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प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा भारत ही नहीं, पूरे दक्षिण एशिया के लिए अहम क्यों?

प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा भारत ही नहीं, पूरे दक्षिण एशिया के लिए अहम क्यों?

भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका जा रहे हैं, जहां वे संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करने के अलावा क्वैड की बैठक में शिरकत करेंगे और दोतरफा रिश्तों पर बात करेंगे। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका यात्रा पर ऐसे समय जा रहे हैं जब वाशिंगटन में एक ऐसा व्यक्ति राष्ट्रपति पद पर है, जिसकी कार्यशैली पूर्ववर्ती डोनल्ड ट्रंप से बिल्कुल अलग है। यह अहम इसलिए है कि ट्रंप से मोदी की निकटता थी, दोनों के काम करने का तरीका एक सा था।

यह अहम इसलिए भी है कि भारतीय प्रधानमंत्री ने प्रवासी भारतीयों के सम्मेलन में मंच से नारा दिया था, 'अबकी बार, ट्रंप सरकार'। ट्रंप उस समय राष्ट्रपति तो थे ही, रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार भी थे, लेकिन बाद में हुआ चुनाव हार गए।

जो बाइडन ने राष्ट्रपति बनने के बहुत दिनों के बाद नरेंद्र मोदी को फ़ोन किया था और उनसे औपचारिक बात की थी। इस मामले में भारत अमेरिकी राष्ट्रपति की वरीयता सूची में काफी नीचे था। इसे बाइडन की नाराज़गी या भारत के प्रति उनके ढंडेपन के रूप में देखा गया था। 

बाइडन-मोदी रिश्ते

यह निजी बात भारत-अमेरिका रिश्तों को प्रभावित करेगी, यह नहीं कहा जा सकता है, पर यह ज़रूर है कि भारत के साथ बाइडन प्रशासन की शुरुआत वह नहीं हुई, जो होनी चाहिए थी।

दोनों देशों के बीच बड़ी बातचीत तब हुई जब अमेरिकी रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन और विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने भारत का दौरा किया। भारत-अमेरिकी रिश्ते पटरी पर लौट आए और उनमें वह पुरानी उष्मा भी थी।

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चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग, भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन

क्वैड पर भारत से क्या चाहता है अमेरिका?

विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन की भारत यात्रा का मक़सद चार देशों के संगठन क्वैड पर बातचीत करना था। क्वैड में भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया हैं। इसका मक़सद क्षेत्रीय सहयोग है, लेकिन इसे चीन को रोकने की कोशिश के लिए बनाया गया राजनीतिक संगठन भी माना जाता है।

अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में इसे 'एशियाई नेटो' कहा जाने लगा है। बता दें कि नेटो यानी उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन में 30 देश सदस्य हैं और अमेरिका उसकी अगुआई करता है।

पर्यवेक्षकों का कहना है कि अमेरिका और जापान यह चाहते हैं कि क्वैड के जरिए चीन को उसके ही इलाक़े दक्षिण चीन सागर में घेरा जाए ताकि वह हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपने पैर न पसार सके। समझा जाता है कि ब्लिंकन यह चाहते हैं कि भारत इसमें निर्णायक भूमिका निभाए और चीन को रोके।

तालिबान

लॉयड ऑस्टिन की भारत यात्रा उस समय हुई थी जब तालिबान में अशरफ़ ग़नी की सरकार के कुछ ही दिन बचे थे, हालांकि उस समय किसी ने यह अनुमान नहीं लगाया था कि वह सरकार इतनी आसानी से गिर जाएगी और तालिबान आनन फानन में काबुल पर क़ब्जा कर लेगा।

हालांकि भारत या अमेरिका ने इस पर चुप्पी साधे रखी, पर पर्यवेक्षकों का कहना था कि अमेरिका चाहता था कि उसके सैनिकों के वहां से निकलने के बाद भारत अपने सैनिक अफ़ग़ानिस्तान भेजे। भारत ने सैनिक मदद का आश्वासन तो दिया था, पर सैनिकों को भेजने के पक्ष में नहीं था।

अमेरिका में मोदी के कार्यक्रम

प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा इस पृष्ठभूमि में हो रही है।

उनके वहाँ तीन तरह के कार्यक्रम हैं-क्वैड की बैठक, संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक और अमेरिका-भारत द्विपक्षीय रिश्तों पर बातचीत।

मोदी ने खुद ट्वीट कर कहा है कि वे क्वैड की बैठक में शिरक़त करेंगे जिसमें ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरीसन, जापानी प्रधानमंत्री सुगा और अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन भी होंगे।

