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न खाऊंगा, न खाने दूंगा घोषित करके खाओ तो और उत्तम!

न खाऊंगा, न खाने दूंगा घोषित करके खाओ तो और उत्तम!

हराम के खाने की कोई बाकायदा दुकान नहीं होती, कोई साइन बोर्ड नहीं होता, कोई रेट कार्ड नहीं होता, दिखाने लायक कोई पदार्थ नहीं होता। जो भी होता है, निराकार होता है। पढ़िए, विष्णु नागर का व्यंग्य...।

यहाँ हराम की खानेवाले हर हालत में हराम की ही खाते हैं। मेहनत की कोई गलती से भी उन्हें खिला दे तो बेचारों को दस्त लग जाते हैं। उन्हें किसी दिन खाने को न मिले तो वे भूखे रह जाएंगे मगर खाएंगे तो सिर्फ और केवल हराम की खाएंगे। वही इनको रुचता भी है और पचता भी है, चाहे उसमें कंकर- पत्थर मिले हों। अपने लिए बनाये उनके सारे नियम, सारे सिद्धांत जीवन में कभी न कभी टूट सकते हैं मगर यह सिद्धांत अटल है। इस मामले में उनका 'ईमान' कोई डिगा नहीं सकता। दुनिया की कोई ताक़त उन्हें उनके इस पथ से विचलित नहीं कर सकती। मर जाएंगे मगर हराम की खाकर रहेंगे, खाने की यह आन- बान- शान कभी मिटने नहीं देंगे।

नियमों में कड़ाई सरकार इन्हीं के उत्थान के लिए करती है। नियम और भी अधिक कड़े इनके लिए ही किए जाते हैं ताकि ये जितना खा रहे हैं, उससे अधिक खाने की क्षमता अर्जित कर सकें। और एक दिन पूरा देश, पूरा भूमंडल खाकर दिखा सकें। गर्व से अपनी विजय पताका चहुंओर फहरा सकें। विश्व में आपका और हमारा नाम कर सकें।

नियम कड़े होने पर अफसर से क्लर्क तक सब नियम की अनदेखी करने की खातिर खाते हैं और क्योंकि नियम की अनदेखी करना रिस्की होता है, इसलिए वे रिस्क उठाने के लिए खाते हैं। ये खाएंगे तो ऐसा तो है नहीं कि इनके जो ऊपर हैं, वे भोलेभंडारी हैं, वे नहीं खाएंगे, इन्हें खाता देख वे तृप्त हो जाएंगे, खुद भूखे रह जाएंगे। वे खाएंगे और इनसे दस गुना, पचास गुना, सौ गुना खाएंगे। खाने का सिलसिला अगर दिल्ली से शुरू हुआ है तो दिल्ली जाकर ही खत्म होगा। भोपाल या लखनऊ से शुरू हुआ है तो भी दिल्ली पहुंचकर ही विश्रांति लेगा।

नियम कड़े करनेवाले सीधे-सादे, भोले-भाले मनुष्य नहीं होते। जिन्हें नियम कड़े करने से फायदा होता है, वे नियम कड़े करवाने की मांग लेकर इनके पास आते हैं। साथ में वे मोटा पैसा लेकर आते हैं और इससे सौ गुना-हजार गुना मोटा कमाने का भरोसा लेकर वापस जाते हैं। शास्त्रों में भी इसे उचित बताया गया है कि खाओ और खाने दो। न खाऊंगा, न खाने दूंगा की सार्वजनिक घोषणा करके खाओ और खाने दो तो और भी उत्तम! इससे खाने का स्वाद बहुत बढ़ जाता है। जिस दफ्तर के बाहर लिखा हो, यहां रिश्वत ली- दी नहीं जाती, यह भ्रष्टाचार मुक्त ऑफिस है, वहां आप निश्चित समझो कि यहां इस बोर्ड के ठीक नीचे या पीछे भी रिश्वत ली जा सकती है। रिश्वत न लेने की घोषणा दरअसल ऊँचे रेट पर रिश्वत खाने की उद्घोषणा है।

नियम में ढील भी इन्हीं के लाभार्थ दी जाती है। नियम जितने ढीले करते जाओ, उतना अधिक हराम का खाना और पचाना इनके लिए आसान हो जाता है। कमाल के लोग हैं, ये खाते हैं मगर कभी डकार नहीं लेते! हराम की कमाई में शायद डकार लेना और पादना मना होता है। इस कमाई से इनका हाजमा बेहद दुरुस्त रहता है। बार-बार खाने की भूख लगती है और बार-बार खाने को मिलता है। ऊपर से हाजमोला का खर्च भी बचता है। यह बचत भी कमाई में जुड़ जाती है। वे और अधिक समृद्ध होकर और अधिक प्रसन्नता पाते हैं।

