जन्माष्टमी: नज़ीर अकबराबादी ने नज़्म लिखी - तुम भी ‘नज़ीर’ किशन बिहारी की बोलो जै
भारत के इतिहास में मुहम्मद शाह रंगीला का शासन काल (1719 -1748) ग़ैर ज़िम्मेदार शासन का सबसे अजीबोगरीब उदाहरण है। इसी के शासन काल में दिल्ली पर नादिर शाह नाज़िल हुआ था। दिल्ली शहर में क़त्लो-गारद भी इसी के दौर में हुआ था। कहते हैं कि जब दिल्ली शहर में लूटमार मची थी तो मुहम्मद शाह रंगीला इसलिए नाराज़ हो गया कि लाल क़िले के आसपास मारकाट कर रहे हमलावरों के घोड़ों की टाप से उसकी महफ़िल में बज रहे तबलों की आवाज़ डिस्टर्ब हो रही थी। ऐसी बहुत सारी कहानियाँ उसके बारे में बताई जाती हैं। दिल्ली के हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह के पास उसको दफ़न किया गया था। लाल गुम्बद के नाम से उसकी कब्र आज भी पहचानी जाती है। यह आजकल दिल्ली गोल्फ कोर्स के कंपाउंड के अन्दर है।
उसके बेटे नज़ीर अकबराबादी (1739- 1830) को इतिहास एक बहुत बड़े शायर के रूप में याद करता है। उनका असली नाम वली मुहम्मद था। उनका तख़ल्लुस नज़ीर था। दुनिया इसी नाम से उनको जानती है, वह चार साल के ही थे जब दिल्ली पर नादिर शाह का हमला हुआ था। जब वह बाईस साल के थे तो उन्होंने अहमद शाह अब्दाली का हमला भी देखा। अब्दाली के हमले के बाद मुसीबतें दिल्ली पर कहर बनकर टूट पड़ी थीं। उसके बाद वह अपनी माँ और दादी के साथ आगरा चले गए। आगरा के क़िलेदार नवाब सुलतान ख़ां उनके नाना थे। उनके वालिद मुहम्मद शाह की मौत हो चुकी थी। आगरा जाकर उनकी माँ का फिर निकाह हो गया। जिनसे उनका निकाह हुआ उन मुहम्मद फारूक को भी कहीं कहीं नज़ीर अकबराबादी के वालिद के रूप में लिख दिया गया है। नज़ीर अकबराबादी के वालिद की मौत के बाद उनकी सौतेली माँ कुदसिया बेगम के बेटे अहमद शाह बहादुर को मुग़ल सत्ता मिली। वह नाबालिग थे। उनकी रेजेंट के रूप में कुदसिया बेगम ने ही हुकूमत चलाई। इस दौर में भी मुग़ल सत्ता के क्षरण का सिलसिला जारी रहा।
बहरहाल, नज़ीर दिल्ली से दूर जा चुके थे और आगरा में उन्होंने उर्दू और ब्रजभाषा में जो कुछ भी लिखा वह इतिहास की धरोहर है। कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर उनकी वह नज़्म नक़ल कर रहा हूँ जिसको मैं बहुत पसंद करता हूँ। कविता थोड़ी लम्बी है लेकिन हर शब्द में माखनचोर कृष्ण की शान का अक्स नज़र आता है-
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन।
यारो सुनो! यह दधि के लुटैया का बालपन।
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन॥
मोहन सरूप निरत करैया का बालपन।
बन-बन के ग्वाल गोएँ चरैया का बालपन॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन॥1॥
ज़ाहिर में सुत वह नन्द जसोदा के आप थे।
वर्ना वह आप माई थे और आप बाप थे॥
पर्दे में बालपन के यह उनके मिलाप थे।
जोती सरूप कहिये जिन्हें सो वह आप थे॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥2॥
उनको तो बालपन से न था काम कुछ ज़रा।
संसार की जो रीति थी उसको रखा बजा॥
मालिक थे वह तो आपी उन्हें बालपन से क्या।
वां बालपन, जवानी, बुढ़ापा, सब एक था॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥3॥
मालिक जो होवे उसको सभी ठाठ यां सरे।
चाहे वह नंगे पांव फिरे या मुकुट धरे॥
सब रूप हैं उसी के वह जो चाहे सो करे।
चाहे जवां हो, चाहे लड़कपन से मन हरे॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥4॥
बाले हो व्रज राज जो दुनियां में आ गए।
लीला के लाख रंग तमाशे दिखा गए॥
इस बालपन के रूप में कितनों को भा गए।
