‘‘राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है
मखमल टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी छत्र चंवर के साथ
तोप छुड़ा कर ढोल बजा कर
जय-जय कौन कराता है
पूरब-पश्चिम से आते हैं
नंगे-बूचे नरकंकाल
सिंहासन पर बैठा
उनके तमगे कौन लगाता है
कौन कौन है वह जन-गण-मन
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज बजाता है’’
राष्ट्रगीत पर यह ‘राजद्रोहात्मक’ कविता रघुवीर सहाय ने दशकों पहले लिखी थी। एक डरा हुआ मन है जो बेमन उस जनगणमन, अधिनायक महाबली का बाजा रोज़ बजा रहा है। पिछले 6 सालों में यह कविता तक़रीबन रोज़ याद आती रही है। कविता को प्रासंगिक बनाने के लोभ पर अगर हम नियंत्रण न कर पाएँ तो हरचरना की जगह रहिमनवा या रहमनवा कर दे सकते हैं। मात्रा-भंग का भय भी नहीं। यह तय है कि कविता के मूल अर्थ की हानि न होगी और न वह विकृत होगा। भारत में आज डरे हुए मन का प्रतिनिधि नाम या प्रतीक हरचरना नहीं हो सकता।
यह कविता फिर याद आई जब एक भारतीय क्रिकेटर ने एक दूसरे भारतीय क्रिकेटर की तसवीर सार्वजनिक की, जिसमें वे दोनों हाथों से आँखें पोंछते हुए दिखलाई पड़ रहे हैं। वे अकेले नहीं हैं। तसवीर से साथ एक टिप्पणी थी: मैं चाहता हूँ कि एक ख़ास किस्म के लोग इस तसवीर को याद रखें। वे सिराज अहमद हैं और राष्ट्रगीत के मायने उनके लिए ये हैं।
सिराज-कैफ़ के लिए राष्ट्रगीत के मायने
जिस क्रिकेट खिलाड़ी ने यह लिखा उनका नाम मोहम्मद कैफ़ है। क्यों कैफ़ को यह यह तसवीर इस टिप्पणी के साथ सार्वजनिक करनी पड़ी, इसकी व्याख्या की ज़रूरत नहीं। कैफ़ कवि नहीं हैं, लेकिन यह वाक्य वे सिर्फ लोगों को सिराज अहमद नामक एक युवक के राष्ट्रगीत से रिश्ते की याद दिलाने के लिए नहीं लिख रहे थे।
खुद लिखनेवाले का नाम और जिसके बारे में लिखा गया, दोनों ही इस प्रसंग में महत्त्वपूर्ण हैं। जैसे हरचरना सिर्फ एक नाम नहीं है, हालाँकि वह है क्योंकि वह हरिचरण नहीं है, उसी तरह न तो कैफ़ सिर्फ एक व्यक्ति का सूचक है और न ही सिराज अहमद।
कैफ़ बताना चाह रहे हैं कि सिराज नामधारी लोगों का रिश्ता इस राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगीत से उतना ही भावनापूर्ण है जितना इस चित्र में मुखर है।
यह मुखरता रोज़ाना की नहीं होती, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह भावात्मक संबंध है ही नहीं। यह मात्र कैफ़ या सिराज जैसे राष्ट्रीय स्तर के व्यक्तियों के लिए लिए नहीं हरचरना की तरह के रहिमनवा के लिए भी सच है।
ऐसा नहीं कि सिर्फ मोहम्मद कैफ़ का ही ध्यान इस क्षण पर गया। अख़बारों और टीवी चैनलों ने इसे एक घटना की तरफ रिपोर्ट किया। “सिडनी क्रिकेट मैदान में राष्ट्रगीत के दौरान मोहम्मद सिराज भावुक हुए।” इंडियन एक्सप्रेस ने इस खबर में लिखा, “... तेज़ गेंदबाज को चेहरे पर ढुलकते आँसू पोंछते हुए देखा गया।” उसी खबर में सिराज के 3 साल पहले भी भावुक होने की सूचना है। 2017 में राजकोट में न्यूज़ीलैंड के साथ मैच के बाद राष्ट्रगीत के अंत में वे भावुक हो उठे थे। यह खबर तब भी छपी थी।
आँखें नम हो जाएँ तो क्या आश्चर्य?
क्रिकेट मैच हो या कोई भी खेल, उसका आयोजन प्रतिद्वंद्वी दलों के देशों के राष्ट्रगीत के साथ संपन्न होता है। दोनों दल जो जी-जान से एक दूसरे को हराने के ख़याल से खेले थे, इस क्षण सम्मानपूर्वक साथ-साथ खड़े होते हैं। यह क्षण एक तरह से उदात्त होता है ही, शामिल लोगों को वह उनकी अपनी सीमाओं का अहसास दिलाता है और यह भी कि वे कितने खुशनसीब हैं कि वे इन सीमाओं का अतिक्रमण कर पाए हैं। यह क्या हर किसी को नसीब होता है? यह भावुक क्षण है ही। आँखें नम हो जाएँ तो क्या आश्चर्य?
