीय राजस्व सेवा (आईआरएस) नौकरी ज्वाइन न करके जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर में दाखिला लिया। दो वर्ष बाद उन्होंने आईएएस परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। उन्हें उत्तर प्रदेश काडर मिला।
नीतीश कुमार की राजनीति ने आरसीपी को सबसे पहले तब आकर्षित किया, जब वह पटना कॉलेज में पढ़ाई कर रहे थे। उस समय नीतीश कुमार दो चुनाव हार चुके थे। नीतीश की उन दिनों युवा नेताओं में प्रतिष्ठा थी। उन्होंने बेलछी में हुए नरसंहार में पीड़ित दलितों का पक्ष लिया था, जिसकी क़ीमत उन्हें लगातार हारकर चुकानी पड़ रही थी। उनके स्वजातीय ही नीतीश के ख़िलाफ़ हो गए थे और नीतीश के स्वजातीय भोला प्रसाद सिंह चुनाव जीते और फिर बेलछी नरसंहार के अभियुक्त रहे अरुण कुमार सिंह को समर्थन देकर चुनाव जितवा दिया। इन घटनाओं ने युवा आरसीपी के मस्तिष्क पर एक अलग छाप छोड़ी थी।
राजनीतिक प्रशिक्षण
1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी भारी बहुमत से सत्ता में आए। उन्होंने अरुण नेहरू, अरुण सिंह, कैप्टन सतीश शर्मा जैसे कंप्यूटर के जानकार व टेक्नोक्रेटों की टीम बना रखी थी। इन नेताओं के साथ काम करते हुए आरसीपी ने मतदान पूर्व निर्वाचन क्षेत्र का नक्शा बनाने की जानकारी पाई और जन्म मृत्यु के आँकड़ों के आधार पर चुनाव क्षेत्र का ढाँचा तैयार करने, जातीय डेमोग्राफी, सामाजिक आर्थिक आँकड़े संकलित करने, मानव संसाधनों का चुनाव के मुताबिक़ प्रशिक्षण का व्यावहारिक ज्ञान हासिल किया।
राजनीति का ककहरा
देश में जनता दल के राजनीतिक उभार के दौर में पार्टी के ताक़तवर कुर्मी नेता बेनी प्रसाद वर्मा को आरसीपी का संरक्षक माना जाता था। जब दिल्ली में 1997 और 1999 में संयुक्त मोर्चे की सरकारें बनीं तो बेनी प्रसाद वर्मा संचार मंत्री बने। उन्होंने आरसीपी को संचार मंत्रालय में अपने प्रमुख सहायक के रूप में बुला लिया।
आरसीपी 1990 में लखनऊ में संयुक्त सचिव पद पर तैनात थे। उस दौर में उस समय कृषि मंत्री के रूप में नीतीश कुमार लखनऊ आए और छात्र जीवन से नीतीश के प्रशंसक रहे आरसीपी ने उनसे पहली मुलाक़ात की थी।
जब आरसीपी संचार मंत्रालय में थे तब नीतीश कुमार नालंदा से सांसद थे और दिल्ली में उनकी मुलाक़ातें बढ़ीं। दोनों ने मिलकर अपने गृह जनपद नालंदा में टेलीफोन का संजाल बिछाने का काम किया।
नीतीश जब सन 2000 में रेलमंत्री बने तो उन्होंने आरसीपी को अपना निजी सहायक बनाने के लिए बुला लिया। उसके बाद आरसीपी स्थाई रूप से नीतीश से जुड़ गए। 2005 में जब नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री बने तब उन्होंने दो साल की प्रतिनियुक्ति पर आरसीपी को बिहार बुला लिया और उन्हें निजी सचिव बनाया। 2007 में प्रतिनियुक्ति का समय बढ़ाने में दिक्कत आने पर नीतीश ने सीधे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाक़ात कर प्रतिनियुक्ति की अवधि बढ़वाई थी।
2009 में आरसीपी और नीतीश में मनमुटाव भी हुआ। माना जाता है कि आरसीपी नालंदा से लोकसभा का टिकट चाहते थे, लेकिन उन्हें नहीं मिला। आरसीपी ने नाराज़गी में काम पर आना बंद कर दिया। नीतीश ने उन्हें मनाने के लिए पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को भेजा। 2010 में आरसीपी ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली। नीतीश ने उन्हें राज्यसभा में भेज दिया।
पसमांदा और अन्य पिछड़ों के लिए काम
