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नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहिए

नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहिए

नरेंद्र मोदी रविवार 9 जून को बैसाखियों के सहारे तीसरी बार भारत के प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने जा रहे हैं। बैसाखियां भी कई बार फिसलती हैं। भारतीय जनादेश को नजरन्दाज कर मोदी की यह ताजपोशी जनता की उम्मीदों पर कितना खरी उतरती है, वक्त इसका फैसला करेगा। स्तंभकार वंदिता मिश्रा बता रही हैं कि जो मोदी चुनाव में अपनी लाज (मोदी की गारंटी) नहीं बचा सके, विडंबना है कि वो प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं। पढ़िएः

राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन (NDA) के संसदीय दल ने शुक्रवार को बीजेपी नेता नरेंद्र मोदी को अपना नेता चुन लिया। अब 9 जून को नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद की शपथ लेंगे। अगर मोदी 9 जून को शपथ ले लेते हैं और आने वाले समय में लोकसभा में अपना बहुमत साबित करने में सफल रहते हैं तो प्रधानमंत्री के रूप में उनके तीसरे कार्यकाल की शुरुआत समझी जा सकती है। लगातार 2 कार्यकाल अपने दम पर सरकार बनाने वाली बीजेपी और उनके चेहरे नरेंद्र मोदी को इस बार, 2024 के चुनाव में, भारत की जनता ने पूर्ण बहुमत देने से इंकार कर दिया है। चुनाव परिणामों से 140 करोड़ भारतीयों और 100 करोड़ मतदाताओं के मिज़ाज को समझा जा सकता है। 

संयुक्त राज्य अमेरिका के दूसरे राष्ट्रपति जॉन एडम्स को लगता था कि “लोकतंत्र कभी ज्यादा देर तक नहीं टिक सकता, यह जल्द ही थककर खत्म हो जाता है और आत्महत्या कर लेता है”। पर भारत की जनता ने यह नहीं स्वीकार किया। भारत के लोकतंत्र को थकने से पहले ही थाम लिया गया।  आत्महत्या का तो सवाल ही नहीं उठता। 

जनादेश साफ और पवित्र तरीके से इस बात की घोषणा है कि भले ही नरेंद्र मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री बन जाएँ लेकिन उन्हे भारत को चलाने में लोकतान्त्रिक रवैया अपनाना ही होगा। इस जनादेश की ‘आकृति’ और विन्यास कुछ इस तरह अलिखित प्रस्ताव सामने रखता है कि नरेंद्र मोदी अब रातों-रात सिर्फ अपने मन से ‘विमुद्रीकरण’ जैसी विध्वंसक घोषणा नहीं कर सकेंगे, साथ ही CAA-NRC के नाम पर अब मुसलमानों को डराने की उनकी सरकार की योजनाओं पर जनता ने लगाम लगा दी है। जनता यह भी चाहती है कि ‘समान नागरिक संहिता’ जैसे मुद्दों पर सरकार कोई तानाशाही रवैया न अपनाए। 

फैजाबाद (अयोध्या) से आया जनादेश अपनी भाषा में बीजेपी और नरेंद्र मोदी को इस बात के लिए आदेश दे रहा है कि वो ‘राम’, ‘बीजेपी’ और ‘मोदी’ को एक ही टोकरी का हिस्सा समझने की भूल न करे।

राम की नगरी अयोध्या में जनता ने बन चुके राम मंदिर और सर्वव्याप्त राम के नाम पर वोट पाने की नरेंद्र मोदी की लालसा को न सिर्फ सिरे से खारिज कर दिया बल्कि राम से पहले संविधान को बचाने के लिए वोट करना जरूरी समझा। भारतीयों ने भारत में ‘हिन्दू हृदय सम्राट’ और अन्य किसी धर्म के सम्राट और शहंशाह बनने, बनाने की प्रवृत्ति पर भी रोक लगा दी, साफ साफ बता दिया कि ये सब नहीं चलेगा।

जनादेश ने 5 किलो राशन के लिए देश के लोकतंत्र कोखतरे में नहीं डालने का निर्णय कर लिया है। भारत का नागरिक, धर्म के आधार पर सामाजिक विभाजन और घटते समाजिक सौहार्द्र को नकारने का मन बना चुका है।