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क्वैड शिखर सम्मेलन

इस बैठक का महत्व यह है कि इसमें चारों देशों के राष्ट्राध्यक्ष स्वयं मौजूद रहेंगे, उनके प्रतिनिधि नहीं। लिहाज़ा जो भी बातचीत होगी, वह उच्चतम स्तर पर होगी। इसे शिखर सम्मेलन कहा जा सकता है, जिसके दूरगामी नतीजे होंगे।

क्वैड की बैठक ऐसे समय हो रही है जब फ़्रांस के साथ ऑस्ट्रेलिया व अमेरिका के रिश्ते बेहद खराब हैं क्योंकि ऑस्ट्रेलिया ने फ्रांस को दिए गए पनडुब्बी सौदे को रद्द कर दिया है। 

इसकी वजह यह है कि ऑस्ट्रेलिया अमेरिका की मदद से परमाणु पनडब्बियाँ बनाएगा, लिहाज़ा उसे इन पनडुब्बियों की ज़रूरत ही नहीं होगी।

फ्रांस-ऑस्ट्रेलिया के बीच 12 पनडुब्बियों का वह सौदा 56 अरब डॉलर का था।

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भारत के साथ दिक्क़त यह है कि उसके रिश्ते फ्रांस से बहुत अच्छे हैं, उसने लड़ाकू विमान रफ़ाल फ्रांस से ही खरीदे हैं। दूसरी ओर ऑस्ट्रेलिया उसका बड़ा व्यापारिक साझेदार बन कर उभर रहा है और वह क्वैड में भी है।

भारतीय प्रधानमंत्री की कुशलता यह होगी कि वह किस तरह फ्रांस को नाराज़ किए बग़ैर ऑस्ट्रेलिया को भी खुश रखें और अमेरिका को भी।

भारत -अमेरिका रिश्ते

जहां तक भारत -अमेरिका दोतरफा रिश्तों की बात है, वह ट्रंप के जमाने से ही बहुत अच्छे नहीं हैं, भले ही ट्रंप से मोदी की दोस्ती की बात कही जा रही हो।

ट्रंप प्रशासन ने भारतीय उत्पादों पर आयात शुल्क, काउंटरवेलिंग ड्यूटी और एंटी- डंपिंग ड्यूटी लगा कर उसके कई उत्पादों को अमेरिका में बेचना लगभग नामुमकिन कर दिया था। ट्रंप प्रशासन को भारत से अधिक छूट चाहिए थी, वह भारत को ज़्यादा निर्यात करना चाहता था और उसे कई तरह की आर्थिक रियायतें चाहिए थीं।

फरवरी 2020 में ट्रंप ने भारत दौरे पर उनकी आवभगत और उन्हें हीरो बना कर पेश किए जाने के बावजूद कह दिया था कि भारत को और रियायतें देनी होगी वर्ना अमेरिका भी बदले की कार्रवाई कर सकता है।

ट्रंप का जोर इस पर था कि व्यापार भारत के पक्ष में है और ऐसा नहीं चल सकता है, भारत को अधिक अमेरिकी उत्पादों का आयात करना होगा।

संयुक्त राष्ट्र महासभा

संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक को भी मोदी संबोधित करेंगे। यह संबोधन मोटे तौर पर औपचारिक ही होता है, जिसका कोई ख़ास राजनीतिक महत्व नहीं होता है।

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पर इस बार तालिबान की ओर सबकी निगाहें टिकी हुई हैं। तालिबान ने कहा है कि वह अफ़ग़ानिस्तान में अपने प्रतिनिधि भेजेगा। पाकिस्तान उसे समर्थन इस आधार पर कर रहा है कि काबुल में तालिबान की सरकार चल रही है, उसे ही प्रतिनिधि मानना होगा। इसलामाबाद यह भूल रहा है कि तालिबान अफ़ग़ानिस्तान की चुनी हुई सरकार नहीं है।

नरेंद्र मोदी तालिबान पर क्या बोलते हैं, इस ओर पूरी दुनिया की नज़र होगी। इसकी वजह यह है कि भारत दक्षिण एशिया क्षेत्र का दूसरा सबसे बड़ा देश है, सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है, दूसरे नंबर की आर्थिक ताक़त है।

यह अहम इसलिए भी है कि दो पड़ोसी देश चीन और पाकिस्तान तालिबान सरकार के साथ हैं। उन्होंने अब तक भले ही मान्यता न दी हो, पर वे उसे मान्यता देंगे, यह लगभग तय है।

मोदी की अमेरिका यात्रा सामान्य दौरा नहीं है, उसके दूरगामी नतीजे अमेरिका और भारत के लिए ही नहीं, पूरे एशिया के लिए भी होंगे। यह भारतीय प्रधानमंत्री पर निर्भर है कि वे इस मामले को कैसे संभालते हैं। 

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