माना जाता है कि नीतीश कुमार को मुसलमानों में पसमांदा के बीच काम करने की सलाह आरसीपी ने दी थी। रामपुर में ज़िलाधिकारी रहते आरसीपी ने देखा था कि किस तरह से कामगार-कारीगर के रूप में काम करने वाले मुसलमान उच्च श्रेणी के सैयद और पठानों का उत्पीड़न झेलते थे। 2005 में जब नीतीश बिहार की सत्ता में आए, तब आरसीपी ने इस शोषित तबक़े को नीतीश से जोड़ने की रणनीति बनानी शुरू कर दी।
आरसीपी ऐसे नेता हैं, जिन्हें बिहार के अधिकतर निर्वाचन क्षेत्रों की जनांकिकी की जानकारी है। माना जाता है कि चुनाव प्रबंधन के मामले में नीतीश और किसी पर भरोसा नहीं करते थे।
2010 के विधानसभा चुनाव में आरसीपी ने 1 अणे मार्ग में बैठकर एक-एक प्रत्याशी के लिए रणनीति तैयार की थी। प्रत्याशियों के चयन से लेकर कार्यकर्ताओं और धन का प्रबंधन का काम आरसीपी अकेले संभालते थे। इस चुनाव में नीतीश को अपने जीवन की अभूतपूर्व चुनावी सफलता मिली थी।
नेताओं में आक्रोश भी
जदयू में आरसीपी का महत्त्व बढ़ने से पार्टी के तमाम नेता खफा भी रहते हैं और यह कहा जाता है कि ब्यूरोक्रेट्स ही नीतीश की सत्ता संभालते हैं। ख़ासकर 2010 से 2015 के बीच नीतीश के कार्यकाल में यह चर्चा बहुत ज़्यादा रही। 2013 में नीतीश कुमार के बीजेपी से अलग होने और अल्पकाल के लिए राष्ट्रीय जनता दल से संबंधों के दौरान आरसीपी की जगह प्रशांत किशोर ने लेने की कवायद की। प्रशांत किशोर को 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव परिणामों का श्रेय दिया जाने लगा। ऐसा लगा कि आरसीपी का कद कम हो रहा है। वह इस दौरान दिल्ली में राज्यसभा में सक्रिय रहे और केंद्र व राज्य के बीच तालमेल बिठाने की कड़ी के रूप में रहे। प्रशांत किशोर का कद घटने के बाद आरसीपी एक बार फिर प्रभावी हुए हैं।
वीडियो में देखिए, बिहार में बीजेपी-जेडीयू के रिश्तों में खटास!
पार्टी को सँवारने का ज़िम्मा
आरसीपी ऐसे समय में पार्टी के अध्यक्ष बने हैं, जब जदयू 2010 की 115 सीटों, 2015 की 71 सीटों के बाद 2020 चुनाव में 43 सीटें जीतकर अपने ऐतिहासिक निचले स्तर पर है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अनुमान से बहुत पहले बीजेपी के दबाव में जा चुके हैं। क्रिसमस के दिन 25 दिसंबर 2020 को जदयू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के पहले ही अरुणाचल प्रदेश में पार्टी के 6 विधायकों को बीजेपी ने अपने दल में मिला लिया। बीजेपी के एक एमएलसी संजय पासवान ने मांग की कि राज्य की ख़राब क़ानून-व्यवस्था को देखते हुए या तो नीतीश कुमार को मंत्रालय का पदभार छोड़ना चाहिए या गृह सचिव को हटाया जाना चाहिए। उसके महज 4 दिन बाद 31 दिसंबर 2020 को नीतीश कुमार ने गृह सचिव अमीर सुबहानी को पद से हटा दिया, जो 15 साल से विभाग का काम देख रहे थे। माना जाता है कि इसके पहले स्वास्थ्य सचिव को भी बीजेपी के दबाव में हटाना पड़ा था। नीतीश कुमार की न सिर्फ़ सत्ता पर पकड़ कमज़ोर हो रही है, बल्कि वह बीजेपी के जबड़े में फँसते जा रहे हैं।
बीजेपी लगातार अपने सहयोगियों को छोड़ रही है। 2014 के बाद उसके 19 सहयोगी साथ छोड़ चुके हैं। किसान आंदोलन के दौरान उसके निकट सहयोगी अकाली दल के अलावा राजस्थान के हनुमान बेनीवाल ने बीजेपी की अगुवाई वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन छोड़ने का फ़ैसला कर लिया है। उत्तर प्रदेश में भारतीय समाज पार्टी अलग हो चुकी है और प्रमुख सहयोगी अनुप्रिया पटेल का अपना दल हाशिये पर है। आरसीपी के लिए विधानसभा के मुताबिक़ रणनीति बनाने, उनके अध्यक्ष बनने के बाद जदयू पर कुर्मी की पार्टी होने का ठप्पा हटाने का काम करना है। साथ ही उन्हें यह भी देखना है कि बीजेपी अपने इस सहयोगी को गठबंधन से बाहर करे, उसके पहले पार्टी सम्मानजनक तरीक़े से बीजेपी से निपट सके। आरसीपी पर 2021 ने बड़ी ज़िम्मेदारियां डाल दी हैं।