इस चुनाव में भारतीय जनता की परिपक्वता सामने आई है। 10 सालों तक बहुमत को हाथ में लिए नरेंद्र मोदी घूमते रहे और इस बार ‘मोदी की गारंटी’ के नाम पर वोट मांगा। खुद अपने पर ही रीझ-रीझ कर नरेंद्र मोदी ने खुद को कभी 370 पार कराया तो कभी 400 पार करा दिया। डेढ़ महीने चले पूरे चुनाव में नरेंद्र मोदी ने शायद ही कभी एनडीए गठबंधन का नाम भी लिया हो। वो लगातार कहते रहे कि ‘बड़े फैसले’ के लिए इस बार 400 पार चाहिए। जनता ने सभी बातों को ध्यान से सुना और पक्ष विपक्ष सभी की बातों को सुनकर वोट डाल दिया और नरेंद्र मोदी को आवश्यक बहुमत (272) से बहुत पीछे (240) धकेल कर छोड़ दिया। 

लोकतंत्र में जनता ऐसे ही अपनी बात कहती है। जनता ने कह दिया कि आप जिन ‘बड़े फैसलों’ का जिक्र कर रहे हैं वो उसे मंजूर नहीं है।


जनता ने मोदी की खुद की लोकसभा सीट से उनकी जीत का मार्जिन लगभग तीन गुना कम कर दिया। हालत यहाँ तक पहुँच गई थी कि अगर जरा भी ‘ऊंच-नीच’ हो जाती तो मोदी स्वयं अपनी सीट भी हार सकते थे। लेकिन जनता ने उन्हे उस राज्य, उत्तर प्रदेश, से बुरी तरह हराया जहां उनका तथाकथित सबसे ‘कद्दावर’ मुख्यमंत्री है, जो खुद भी दावा करते हैं कि प्रदेश में अब ‘कानून का राज’ चल रहा है। 

यूपी लोकसभा के गठन का ‘हृदय’ है और यहाँ से मोदी जी की राजनीति को हृदयाघात लग गया। अपनी इस नैतिक और राजनैतिक हार के बावजूद भी नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं, सरकार बनाना चाहते हैं।


 जिस गठबंधन के नाम पर उन्होंने कभी वोट नहीं मांगा, जिस गठबंधन के नेताओं को कभी बड़े पोस्टरों में जगह नहीं दी गई, कभी रैलियों में उनका जिक्र नहीं किया गया अचानक से उन नेताओं की याद मोदी जी को आने लगी, मोदी उन्हे गले लगाने लगे, उनके साथ हंसने लगे और ऐसा ‘दिखने’ लगा कि मोदी जी अपने गठबंधन के नेताओं के साथ कितने सहज हैं। जिस तेलगूदेशम पार्टी(TDP) के अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडू के बारे में मोदी ने यहाँ तक कह दिया कि- नायडू ने अपने नेता और ससुर NTR की पीठ में छुरा घोंपा था, वही चंद्रबाबू अचानक से मोदी के मित्र बन गए। 

अभी ज्यादा वक्त नहीं गुजरा जब नवंबर 2023 में नरेंद्र मोदी ने JDU सुप्रीमो नीतीश कुमार द्वारा विधान सभा में महिलाओं पर की गई एक टिप्पणी के जवाब में कहा था कि नीतीश कुमार को “…शर्म नहीं आती।....जो लोग महिलाओं के बारे में ऐसा सोचते हैं, क्या वे आपके लिए कुछ अच्छा कर सकते हैं?" और आज जब जनता ने नरेंद्र मोदी को सिरे से नकार दिया तब यही दोनो नेता मोदी जी को बड़े खास लगने लगे।

भले ही मोदी प्रधानमंत्री पद की शपथ ले लें और सरकार बना लें लेकिन मेरा स्पष्ट मानना यह है कि NDA की सरकार में मोदी को पीएम नहीं बनना चाहिए था क्योंकि लोगों ने स्पष्ट रूप से मोदी के खिलाफ वोट किया है। जनता की घोषणा ने यह सुनिश्चित किया है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी अकेले अपने दम पर सरकार न बना सके। पर इसके बाद भी वे जनता के खिलाफ़ जा रहे हैं जनता ने जो चाहा, घटनाएं उसके विपरीत घट रही हैं। शायद इसी को वर्तमान समय की ‘राजनीति’ कहते हैं।

मोदी को राहुल गाँधी से सीखना चाहिए, क्योंकि इसी देश में राहुल गाँधी जैसा एक ऐसा नेता भी है जो वर्षों पहले इस किस्म की अनैतिक ‘राजनीति’ से इंकार कर चुका है। 2019 के बाद जब काँग्रेस राहुल गाँधी के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव हार गई तो उन्होंने तत्काल अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। राहुल गाँधी की काफी आलोचना हुई लेकिन उन्होंने दोबारा अध्यक्ष पद स्वीकार ही नहीं किया। राहुल गाँधी ने पार्टी के लिए काम जारी रखा। बेहद खराब हालत में पहुँच चुकी पार्टी को फिर से खड़ा करने के लिए राहुल ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की।

