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25 साल बाद भी मंजिल से दूर क्यों है नागा शांति प्रक्रिया?

25 साल बाद भी मंजिल से दूर क्यों है नागा शांति प्रक्रिया?

क्या पूर्वोत्तर के उग्रवादग्रस्त राज्य नागालैंड में बीते 25 वर्षों से चल रही शांति प्रक्रिया अपनी मंजिल तक पहुंचेगी? लाख टके के इस सवाल का जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं है। 

केंद्र ने वर्ष 1997 में सबसे बड़े उग्रवादी संगठन नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल आफ नागालैंड (एनएससीएन) के इसाक-मुइवा गुटऔर कुछ अन्य नागा संगठनों के साथ यह प्रक्रिया शुरू की थी। लेकिन नौ दिन चले अढाई कोस की तर्ज पर अब तक यह किसी मुकाम तक नहीं पहुंच सकी है। शुरुआती दौर में पूर्वोत्तर में शांति बहाली के माडल के तौर पर देखी जाने वाली इस प्रक्रिया का फिलहाल कोई ओर-छोर ही नजर नहीं आ रहा है। एनएससीएन के इसाज मुइवा गुट ने अब करीब तीन साल से ठप पड़ी इस बातचीत को एक बार फिर शुरू करने का संकेत दिया है। लेकिन मूल सवाल जस का तस है कि क्या इस बातचीत से  समझौते की राह खुलेगी?

करीब सात साल पहले जिस फ्रेमवर्क समझौते को ऐतिहासिक बताते हुए केंद्र सरकार अपनी पीठ थपथपा रही थी, वह भी समस्या के समाधान की राह नहीं खोल सका है। कभी अलग झंडे तो कभी अलग संविधान की मांग ने इस शांति प्रक्रिया की राह में लगातार रोड़े अटकाए हैं। एनएससीएन (आई-एम) शुरू से ही असम, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश के नागा-बहुल इलाकों को मिला कर नागालिम यानी ग्रेटर नागालैंड के गठन की मांग करता रहा है। इलाके के यह तीनों राज्य केंद्र से कोई भी समझौता करने से पहले बाकी राज्यों की संप्रभुता बरकरार रखने की अपील करते रहे हैं। अक्टूबर 2019 को शांति समझौते की समयसीमा के रूप में निर्धारित किया गया था, लेकिन उसके बाद से अब तक इस पर गतिरोध जारी है। 

हाल में एनएससीएन (आईएम) और दूसरे नागा समूहों ने नागा राष्ट्रीय राजनीतिक समूह (एनएनपीजी) के बैनर तले एक संयुक्त बयान जारी किया था। उसमें “अविश्वास को दूर करने“ का संकल्प लिया गया और कहा गया कि वे समझौते की दिशा में “आगे बढ़ने के लिए बातचीत को लेकर कृतसंकल्प“ हैं। उससे पहले राज्य के विधायकों और मंत्रियों के एक समूह ने एनएससीएन (आईएम) के प्रतिनिधियों के साथ बैठक की थी।

नागा राजनीतिक मुद्दे के समाधान के लिए वर्ष 1997 से ही जारी इस प्रक्रिया में सरकार नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल ऑफ नागालैंड (इसाक-मुइवा गुट) और सात अन्य नागा संगठनों के साथ बातचीत कर रही है।

नागालैंड में तो देश की आजादी के बाद से ही आजादी की मांग उठने लगी थी। वहां शांति बहाली के लिए वर्ष 1949, 1960 और 1975 में तीन समझौते हुए थे। लेकिन अंतिम समझौते के पांच साल बाद यानी वर्ष 1980 में राज्य में नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल ऑफ नागालैंड (एनएससीएन) नामक उग्रवादी संगठन का गठन हुआ जो बीते चार दशकों से पूर्वोत्तर में उग्रवाद का पर्याय बना हुआ है। वर्ष 1997 में एनएससीएन के मुइवा गुट ने एकतरफा युद्धविराम के जरिए शांति प्रक्रिया शुरू करने पर सहमति जताई थी। वर्ष 2000 में संगठन के खापलांग गुट ने भी युद्ध विराम का ऐलान कर दिया। लेकिन वह बाद में इससे अलग हो गया।

नागालैंड को वर्ष 1963 में राज्य का दर्जा मिला और अगले साल यानी 1964 में यहां पहली बार चुनाव कराए गए। लेकिन अलग राज्य बनने के बावजूद नागालैंड में उग्रवादी गतिविधियों पर अंकुश नहीं लगाया जा सका। राज्य के सबसे बड़े उग्रवादी संगठन एनएससीएन (आई-एम) और केंद्र सरकार ने वर्ष 1997 में युद्ध विराम समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। वर्ष 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फ्रेमवर्क एग्रीमेंट यानी समझौते के प्रारूप पर हस्ताक्षर करने के बाद शांति प्रक्रिया के मंजिल तक पहुंचने का दावा जरूर किया गया था। लेकिन वह भी थोथा ही साबित हुआ था।

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