कुछ फाइल चलाने के लिए खाते हैं तो कुछ फाइल न चलाने के लिए खाते हैं। कुछ फाइल को अटकाने, भटकाने, खो जाने और अनुकूल स्थिति पाकर उसे फिर से खोज लेने के लिए खाते हैं। अनुभवी खाने वाले, जितना खाते जाते हैं, उनकी भूख उसी अनुपात में बढ़ती जाती है।

खाने के मामले में मथुरा के पंडे बदनाम हैं लेकिन वे जो खाते हैं, उसका बड़ा अंश भोजन के रूप में होता है और जो खाते हैं, यजमान के इस विश्वास के आधार पर खाते हैं कि यह उनके पेट के माध्यम से पूर्वजों तक जाएगा। वे सबके सामने खाते हैं और यजमान की इच्छा और अनुरोध पर खाते हैं।

हराम के खाने की कोई बाकायदा दुकान नहीं होती, कोई साइन बोर्ड नहीं होता, कोई रेट कार्ड नहीं होता, दिखाने लायक कोई पदार्थ नहीं होता। जो भी होता है, निराकार होता है। केवल जो लिया -दिया जाता है, वह साकार होता है। खाने के धंधे का एक फायदा यह है कि इसमें कोई रसीद लेनी- देनी नहीं पड़ती, जीएसटी नहीं चुकाना पड़ता, इनकम टैक्स नहीं भरना पड़ता। जितना मिला है, पूरा का पूरा अपना होता है। खाते हुए थोड़ा सा डर लगे तो हनुमान चालीसा का पाठ किया जा सकता है। फिर भी लाभ न मिले, हनुमान जी का दिल न पिघले तो खाने की कमाई का शतांश हनुमानेतर प्रभुओं को देकर मामला सुलटाया जा सकता है। जो खाता नहीं, उसका मामला कभी सुलट नहीं पाता क्योंकि सुलटाने के लिए उसके पास हराम की कमाई नहीं होती। इस तंत्र में जो नहीं खाते, वे सबसे पहले और सबसे अधिक मारे जाते हैं। जो खाते हैं, वे फंस कर भी बच जाते हैं और ऊपर ही ऊपर चढ़ते चले जाते हैं। खाने की प्राचीन संस्कृति का पोषण करते हैं। देश का मान, विदेश में बढ़ाते हैं।

सिद्धांतनिष्ठ और विवेकशील खाऊ कभी अकेले नहीं खाते। वे खाऊओं की पूरी जमात के साथ खाते हैं, परस्पर सहमति से अपना-अपना  हिस्सा खाते हैं। वे अकेले नहीं खाते, सामूहिक भोज में आस्था रखते हैं। वे आश्वस्त होकर, निर्भय होकर मौज से, स्वाद लेकर खाते हैं। खाने का श्रीगणेश वे तब करते हैं जब सबके सामने थाली में यथायोग्य व्यंजन परोस दिए गए हों। फिर वे प्रेम से तृप्त होकर खाते हैं। जो लालच करता है, सबके व्यंजन खुद खा जाता है, बांट कर नहीं खाता, वह फंस जाता है और जल्दी ही 'वीरगति' को प्राप्त होता है। 'वीरगति' को वे और भी जल्दी प्राप्त होते हैं, जो खाने की जगह बैठे हैं, फिर भी नहीं खाते। भरी हुई थाली वापस कर देते हैं। वे ईश्वर से डरते हैं, जो कि कहीं है नहीं। इस तरह वे खाने की मजबूत श्रृंखला में बाधक बनने का गुनाह करते हैं। बायपास से भी ट्रैफिक नहीं जाने देते। वे जीते जी नरक पाते हैं मगर नरक की इस आग में इस उम्मीद में झुलसते- जलते हैं कि कोई बात नहीं मरने पर तो उन्हें स्वर्ग मिलेगा। वे भोलेपन का दंड भुगतते हैं। ऊपर उनसे कहा जाता है कि तुम्हें खाने की जगह इसलिए बैठाया था कि तुम खुद भी भूखे रहो और दूसरों के लिए भी संकट बनो? तुम पापी हो। रौरव नरक के योग्य उम्मीदवार हो! ले जाओ इन्हें। ऐसे आदमी को देखकर भी पाप लगता है।

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