पैदल यात्रा के माध्यम से पूरा देश ही नाप डाला। लोगों से मिले, उनकी समस्याओं को सुना, आलोचना सुनी, प्यार लिया और प्यार बाँटा। वे इस हद तक आगे बढ़ गए कि उनकी ‘मोहब्बत की दुकान’ पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हो गई। लोगों को लगने लगा मानो मोहनदास करमचंद गाँधी फिर से आ गए हों। दो बार पूरे देश को नापने के बाद अब चुनावों के दौरान जनता की बारी थी। जनता ने राहुल गाँधी के नाम पर जमकर मतदान किया। जहां मोदी के सांसद और नेता संविधान बदलने की बात करने में लगे थे, राहुल गाँधी हर रैली में संविधान बचाने के लिए लड़ रहे थे, संविधान साथ लेकर चल रहे थे। 

उत्तर प्रदेश में इंडिया गठबंधन को मिली भारी जीत राहुल गाँधी के चेहरे पर पड़े वोटों से मिली। दलितों को संभवतया अखिलेश यादव पर इतना भरोसा नही रहा हो लेकिन राहुल का चेहरा, अखिलेश का संगठन और टिकट वितरण में बरती गई सावधानी ने मोदी को बहुमत से कोसों दूर धकेल दिया। उत्तर प्रदेश के लोगों ने संविधान बचाने और लोकतंत्र को मजबूत करने जैसे मुद्दों पर वोट डालकर बीजेपी, मोदी और न जाने कितने चुनाव विशेषज्ञों को हैरत में डाल दिया।

भले ही लोग हैरत में पड़ गए हों लेकिन वास्तव में भारतीय वोटर ऐसा ही है वो देश और संविधान को बचाने के लिए समय समय पर अपनी ताकत सर्वसत्तावादी नेताओं को दिखाता रहा है। इस बार भारतीयों की यह ताकत देखने की बारी नरेंद्र मोदी की थी।

वही मोदी जिन्होंने पूरा चुनाव सांप्रदायिक लाइन पर लड़ा। मंदिर-मस्जिद से लेकर ‘मंगलसूत्र’ तक उन्होंने कुछ नहीं छोड़ा। हर बार उन्होंने यह कोशिश की, कि विपक्षी गठबंधन को मुस्लिम परस्त और स्वयं को हिन्दू हृदय सम्राट सिद्ध कर सकें। जिस ‘मछली’ को देश के तटीय प्रदेशों में रहने वाले करोड़ों लोग सालों भर खाते हैं, उसका व्यवसाय करते हैं वही मछली ही उनकी जीविका का प्रमुख स्रोत है, उसी मछली और नवरात्रि को धार्मिक आधार देते हुए उन्होंने सांप्रदायिक तनाव फैलाने की भरपूर कोशिश जारी रखी।

चुनाव के अंत तक आते आते मोदी विपक्ष को ‘मुजरा’ से जोड़ डालते हैं। चुनाव प्रचार के दौरान मोदी जी के पास अपने दस सालों के कार्यों का शायद ही कोई दस्तावेज रहा हो, शायद ही उन्होंने अपनी किसी योजना के बारे में रैलियों में बोला हो। पिछले दो सालों में ‘अमृत काल’ के नाम पर अरबों फूँक देने वाले मोदी को यह शब्द प्रचार के दौरान याद ही नहीं रहा। मोदी विकास को छोड़कर सांप्रदायिक आधार पर प्रचार करते रहे और भारत का चुनाव आयोग खामोशी से बैठा रहा। मुझे तो यह कहने में भी शर्म आ रही है कि भारत के लोकतंत्र का भविष्य निर्धारित करने वाली संस्था भारत निर्वाचन आयोग, अपने नियुक्तिकर्ता के खिलाफ कोई भी कठोर कदम उठाने में पूरी तरह असफल रहा।

निर्वाचन आयोग इंदौर, खजुराहो और सूरत में लोकतंत्र का बलात्कार होते देखता रहा और कुछ भी कार्रवाई नहीं की।


वाराणसी में श्याम रंगीला को नामांकन तक नहीं भरने दिया गया और आयोग खामोश बना रहा। पूरा देश चुनाव आयोग से जवाब मांग रहा था तब आयोग खामोश था और जब बोलने की बारी आई तो उसे लोकतंत्र की बदहाली के पहले शायरी याद आई। मुझे अफसोस है, लेकिन 2024 का लोकसभा चुनाव हमेशा यह बताता रहेगा कि इस चुनाव में केन्द्रीय निर्वाचन आयोग ऐतिहासिक रूप से अब तक अपने निम्नतम स्तर पर था। 

