ऐसे थे डीपीटी!, ''बीमारी का पता चला तो पार्टी दी, जाते वक्त बोले- मुझे कैंसर है''
देवी प्रसाद त्रिपाठी यानी मित्रों के 'डीपीटी' के अंतिम संस्कार से लौट रहा हूं। मन उदास और खिन्न है। यारों का यार चला गया। पर मेरी यह सोच तो डीपीटी के स्वभाव के ख़िलाफ़ है। बीते तीन साल से वह मौत की आहट सुन रहे थे और उस आहट को लगातार उत्सव में तब्दील कर रहे थे। हर रोज उनकी मौत से ठन रही थी। लेकिन मित्रों के साथ छन रही थी। उनके याराना और उनकी बैठकी को यह आहट भी नहीं रोक पाई।
आज बहुत कुछ याद आ रहा है। वह साल 2016 की सर्दियां थीं। डीपीटी का फ़ोन आया, "हेमंत जी परसों मित्रों के साथ रसरंजन हैं। वीणा को भी लाइएगा। कोई 15-20 मित्र हैं। कुछ मित्र नेपाल और पाकिस्तान से भी आ रहे हैं। लिखिए पहले, आप भूल जाते हैं।" मैंने कहा, "आऊंगा" उन्होंने कहा, "पहले लिखिए"। मैंने पूछा, "अवसर क्या है" उन्होंने कहा, "बहुत रोज से बैठकी नहीं हुई है।"
मैं सपत्नीक गया। पुष्प गुच्छ के साथ। याददाश्त पर जोर डाला तो पाया कि डीपीटी का जन्मदिन तो सर्दियों में ही होता है। वही होगा।
सांसद होने के नाते फिरोज़शाह रोड के उनके बंगले पर आयोजन था। तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह, विदेश सचिव जयशंकर, अशोक वाजपेयी, पुष्पेश पंत, नेपाल के समाजवादी नेता प्रदीप गिरी और पाकिस्तान के कोई शायर वहां मौजूद थे। वहां जाकर पता चला कि डीपीटी का जन्मदिन नहीं है। बतरस, रससंजन और भोजन के उपरान्त जब लौटने को हुआ तो डीपीटी स्वभाव के मुताबिक़ गाड़ी तक आए। मेरे मन में जिज्ञासा ने जोर मारा कि आपने बताया नहीं, यह उत्सव किसलिए मैंने सोचा था आप का जन्मदिन होगा। उन्होंने कहा, “आपको बता सकता हूं। मुझे कैंसर हो गया है। कल अस्पताल में भर्ती होना है। फिर क्या होगा पता नहीं। इसलिए सोचा अस्पताल जाने से पहले दोस्तों के साथ शाम गुजरे।” मैं सन्न रह गया। रास्ते भर सोचता रहा आख़िर यह आदमी कैसा है उनकी विद्वता, याददाश्त और वक्तृता का लोहा तो मानता ही था। आज मौत के प्रति उनकी दृष्टि का भी लोहा मान गया।
‘जश्न-ए-फैज़’ कराते डीपीटी
आज जब कुछ बौड़म फैज़ पर हमला कर रहे हैं, तो ऐसे समय में डीपीटी क्या करते हो सकता है वह ‘जश्न-ए-फैज़’ की तैयारी करते। फैज़ जब 1981 में भारत आए तो डीपीटी ही उन्हें फिराक़ से मिलवाने इलाहाबाद ले गए। गालिब, फैज़ और फिराक़ उनके पसंदीदा शायर थे। फैज़ अहमद फैज़ पर उनकी एक किताब भी है। पाकिस्तानी शायरा फहमीदा रियाज़ को जब पाकिस्तानी हुकुमत ने सताया तो दिल्ली में डीपीटी के घर में ही उन्हें पनाह मिली। कल ही फैज़ साहब की बेटी सलीमा हाशमी का संदेश आया कि वह अंतिम संस्कार में आना चाहती थीं पर नहीं आ पा रही हैं। कारण यह था कि वीजा नहीं मिल सका।
बहरहाल, डीपीटी कैंसर का इलाज करा कर वापस लौटे तो फिर मित्रों के साथ पार्टी की। पार्टी में एलान किया, "मैंने कैंसर को हरा दिया। पैटस्कैन में सारे सेल मर गए। अब कोई सेल बचा नहीं इसलिए यह उत्सव है।"
हिंदी, ऊर्दू और संस्कृत के उदाहरण डीपीटी की जुबान से रसधारा से बहते थे। जेएनयू का अध्यक्ष रहने के बाद उन्होंने सीताराम येचुरी को चुनाव लड़ाया। सीताराम जी ने कहा कि उनके चुनाव का नारा भी डीपीटी ने दिया था “बड़ी लड़ाई, ऊंचा काम, सीताराम, सीताराम।”
