एनआरसी: सिर्फ़ हिंदुओं के लिए ही क्यों बयान दे रहे हैं बीजेपी, संघ?
असम में अवैध आप्रवासियों की पहचान करने और उन्हें देश से बाहर निकालने के लिए जिस नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजंस (एनआरसी) की शुरुआत की गई थी, वह अपने लक्ष्य में कामयाब होता नहीं दिखता। ऐसा इसलिए क्योंकि जब कोई संगठन अगर यह बयान दे कि जिस समुदाय की वह नुमाइंदगी करता है, उस समुदाय के लोग अगर एनआरसी से बाहर रहेंगे तो वह उन्हें देश से बाहर नहीं होने देगा तो सवाल यह खड़ा होता है कि फिर इसकी ज़रूरत ही क्या थी।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि जिन हिंदुओं के नाम नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजंस (एनआरसी) में आने से छूट गए हैं, उन्हें घबराने की कोई ज़रूरत नहीं है। भागवत ने कहा है कि एनआरसी से बाहर रहे हिंदुओं को देश से बाहर नहीं होने दिया जाएगा।
अंग्रेजी अख़बार ‘द हिंदुस्तान टाइम्स’ में छपी ख़बर के मुताबिक़, मोहन भागवत ने यह बात संघ और बीजेपी के बीच रविवार को कोलकाता में हुई एक गुप्त बैठक में कही है। भागवत के बयान से यह साफ़ है कि एनआरसी का मुद्दा बीजेपी और संघ के लिए मुसीबत बनता जा रहा है। क्योंकि असम में 19 लाख लोग एनआरसी से बाहर हैं और इनमें अधिकांश हिंदू हैं। इससे पहले भी संघ-बीजेपी की समन्वय बैठक में संघ ने कहा था कि मोदी सरकार एनआरसी से बाहर रहे लोगों के लिए नागरिकता संशोधन विधेयक जल्द से जल्द संसद में लाए और उन्हें राहत दे।
सवाल यह है कि अगर भागवत की ही तरह कोई मुसलिम संगठन का प्रमुख यह बयान दे दे कि एनआरसी से बाहर रह गए गए मुसलमानों को देश से बाहर नहीं होने दिया जाएगा, तो क्या होगा। इस तरह तो एनआरसी का मखौल बनकर रह जाएगा।
एनआरसी की फ़ाइनल सूची प्रकाशित होने में करोड़ों रुपये का खर्च आया है और सैकड़ों सरकारी कर्मचारी इसे तैयार करने में दिन-रात जुटे रहे। लेकिन जब संघ जैसे ताक़तवर संगठन, जिसकी शाखाओं से देश के प्रधानमंत्री और बीजेपी के सभी बड़े नेता निकले हैं, उसके प्रमुख यह बयान देंगे तो सवाल यह है कि इस पूरी प्रक्रिया की ज़रूरत ही क्या थी।
और इससे बड़ी बात यह कि इस पूरी प्रक्रिया की मॉनीटरिंग ख़ुद सुप्रीम कोर्ट कर रहा है। ऐसे में संघ प्रमुख किस हैसियत से यह बयान दे सकते हैं कि एनआरसी से बाहर रहे हिंदुओं को देश से बाहर नहीं होने दिया जायेगा।
असम सरकार के मंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने भी कहा है कि उनकी पार्टी बीजेपी सुप्रीम कोर्ट को यह बतायेगी कि वह एनआरसी को स्वीकार नहीं करती और उसने इसे सिरे से खारिज कर दिया है। इसका मतलब साफ़ है कि बीजेपी इस मुद्दे को सिर्फ़ राजनीतिक बनाये रखना चाहती है। क्योंकि अगर वह वास्तव में घुसपैठियों को बाहर रखने की बात पर दृढ़ होती तो एनआरसी की फ़ाइनल सूची को मानती और इससे बाहर रहे हिंदुओं को देश में ही रखने का तर्क नहीं देती।
असम में एनआरसी में लाखों हिंदुओं के बाहर रहने के बाद बीजेपी के पास इस बात का भी कोई जवाब नहीं है कि उसके नेता किस आधार पर दूसरे राज्यों में एनआरसी की बात कह रहे हैं। क्योंकि इसी तरह वे अगर दूसरे राज्यों में भी एनआरसी से हिंदुओं के बाहर रहने पर उन्हें देश से बाहर नहीं जाने का बयान देंगे तो सीधा सवाल यह है कि क्या यह सारी कवायद मुसलमानों को देश से बाहर करने के लिए की जा रही है। वरना संघ प्रमुख सिर्फ़ हिंदुओं को लेकर बयान क्यों देते।
यहाँ यह भी बताना ज़रूरी है कि देश में केवल असम में ही एनआरसी की ज़रूरत क्यों पड़ी। इसके लिए थोड़ा पीछे चलते हैं। देश की आज़ादी के बाद से ही पाकिस्तान की सेना के अत्याचारों से त्रस्त होकर पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के नागरिक भारी संख्या में असम आ गए थे और इनमें से अधिकतर बांग्लाभाषी मुसलमान थे। 1971 तक यह बहुत बड़ी संख्या में असम में आ चुके थे जिससे असम के लोगों को अपनी सांस्कृतिक पहचान को ख़तरा महसूस होने लगा था।
देश में असम इकलौता ऐसा राज्य है जहाँ एनआरसी की व्यवस्था लागू है। इसके मुताबिक़, जिस व्यक्ति का नाम सिटिजनशिप रजिस्टर में नहीं होता है उसे अवैध नागरिक माना जाता है। इसे 1951 की जनगणना के बाद तैयार किया गया था। इसमें असम के हर गाँव के हर घर में रहने वाले लोगों के नाम और संख्या दर्ज की गई है।
असम से अवैध आप्रवासियों की पहचान करने और उन्हें देश से बाहर निकालने की मांग को लेकर 1979 में अखिल असम छात्र संघ (आसू) द्वारा 6 वर्षीय आन्दोलन चलाया गया था। यह आन्दोलन 15 अगस्त, 1985 को असम समझौते पर हस्ताक्षर के बाद ख़त्म हुआ था। असम समझौते के मुताबिक़, 24 मार्च 1971 की रात तक असम में आने वाले लोगों को ही भारतीय नागरिक माना जाएगा।
जिस नागरिकता संशोधन विधेयक के जरिये एनआरसी से छूटे हिंदुओं को राहत देने की बात बार-बार संघ और बीजेपी के लोग कर रहे हैं, उसके तहत भारत के पड़ोसी देशों अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के हिंदू, पारसी, सिख, जैन और ईसाई प्रवासियों को भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान है। यहाँ सवाल यह खड़ा होता है कि आख़िर इसमें मुसलमानों को शामिल क्यों नहीं किया गया है।
कुल मिलाकर जिस काम के लिए यानी देश में अवैध आप्रवासियों की पहचान करने और उन्हें बाहर करने के लिए एनआरसी की प्रक्रिया शुरू की गई थी, वह काम पूरा होता नहीं दिखता। क्योंकि एनआरसी से बाहर रह गए हिंदू अगर 120 दिनों की मोहलत में ख़ुद को भारतीय नागरिक साबित नहीं कर पाये तो भी संघ और बीजेपी सरकार उन्हें देश से बाहर नहीं जाने देगी। ऐसे हालात में एनआरसी की पूरी प्रक्रिया ही बर्बाद हो चुकी है और यह मुद्दा सिर्फ़ राजनीतिक होकर रह गया है।