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क्या मुसलमान भारत में आबादी बढ़ा रहे हैं...हर चुनाव का यक्ष प्रश्न

क्या मुसलमान भारत में आबादी बढ़ा रहे हैं...हर चुनाव का यक्ष प्रश्न

भारत के हर चुनाव में भाजपा और आरएसएस मुसलमानों की बढ़ती आबादी का मुद्दा ले आते हैं। इस बार भी आया। प्रधानमंत्री मोदी ने मुस्लिमों को टारगेट करते हुए उन्हें ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले जैसे शब्दों से नवाजा। हालांकि उन्होंने और भी कई बातें मुसलमानों को लेकर कही थीं लेकिन यहां हम सिर्फ मुस्लिम आबादी के बढ़ने को लेकर बात करेंगे। मोदी के हमले के बाद अचानक ही एक सरकारी रिपोर्ट में बताया गया कि हिन्दुओं की आबादी कम हो रही है। ऐसे में यह सवाल वाजिब है कि क्या मुसलमान भारत में आबादी बढ़ा रहे हैं।

आपने यह जरूर एक से ज्यादा बार सुना होगा या पढ़ा होगा कि मुसलमान जान-बूझकर आबादी बढ़ा रहे हैं ताकि वे हिंदुओं से आगे निकल जाएँ? आरएसए की शाखाओं में इसके बारे में बाकायदा ज्ञान दिया जाता है। वाट्सऐप यूनिवर्सिटी में बहुसंख्यकों के ग्रुप में ऐसे मैसेज दिन में एक बार आ ही जाता है। कई बार संघ प्रमुख और भाजपा सांसद साक्षी महाराज जैसे लोग हिंदुओं को ज्यादा बच्चे पैदा करने की सलाह दे डालते हैं? 2016 में तत्कालीन गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू से लेकर 2024 में पीएम मोदी की बांसवाड़ा रैली तक कुछ नहीं बदला, न बयान न विचार। 

2024 के चुनाव के दौरान ही प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (ईएसी-पीएम) का एक वर्किंग पेपर भी सामने आ गया। जिसने आबादी के सत्यापित आंकड़ों की बजाय अपने आंकड़ों के मुताबिक बताया कि भारत में 1950 और 2015 के बीच हिंदू आबादी में 7.82 फीसदी की कमी आई, जबकि मुसलमानों की आबादी में हिस्सेदारी में 43.15 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। इस रिपोर्ट का आना था कि भाजपा ने कांग्रेस पर फौरन आरोप लगा दिया कि उसकी मुस्लिम तुष्टिकरण नीति की वजह से मुस्लिम आबादी बढ़ रही है। 

पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया ईएसी-पीएम की रिपोर्ट से सहमत नहीं है, बल्कि चिंतित है। पॉपुलेशन फाउंडेशन ने कहा कि मुस्लिम आबादी के आंकड़ों को लेकर भ्रामक सूचनाएं फैलाई जा रही है। स्टडी का गलत अर्थ निकाला जा रहा है। उसने कहा कि 65 वर्षों के अंतराल में बहुसंख्यक और अल्पसंख्यकों की हिस्सेदारी को किसी भी समुदाय को भड़काने या भेदभाव के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। 

भारत सरकार का ही जनसंख्या का आंकड़ों बता रहा है कि पिछले तीन दशकों में मुसलमानों की वृद्धि दर में लगातार गिरावट आ रही है। यानी मुस्लिम कम बच्चे पैदा कर रहे हैं। खासतौर पर मुसलमानों की वृद्धि दर 1981-1991 में 32.9 प्रतिशत से घटकर 2001-2011 में 24.6 फीसदी हो गई। पॉपुलेशन फाउंडेशन का कहना है कि "यह गिरावट हिंदुओं के मुकाबले ज्यादा स्पष्ट है, जिनकी वृद्धि दर इसी अवधि में 22.7 से गिरकर 16.8 प्रतिशत हो गई।"

पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया का कहना है कि संगठन ने कहा कि भारत में जनगणना के आंकड़े 1951 से 2011 तक मौजूद हैं। पीएम के वर्किंग ग्रुप की स्टडी के आंकड़  इससे काफी मिलते-जुलते हैं। यानी पीएम वर्किंग ग्रुप कोई नया आंकड़ा लेकर नहीं आया है। मुसलमानों की आबादी पर जितने अध्ययन हो रहे हैं, वो जनगणना के सरकारी आंकड़ों पर ही निर्भर हैं। ऐसे में यह संकेत देना या कहना कि मुसलमानों की आबादी बढ़ रही, भ्रामक और हास्यास्पद है।