इक यह भी लहर थी कि जहां को जता गए॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥5॥
यूं बालपन तो होता है हर तिफ़्ल का भला।
पर उनके बालपन में तो कुछ और भेद था॥
इस भेद की भला जी, किसी को ख़बर है क्या।
क्या जाने अपने खेलने आये थे क्या कला॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥6॥
राधारमन तो यारो अ़जब जायेगौर थे।
लड़कों में वह कहां है, जो कुछ उनमें तौर थे॥
आप ही वह प्रभू नाथ थे आप ही वह दौर थे।
उनके तो बालपन ही में तेवर कुछ और थे॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥7॥
वह बालपन में देखते जीधर नज़र उठा।
पत्थर भी एक बार तो बन जाता मोम सा॥
उस रूप को ज्ञानी कोई देखता जो आ।
दंडवत ही वह करता था माथा झुका झुका॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥8॥
पर्दा न बालपन का वह करते अगर ज़रा।
क्या ताब थी जो कोई नज़र भर के देखता॥
झाड़ और पहाड़ देते सभी अपना सर झुका।
पर कौन जानता था जो कुछ उनका भेद था॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन॥9॥
मोहन, मदन, गोपाल, हरी बंस, मन हरन।
बलिहारी उनके नाम पै मेरा यह तन बदन॥
गिरधारी, नन्दलाल, हरि नाथ, गोवरधन।
लाखों किये बनाव, हज़ारों किये जतन॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥10॥
पैदा तो मधु पुरी में हुए श्याम जी मुरार।
गोकुल में आके नन्छ के घर में लिया क़रार॥
नन्द उनको देख होवे था जी जान से निसार।
माई जसोदा पीती थी पानी को वार वार॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥11॥
जब तक कि दूध पीते रहे ग्वाल व्रज राज।
सबके गले के कठुले थे और सबके सर के ताज॥
सुन्दर जो नारियां थीं वह करतीं थी कामो-काज।
रसिया का उन दिनों तो अजब रस का था मिज़ाज॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥12॥
बदशक्ल से तो रोके सदा दूर हटते थे।
और खु़बरू को देखके हंस-हंस चिमटते थे॥
जिन नारियों से उनके ग़मो-दर्द बंटते थे।
उनके तो दौड़-दौड़ गले से लिपटते थे॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥13॥
अब घुटनियों का उनके मैं चलना बयां करूं।
या मीठी बातें मुंह से निकलना बयां करूं॥
या बालकों की तरह से पलना बयां करूं।
या गोदियों में उनका मचलना बयां करूं॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन॥14॥
पाटी पकड़के चलने लगे जब मदन गोपाल।
धरती तमाम हो गई एक आन में निहाल॥
बासुक चरन छूने को चले छोड़ कर पताल।
आकास पर भी धूम मची देख उनकी चाल॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥15॥
थी उनकी चाल की तो अ़जब यारो चाल-ढाल।
पांवों में घुंघरू बाजते, सर पर झंडूले बाल॥
चलते ठुमक-ठुमक के जो वह डगमगाती चाल।
थांबें कभी जसोदा कभी नन्द लें संभाल॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥16॥
पहने झगा गले में जो वह दखिनी चीर का।
गहने में भर रहा गोया लड़का अमीर का॥
जाता था होश देख के शाहो वज़ीर का।
मैं किस तरह कहूं इसे छोरा अहीर का॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥17॥
जब पांवों चलने लागे बिहारी न किशोर।
माखन उचक्के ठहरे, मलाई दही के चोर॥
मुंह हाथ दूध से भरे कपड़े भी शोर-बोर।
डाला तमाम ब्रज की गलियों में अपना शोर॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥18॥
करने लगे यह धूम, जो गिरधारी नन्द लाल।
इक आप और दूसरे साथ उनके ग्वाल बाल॥
माखन दही चुराने लगे सबके देख भाल।
दी अपनी दधि की चोरी की घर घर में धूम डाल॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन॥19॥