मोहम्मद सिराज का या सिराज अहमद का ही भावुक हो उठना ही खबर हो, ऐसा नहीं। पुरुष की आँखों में आँसू का झलक जाना ही बड़ी बात है। जब वह पोंछ कर और नुमाया कर दे तो उससे बड़ी खबर है। कुछ असंवेदनशील लोग कह सकते हैं कि सिराज को भावुक होने की आदत है या वह अपनी भावना पर काबू नहीं रख पाते।
ख़बर दरअसल होनी चाहिए थी कि मोहम्मद कैफ़ ने इस क्षण को नोट किया और चाहा कि उनके देशवासी भी इसे नोट करें। उन्हें ऐसा करना ज़रूरी जान पड़ा, यह ख़बर है। इसका आशय स्पष्ट है।
वे मानते हैं कि उनके देश में एक आबादी है जो सिराज जैसे व्यक्ति के राष्ट्र ध्वज या राष्ट्रगीत से इस जुड़ाव को समझती नहीं, उसे स्वाभाविक नहीं मानती..वे उस आबादी को संबोधित कर रहे हैं। वह कौन सी आबादी है?
किसे संबोधित कर रहे हैं कैफ़?
ज़ाहिर है, यह आबादी उनकी नहीं है जिनके नाम सिराज, अय्यूब, हाशिम, फरज़ाना या रेशमा जैसे होते हैं। मोहम्मद कैफ़ उस आबादी को संबोधित कर रहे हैं जिनमें अमित, अनुराग, कपिल, प्रवेश, रागिनी, स्मृति, निर्मला, नरेंद्र या अटल जैसे नाम होते हैं।
सिराज ने लेकिन कहा कि उस वक़्त उन्हें अपने पिता की याद आ गई थी जिन्हें अपने बेटे की यह उपलब्धि देखकर निश्चय ही गौरव होता, कि वह आखिरकार भारत का प्रतिनिधित्व कर रहा है। वे यह देख पाने के लिए अब इस दुनिया में नहीं हैं। तो सिराज के लिए यह नितांत निजी क्षण था, जिसे कैमरों ने निजी नहीं रहने दिया। क्या सिराज के इस स्पष्टीकरण के बाद मोहम्मद कैफ़ की टिप्पणी अपना अर्थ खो देती है? या उसके बाद वह और भी विचारणीय हो उठती है?
मुझे मोहम्मद कैफ़ के अनुरोध या चुनौती को पढ़कर लेकिन एक दूसरी तसवीर याद आ गई। वह फ़ैजान की तसवीर है। उत्तरपूर्वी दिल्ली की कर्दमपुरी का निवासी। वह क्रिकेट का शौक रखता था या नहीं, मालूम नहीं। लेकिन वह मुर्गी का कारोबार करता था। रघुवीर सहाय की कविता के हरचरना की बिरादरी का ही सदस्य। उसकी तसवीर भी छपी सिराज अहमद की तरह।
वह पुलिसवालों से घिरा हुआ, ज़मीन पर गिराया हुआ, चार और अपने नाम जैसे लोगों के साथ है। एनडीटीवी ने बताया कि वीडियो में 5 लोग, ज़ख़्मी हालत में ज़मीन पर पड़े हुए राष्ट्रगीत गाते देखे जा सकते हैं।
'अच्छी तरह गा'
इन लोगों को घेरे हुए जिरह-बख्तरबंद पुलिसवाले दीख रहे हैं। उनमें से दो पुलिसवाले इन गिरे हुए लोगों के चेहरे पर लाठी का निशाना साधे दीख रहे हैं। “अच्छी तरह गा”, एक मर्द आवाज़ सुनाई दे रही है। आगे सूचना दी जाती है कि फ़ैजान की पिटाई की चोट से मौत हो गई ।
जिस तरह कैफ़ ने राष्ट्र गीत और सिराज के रिश्ते को समझाने के लिए तसवीर लगाई उसी तरह एक और तसवीर फ़ैजान की पुलिस की लाठियाँ खाते राष्ट्र गीत की लगाई जा सकती है। ध्यान से देखेंगे तो उसके गालों पर भी आँसू बह रहे हैं। वे बह रहे हैं और वह ‘जन गण मन’ गा रहा है। वे आँसू बस उसके चेहरे के ज़ख्मों के खून से मिल गए हैं। क्या पुलिसवाले इस समय सावधान की मुद्रा में खड़े हैं?