दोस्तों के दोस्त थे डीपीटी
राजनीति में कम होती जा रही बौद्धिकता के बीच वह टापू सरीखे थे। राजनीति में बिरले होंगे जो उनके जैसे बहुपठित, बहुभाषाई और बहुलतावादी संस्कृति के जानकार हों। उनकी याददाश्त अचूक थी। वह दोस्तों के दोस्त थे। लोकतंत्र के हिमायती थे। तानाशाही के ख़िलाफ़ जंग के योद्धा थे। इमरजेंसी के ख़िलाफ़ जब जेएनयू के छात्र हड़ताल पर थे तो ताकतवर इन्दिरा गाँधी की बहू मेनका गाँधी को क्लास में जाने से डीपीटी ने रोका था। जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अध्यापक डीपीटी को व्यक्ति और समाज का जबरदस्त अध्ययन था।
डीपीटी तीन साल से कैंसर से जूझ रहे थे। इस दौरान उनके साथ चार-पाँच लंच हुए। आत्मीयता से भरे हुए। वह देवेन्द्र भईया के शिष्य थे, इसलिए मेरे प्रति उनका ख़ास लगाव था। अक्सर घर आ जाते और अधिकार के साथ कहते “आज रात का भोजन आप के यहॉं।’’
कई भाषाएं बोलते थे डीपीटी
डीपीटी हिन्दी, अंग्रेज़ी, संस्कृत, अरबी और फ़्रेंच के जानकार थे। सुल्तानपुर के थे इसलिए अवधी धारा प्रवाह बोलते थे। मेरी उनकी पहली मुलाक़ात प्रधानमंत्री राजीव गॉंधी के साथ अमेठी में गौरीगंज के डाकबंगले में हुई थी। तब वह राजीव गाँधी के सलाहकार थे। राजीव गाँधी उनसे चमत्कृत थे। डीपीटी उनसे अंग्रेज़ी में बात करते थे। फ़्रांस का राष्ट्रपति आया तो फ़्रेंच में बात कर रहे थे। उनके साथ खाड़ी गए तो अरबी बोल रहे थे और अमेठी में धारा प्रवाह अवधी। तब से डीपीटी मित्र हो गए। फिर देवेन्द्र भईया के कारण यह लगाव बढ़ता गया। मेरी अयोध्या वाली किताब के डीपीटी गजब प्रशंसक थे। उनकी याददाश्त अद्भुत थी। विदेश मंत्री जयशंकर उनके जूनियर थे। उनके मंत्री बनने के बाद उन्होंने एक डिनर रखा। उसमें वह अयोध्या किताब को पेज नम्बर समेत उद्धृत कर रहे थे।
अध्यापक ने शिष्य पर लिखी किताब
दिल्ली के अभिजात्य समाज को कॉकटेल की जगह हिन्दी नाम रसरंजन उन्हीं का दिया हुआ है। अपने अध्यापकों पर शिष्य किताब लिखते रहे हैं। पर किसी शिष्य पर उसका अध्यापक लिखे, यह पहला मामला मैंने उनके सन्दर्भ में देखा था। पुष्पेश पंत जी ने उनकी बायोग्राफ़ी लिखी है। पुष्पेश जी के वह स्टूडेंट थे। अपनी शारीरिक कमजोरी को अपनी काबलियत बनाना कोई उनसे सीख सकता था। उनकी दोनों आँखें ख़राब थीं। स्कूल में इस शारीरिक कमी का लड़कों ने उपहास बनाया। उन्होंने स्कूल जाना बन्द कर दिया और वह कलकत्ता चले गए। वहॉं उनके पिता की चाय की दुकान थी। उसी दुकान पर बैठकर उन्होंने समाज का अध्ययन किया। फिर सीधे आठवीं में दाख़िला लिया।
राज्यसभा में अपने अन्तिम भाषण में उन्होंने हफ़ीज़ होशियारपुरी के हवाले से कहा था, "मोहब्बत करने वाले कम न होंगे। तेरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे।” यही जिंदादिली उनकी पहचान थी। उन्होंने ज़िंदगी का एक-एक लम्हा जिया। उन्होंने खुद को बनाया, संवारा और अपने समाज को भी परिष्कृत किया। जब भी साहित्य, कला, संस्कृति केन्द्रित राजनीति पर बात होगी, डीपीटी बहुत याद आयेंगे।