थे घर जो ग्वालिनों के लगे घर से जा-बजा।
जिस घर को ख़ाली देखा उसी घर में जा फिरा॥
माखन मलाई, दूध, जो पाया सो खा लिया।
कुछ खाया, कुछ ख़राब किया, कुछ गिरा दिया॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥20॥
कोठी में होवे फिर तो उसी को ढंढोरना।
गोली में हो तो उसमें भी जा मुंह को बोरना॥
ऊंचा हो तो भी कांधे पै चढ़ कर न छोड़ना।
पहुंचा न हाथ तो उसे मुरली से फोड़ना॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥21॥
गर चोरी करते आ गई ग्वालिन कोई वहां।
और उसने आ पकड़ लिया तो उससे बोले हां॥
मैं तो तेरे दही की उड़ाता था मक्खियां।
खाता नहीं मैं उसकी निकाले था चूंटियां॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥22॥
गर मारने को हाथ उठाती कोई ज़रा।
तो उसकी अंगिया फाड़ते घूसे लगा लगा॥
चिल्लाते गाली देते, मचल जाते जा बजा।
हर तरह वां से भाग निकलते उड़ा छुड़ा॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥23॥
गुस्से में कोई हाथ पकड़ती जो आन कर।
तो उसको वह सरूप दिखाते थे मुरलीधर॥
जो आपी लाके धरती वह माखन कटोरी भर।
गुस्सा वह उनका आन में जाता वहीं उतर॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥24॥
उनको तो देख ग्वालिनें जी जान पाती थीं।
घर में इसी बहाने से उनको बुलाती थीं॥
ज़ाहिर में उनके हाथ से वह गुल मचाती थीं।
पर्दे में सब वह किशन के बलिहारी जाती थीं॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥25॥
कहतीं थीं दिल में दूध जो अब हम छिपाऐंगे।
श्रीकृष्ण इसी बहाने हमें मुंह दिखाऐंगे॥
और जो हमारे घर में यह माखन न पाऐंगे।
तो उनको क्या ग़रज है यह काहे को आऐंगे॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥26॥
सब मिल जसोदा पास यह कहती थी आके बीर।
अब तो तुम्हारा कान्ह हुआ है बड़ा शरीर॥
देता है हमको गालियां फिर फाड़ता है चीर।
छोड़े दही न दूध, न माखन, मही न खीर॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥27॥
माता जसोदा उनकी बहुत करती मिनतियां।
और कान्ह को डराती उठा बन की सांटियां॥
जब कान्ह जी जसोदा से करते यही बयां।
तुम सच न जानो माता, यह सारी हैं झूटियां॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥28॥
माता कभी यह मेरी छुंगलिया छुपाती हैं।
जाता हूं राह में तो मुझे छेड़ जाती हैं॥
आप ही मुझे रुठाती हैं आपी मनाती हैं।
मारो इन्हें यह मुझको बहुत सा सताती हैं॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥29॥
माता कभी यह मुझको पकड़ कर ले जाती हैं।
गाने में अपने सथ मुझे भी गवाती हैं॥
सब नाचती हैं आप मुझे भी नचाती हैं।
आप ही तुम्हारे पास यह फ़रयादी आती हैं॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥30॥
एक रोज मुंह में कान्ह ने माखन झुका दिया।
पूछा जसोदा ने तो वहीं मुंह बना दिया॥
मुंह खोल तीन लोक का आलम दिखा दिया।
एक आन में दिखा दिया और फिर भुला दिया॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥31॥
थे कान्ह जी तो नंद जसोदा के घर के माह।
मोहन नवल किशोर की थी सबके दिल में चाह॥
उनको जो देखता था सो कहता था वाह-वाह।
ऐसा तो बालपन न हुआ है किसी का आह॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥32॥
सब मिलके यारो किशन मुरारी की बोलो जै।
गोबिन्द छैल कुंज बिहारी की बोलो जै॥
दधिचोर गोपी नाथ, बिहारी की बोलो जै।
तुम भी ”नज़ीर“ किशन बिहारी की बोलो जै॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥33॥
(शेष नारायण सिंह की फ़ेसबुक वाल से)