क्या फ़ैजान का राष्ट्र गीत से रिश्ता इस तस्वीर से कुछ पता चलता है? वह जो उसके लिए मृत्यु गान बन गया?
फैज़ान सिर्फ नाम नहीं
जो भी ज़रा सजग हैं उन्हें मालूम है कि फैज़ान अब सिर्फ एक नाम नहीं है, प्रतीक या प्रतिनिधि है बहुत सारे लोगों का जो फैजान नहीं होंगे, महताब, अरशद या नासिरुद्दीन भी हो सकते हैं। वैसे ही जैसे इखलाक़ अब सिर्फ एक नाम नहीं, बिलकीस बानो (गुजरातवाली) और बिलकीस (शाहीन बाग़वाली ) सिर्फ नाम नहीं हैं।
जैसे जुनैद सिर्फ नाम नहीं है। जैसे पहलू ख़ान नाम भर नहीं है। वैसे ही जैसे न तो भागलपुर, न नेल्ली, न भिवंडी, न जबलपुर, न नरोदा पाटिया, न मुज़फ्फरनगर, न अटाली, न उत्तर पूर्वी दिल्ली सिर्फ स्थानवाचक नाम हैं। जैसे न 1949, न 1984, न 1992, न 2002 , न 2013 सिर्फ कालबोधक संख्याएँ हैं।
आम तौर पर प्रतीक का एक साझा अर्थ होता है। लेकिन क्या इन सारी नामवाचक, स्थानवाचक संज्ञाओं और कालसूचक संख्याओं का आशय या प्रतीकार्थ इस देश के सभी वासियों के लिए एक है?
हम एक जन नहीं हैं?
अगर एक के लिए ये सब उसके अपने वर्चस्व और दूसरे के लिए उसकी हीनता और उसके साथ की गई नाइंसाफी के बोधक हैं तो फिर कहना होगा कि हम एक जन नहीं हैं।
पिछले छह वर्षों में न तो राष्ट्र ध्वज और न राष्ट्रगीत के मायने इस देश में सबके लिए एक रह गए हैं। राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगीत एक पूरी आबादी को अपमानित करने के हथियार के तौर इस्तेमाल किया जा रहा है। ऐसे समय में उस बेइज्जत की जाती क़ौम से यह कहना कि इस झंडे को अपने माथे से लगा लो, बेमानी है, बल्कि ज़ख्म पर नमक छिड़कने जैसा है।
एक मुसलमान विद्वान् ने साल की पहली तारीख को राष्ट्र ध्वज की छवि के साथ यह प्रार्थना की, “...यह ध्वज हमारी एकता का प्रतीक है। अल्लाह हमें इस ध्वज में निहित संदेश पर अमल करने की तौफीक़ दे।”
किसी ने पूछा किस एकता की कामना की जा रही है? किससे एक होने की? क्या इस एकता की भावना में कमी अल्लाह के बन्दों में है जिनसे इल्तज़ा की जा रही है कि वह उन्हें यह योग्यता प्रदान करे?
इस ध्वज में निहित सन्देश पर अमल करने की शक्ति फ़ैजान खो बैठा था, या बिलकीस, या पहलू या अफ़राज़ुल या ज़ुनैद? क्या उनमें इस कमी की सजा के लिए उन्हें दण्डित किया गया था?
कासगंज के मुसलमान जब भी राष्ट्र ध्वज देखेंगे और राष्ट्रगीत को सुनेंगे तो क्या वे भूल पाएँगे कि इनकी आड़ में उनके ख़िलाफ़ हिंसा की गई थी? जब ईद के रोज़ भीड़ राष्ट्र ध्वज लेकर दिल्ली की जामा मसजिद पर चढ़ गई और जबरन उसे नमाजियों के हाथ में थमाने लगी तो क्या वह उनके साथ एकता कर रही थी?
किसके लिए प्रार्थना की जानी है कि वह ईश्वर हो या अल्लाह या गॉड, वह उन्हें यह समझ बख्शे कि वे एकता का अर्थ समझें? एकता का अर्थ किसी को हड़प लेना, उसपर कब्जा नहीं है। बराबरी की सतह पर उससे हाथ मिलाना है, उससे गले मिलना है।
अगर मुझ पर कब्जे के लिए आप राष्ट्र ध्वज लेकर आएँगे, मेरी गर्दन दबाकर राष्ट्र गीत गाने कहेंगे तो मुझे गाँधी का जवाब ही आपको देना होगा, “अगर मेरी कनपटी पर बंदूक रखकर कोई मुझे गीता पढ़ने कहेगा तो मैं इनकार कर दूँगा।”