सरकार खुद कह रही है कि सभी समुदायों में कुल प्रजनन दर (टीएफआर) घट रही है। सरकार के आंकड़ों के मुताबिक 2005-06 से 2019-21 तक टीएफआर में सबसे अधिक कमी मुसलमानों में देखी गई, जिसमें 1 फीसदी की गिरावट आई, इसके बाद हिंदुओं में उसी अंतराल में 0.7 प्रतिशत की गिरावट देखी गई। इन्हीं आकंड़ों से साफ है कि मुसलमानों की आबादी बढ़ने की बजाय हिन्दुओं के मुकाबले घट रही है। यानी हिन्दुओं की आबादी में गिरावट मुसलमानों से कम है। इससे यह भी पता चलता है कि विभिन्न धार्मिक समुदायों में प्रजनन दर नीचे आ रही है।

 

पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की कार्यकारी निदेशक पूनम मुतरेजा का कहना है कि "मुस्लिम आबादी में बढ़ोतरी को बताना डेटा को गलत ढंग से पेश करना है। मीडिया इस मामले में सेलेक्टिव (चयनात्मक) होकर गलत बयानी कर रहा है। जिसने एक व्यापक आबादी के रुझानों को नजरअंदाज कर दिया। प्रजनन दर का शिक्षा और आमदनी के लेवल से गहरा संबंध है, न कि धर्म से।"

उन्होंने कहा- "शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और सामाजिक-आर्थिक विकास के मामले में बेहतर राज्य, जैसे केरल और तमिलनाडु, सभी धार्मिक समूहों में प्रजनन दर कम है। उदाहरण के लिए, केरल की मुस्लिम महिलाओं के बीच प्रजनन दर बिहार में हिंदू महिलाओं के मुकाबले कम है। इससे साफ पता चलता है कि प्रजनन क्षमता में गिरावट धार्मिक होने के बजाय विकास से प्रभावित है।"

मुसलिमों के ख़िलाफ़ दिए जाने वाले ऐसे सारे बयानों को प्यू रिसर्च सेंटर के शोध ने ध्वस्त किया है। इस शोध से यह भी पता चलता है कि दरअसल, ऐसे तर्क नफ़रत फैलाने के लिए गढ़े जाते रहे हैं! प्यू रिसर्च सेंटर के शोध में कहा गया है कि विभाजन के बाद से भारत की आबादी की धार्मिक संरचना काफ़ी हद तक स्थिर रही है। हिंदू और मुसलिम की प्रजनन दर में न केवल एक बड़ी गिरावट आई है, बल्कि यह अब क़रीब-क़रीब बराबरी पर आती दिख रही है। इसके लिए प्यू रिसर्च सेंटर ने भारत की जनगणना और राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण यानी एनएफ़एचएस के आँकड़ों का सहारा लिया था।

शोध में जिस प्रजनन दर यानी टीएफ़आर का ज़िक्र किया गया है उसका मतलब है- देश का हर जोड़ा अपनी ज़िंदगी में औसत रूप से कितने बच्चे पैदा करता है। किसी देश में सामान्य तौर पर टीएफ़आर 2.1 रहे तो उस देश की आबादी स्थिर रहती है। इसका मतलब है कि इससे आबादी न तो बढ़ती है और न ही घटती है। फ़िलहाल भारत में टीएफ़आर 2.2 है। इसमें मुसलिमों की प्रजनन दर 2.6 और हिंदुओं की 2.1 है। यानी इन दोनों की प्रजनन दर में अब ज़्यादा अंतर नहीं रह गया है। लेकिन खास तौर पर ग़ौर करने वाली बात यह है कि हाल के दशक में मुसलिम की प्रजनन दर काफ़ी ज़्यादा कम हुई है। 

1992 में जहाँ मुसलिम प्रजनन दर 4.4 थी वह 2015 की रिपोर्ट के अनुसार 2.6 रह गई है। जबकि हिंदुओं की प्रजनन दर इस दौरान 3.3 से घटकर 2.1 रह गई है। आज़ादी के बाद भारत की प्रजनन दर काफ़ी ज़्यादा 5.9 थी।

ऐसी रिपोर्टों के बावजूद जनसंख्या के दबाव के लिए दक्षिणपंथी सिर्फ़ मुसलमान आबादी को समस्या मानते हैं। वक़्त और ज़रूरत के हिसाब से ऐसे लोग मुसलमानों की बढ़ती आबादी पर चिंता जताते हैं। कभी इसकी वजह मुसलमान औरतों का दस बच्चे पैदा करना बताया जाता है तो कभी बांग्लादेशी घुसपैठ और धर्मांतरण को। भाजपा का वादा था कि वो दो बच्चों की नीति लागू करेगी, लेकिन उसने ऐसा किया नहीं। तमाम मुस्लिम संगठनों ने भाजपा की घोषणा का स्वागत किया था। लेकिन क्या ऐसा क़ानून लाने से पहले मोदी सरकार और आरएसएश प्यू रिसर्च के शोध को देखना चाहेंगे? क्या भाजपा बहुसंख्यक हिन्दुओं को 20 फीसदी मुसलमानों से डराना बंद करेगी?

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