कमाल के बग़ैर अब शायद ज़िंदगी ज़िंदगी न रहे!
यह पत्रकारिता का बहुत बड़ा नुक़सान है। यह लखनऊ का बहुत बड़ा नुक़सान है। उन लोगों के लिए बहुत बड़ा सदमा है जिन्हें कमाल ने आवाज़ दी, दिखाया और दुनिया के सामने उजागर किया। उन दर्शकों के लिए एक बहुत बड़ी जगह खाली हो गई है जो कमाल की नज़रों से न जाने क्या-क्या देखते थे, और बिलकुल अलग अंदाज़ में वो सुनते थे जो सिर्फ़ कमाल ही लिख सकते थे, कमाल ही कह सकते थे और कमाल ही सुना सकते थे।
कमाल ने टेलिविजन पत्रकारिता 1995 के आसपास शुरू की। लेकिन लगता है कि वो इसके लिए ही बने थे। पत्रकार बनने से पहले कमाल एचएएल में काम किया करते थे। रूसी भाषा के अनुवादक। सरकारी नौकरी थी, पढ़ते भी बहुत थे। हिंदी, अंग्रेज़ी, उर्दू और रूसी चार भाषाएँ। इन भाषाओं में साहित्य और समाज के दस्तावेज़। तो लिखने का शौक भी था। अख़बार में लिखने लगे। अनुवाद भी और अपने लेख भी। यही सिलसिला 1987 में उन्हें पत्रकारिता में ले आया।
लखनऊ के अमृत प्रभात में मैंने और कमाल ने एक ही दिन एक साथ अपनी पहली नौकरी शुरू की। अख़बार का हाल डांवाडोल था, तीन साल में वो बंद हो गया। बंद होते अख़बार का माहौल एकदम कॉफी हाउस जैसा होता है। बेहाल, परेशान और निराश लोग। काम किसी तरह टाल दिया जाए। बस।
ऐसे में ही एक दिन कमाल ने मुझे फटकारा - प्यार से ही - “इन सबकी तो ज़िंदगी जा चुकी है, कुछ करना नहीं है। आपको क्या लगता है? आप इस अख़बार के आगे नहीं देखते? हम यहां इसलिए काम नहीं कर रहे हैं कि यहां पेज भरने हैं। हम यहाँ अपनी अपनी धार तेज़ कर रहे हैं ताकि ज़िंदगी में आगे बड़ी चुनौतियाँ झेल सकें। दूसरी नौकरियां कर सकें और पत्रकार के तौर पर अच्छे से अच्छा काम कर सकें।”
मुझे पता नहीं कि इस सलाह को मैं कितना अमल में ला सका। लेकिन कमाल के काम और उनकी पत्रकारिता को देखें तो उसका पूरा रहस्य इन लाइनों में छुपा हुआ है। टीवी में काम करने से पहले भी वो शब्दों से तसवीर खींचने का जादू जानते थे। सामने बैठकर कोई क़िस्सा सुनाते तो धीरे धीरे आपकी आंखों के सामने पिक्चर सी चलने लगती थी।
सत्ताईस साल हो गए मुझे लखनऊ से बाहर निकले, लेकिन जब भी जाता तो कमाल के पास कुछ देर बैठना, उनके साथ खाना खाना और उनकी बातें सुनना काफी होता था, सारा लखनऊ वापस ज़िंदा करने के लिए।
अमृत प्रभात बंद हो रहा था यानी बस नाम के लिए ही चल रहा था जब नवभारत टाइम्स के लखनऊ संस्करण में कुछ जगह निकलीं। इसके लिए भी अर्जी लगाई गई और लंबा इम्तिहान हुआ। मुझे आज भी याद है कि उस टेस्ट के दौरान हम अनेक पत्रकार एक दूसरे के साथ गप लगा रहे थे, मज़ाक कर रहे थे और हल्ला मचा रहे थे। आधा वक़्त जाने के बाद अचानक पास बैठे कमाल ने मेरी तरफ़ देखकर आँखें भी तरेरीं और मुझे डांट भी लगाई। कहा - “क्या मज़ाक चल रहा है? सवाल पढ़िए और अच्छे से अच्छा जवाब लिखिए, वरना वो नौकरी तो जा चुकी है, ये भी नहीं मिलेगी।”
मैं ही जानता हूँ कि उसके बाद बचे हुए समय के सदुपयोग ने ही मुझे वो नौकरी दिलवाई।
कमाल मेरे दोस्त यूं ही नहीं थे। मौक़ा मिलने पर मैं भी उन्हें ऐसे ही फटकार सुना देता था, लेकिन क़रीब पांच साल तक हर रात दफ्तर के बाद हम दोनों किसी चाय की दुकान के बाहर स्कूटर टिकाकर घंटों बातें करते थे। सिगरेट, शराब, तंबाखू कोई भी आदत नहीं थी कमाल को, लेकिन बैठकी का शौक ज़रूर था। और इस लंबा गपबाज़ी में ही पता चलता था कि कमाल ने कितना पढ़ा है, क्या क्या पढ़ा है और उसमें से भी कितना उनकी याददाश्त में ऐसा बैठा हुआ है कि ज़रूरत पड़ते ही तपाक से निकल आता है।
इतने साल की पत्रकारिता और इतनी व्यस्त दिनचर्या के बावजूद कमाल का पढ़ने का शौक कम नहीं हुआ। पिछली एक मुलाक़ात में वो इसलाम पर बोल रहे थे और हम सब सुन रहे थे जैसे किसी ने जादू फेर दिया हो। आज भी वो लगातार अपनी धार तेज़ करने में जुटे हुए थे। कुछ समय पहले उन्हें एक अवॉर्ड मिला जिसके साथ कहा गया कि अवॉर्ड तो साहित्य के लिए है लेकिन कमाल की पत्रकारिता भी तो साहित्य ही है।
अगर आपने कमाल के राम डॉक्यूमेंट्री नहीं देखी तो तलाश कीजिए और देखिए। तब आप समझेंगे कि कमाल की पत्रकारिता साहित्य ही नहीं, संस्कृति भी है और ज़िंदगी जीने का तरीका भी।
मैं खुशक़िस्मत रहा कि कमाल सालों पहले मेरे दोस्त बने। मैं बदक़िस्मत हूँ कि मुझे आज कमाल को इस तरह याद करना पड़ रहा है। याद तो अब ज़िंदगी का हिस्सा है। लेकिन ज़िंदगी अब शायद ज़िंदगी न रह पाए।
(कमाल खान और आलोक जोशी ने अगस्त 1987 में एक ही दिन अमृत प्रभात में पत्रकारिता की शुरुआत की थी। फिर दोनों एक साथ ही नवभारत टाइम्स लखनऊ में भी गए और उसके बंद होने के बाद कुछ समय के लिए दैनिक जागरण में भी। वहां से करियर के रास्ते अलग हो गए, मगर वो एक दूसरे की ज़िंदगी का हिस्सा उसी तरह बने रहे।)