जनादेश से स्पष्ट है कि भारतीय मतदाता नरेंद्र मोदी की कार्यशैली से सहमत नहीं हैं।


पिछले दस सालों के दौरान तमाम ऐसी घटनाएं हुई हैं जहां मोदी ने ऐसे फैसले लिए जो लोकतंत्र को गहरी चोट पहुँचाने वाले थे। नरेंद्र मोदी के साथ सबसे दुर्भाग्यशाली बात यह हुई कि वो ‘काँग्रेस मुक्त’ और विपक्ष मुक्त भारत की कल्पना कर रहे थे। भारत जैसा इतना बड़ा लोकतंत्र जो बिना विपक्ष के दस कदम भी नहीं चल सकता नरेंद्र मोदी उसे हमेशा के लिए मिटा देने की बात कर रहे थे। वे अपने साथ सम्पूर्ण टीवी मीडिया और तमाम हिन्दी पट्टी के अखबारों को साथ लेकर चल रहे थे जो पिछले दस सालों में उनसे एक सवाल भी ऐसा नहीं पूछ सके जिसके बाद मोदी असहज हो जाएँ, जहां पर इतना बड़ा मीडिया उनकी इमेज बनाने चमकाने के लिए सदा तत्पर रहा, वहीं पर वही मीडिया सिर्फ राहुल गाँधी और अन्य विपक्ष से सवाल पूछता रहा और  उनकी इमेज भी खराब करता रहा। 

सारा कंट्रोल अपने हाथ में लेने के बावजूद मोदी अपनी लाज नहीं बचा सके।


इतने के बाद भी विपक्ष को लेकर उनके तौर-तरीकों में कोई बदलाव नहीं आया। आज भी नरेंद्र मोदी को लगता है कि विपक्ष ने लोकतंत्र पर लोगों के भरोसे को कम करने का काम किया है। मोदी का लोकतंत्र संबंधी दस्तावेज आज भी पूरा नहीं हो सका है संभवतया इस कार्यकाल में वो समझ सकें की लोकतंत्र किसे कहते हैं। विपक्ष अगर चुनाव आयोग पर सवाल उठाए, इस बात को लेकर सर्वोच्च न्यायालय चला जाए तो इससे लोकतंत्र खतरे में है? विपक्ष अगर EVM पर सवाल उठाए तो लोकतंत्र खतरे में है? विपक्ष यदि संस्थाओं के दुरुपयोग को जनता के सामने लाए तो यह लोकतंत्र के लिए खतरा है? 

मोदी को जानना चाहिए कि लोकतंत्र ताला लगा हुआ कोई सरकारी डिब्बा नहीं है जिसकी चाभी सरकार के पास होनी ही चाहिए।


लोकतंत्र तो एक खुला हुआ धरातल है जिसमें ‘थर्ड’ अंपायर की भूमिका हमेशा जनता के पास होती है। जिसमें सरकार से ज्यादा विपक्ष को आजादी होती है। सरकार से ज्यादा मजबूत विपक्ष होना चाहिए। लोकतंत्र में एक बेहद मजबूत विपक्ष अच्छे लोकतंत्र की पहचान है न कि एक मजबूत 56 इंच की सरकार। विपक्ष का काम ही है प्रधानमंत्री समेत पूरी सरकार की कमियाँ खोजना, उसे जनता के प्रति जवाबदेह बनाना, लोकतान्त्रिक बहस और प्रदर्शनों के माध्यम से जनता के सामने सरकार को बेनक़ाब करना, लोकतान्त्रिक संस्थाओं को सरकारी नियंत्रण से मुक्त रखने के लिए प्रयासरत रहना आदि। जिससे सरकार तानाशाही की ओर न जाए। 

लेकिन जब विपक्ष कमजोर होता है तो लोकतंत्र कमजोर पड़ जाता है और संस्थाएं सरकार के आगे हथियार डालने लग जाती हैं और देश तानाशाही की ओर जाने लगता है। ऐसे में अगर मोदी विपक्ष को कमजोर करना चाहते हैं, विपक्ष मुक्त भारत चाहते हैं तो समझ लेना चाहिए की वास्तव में वो क्या चाहते हैं।   

(वंदिता मिश्रा दिल्ली में वरिष्ठ पत्रकार हैं और सत्य हिन्दी के लिए हर हफ्ते यह कॉलम लिखती हैं)

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