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मुसलिम वोटः एक अनार, सौ बीमार

मुसलिम वोटः एक अनार, सौ बीमार

उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजों के बाद यह कहा जा रहा है कि मुसलमानों का वोट बंट गया। इस तरह की शिकायत दूसरे धर्मों-जातियों के वोटरों को लेकर क्यों नहीं की जाती?

मूल विषय पर आने से पहले एक सवाल है। हम कहते हैं कि चुनाव में जाति-धर्म की बात नहीं होनी चाहिए। राजनेता तो यह करते ही हैं, थिंक टैंक समझे जाने वाले संस्थान इसके लिए मसाला तैयार करते हैं। किस जाति-धर्म के कितने प्रतिशत वोटर ने किस पार्टी को वोट दिया, इसके आंकड़े पेश करते हैं। क्या यह लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप है?

अब बात मुसलिम वोटों की जिसकी बहस बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने उत्तर प्रदेश में एक सीट पर सिमट जाने के बाद अपने बयान से की है। उनके मुताबिक जातिवादी मीडिया ने साजिश और प्रायोजित सर्वे और निगेटिव प्रचार के माध्यम से खासकर मुसलिम समाज के लोगों को गुमराह किया। साथ ही, काफी हद तक यह दुष्प्रचार करने में कामयाब हुआ कि बीएसपी बीजेपी की बी टीम है और समाजवादी पार्टी के मुकाबले कम मजबूती से चुनाव लड़ रही है। मायावती के मुताबिक इसी कारण बीजेपी के अति-आक्रामक मुसलिम विरोधी प्रचार से मुसलिम समाज ने एकतरफा तौर पर सपा को ही अपना वोट दे दिया तथा इससे फिर बाकी बीजेपी-विरोधी हिन्दू लोग भी बसपा में नहीं आये। 

सपा और एमआईम का तर्क

दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी के समर्थकों का कहना है कि लगभग 25 सीटों पर असदउद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम को मुसलमानों के वोट नहीं मिलते तो आज उत्तर प्रदेश की स्थिति और होती। दिलचस्प यह है कि एआईएमआईएम को ’नोटा’ से भी कम

वोट मिले।

उनका आरोप यह भी है कि एमआईएम को मिले वोटों से अधिक प्रभाव बीजेपी के पक्ष में ध्रुवीकरण से होता है जिसकी वजह ओवैसी के भाषण हैं। ध्रुवीकरण में ऐसा क्यों और कैसे होता है कि बीजेपी के वोटर तो एकजुट हो जाते हैं लेकिन ओवैसी के पक्ष वाले वोटर उनके पक्ष में नहीं आते।

इधर, एआईएमआईएम के नेता भी मुसलमानों को कोसते हैं कि उन्होंने सपा को वोट न देकर उनकी पार्टी को वोट दिया होता तो हालात बेहतर होते। ओवैसी के एक बड़े समर्थक ने उत्तर प्रदेश के मुसलमानों को संबोधित करते हुए यह शेर लिखा-

न खुदा ही मिला, न विसाल ए सनम

न इधर के रहे, न उधर के रहे।

मतलब एक अनार है, सौ बीमार हैं- बीजेपी को छोड़कर सबको यही लगता है कि मुसलमानों का शत प्रतिशत वोट उन्हें मिल जाता तो उनका प्रदर्शन बेहतर होता। हद तो यह है कि जिन्हें सबसे अधिक वोट मिले उन्हें भी इस बात के इजहार करते नहीं देखा गया। 

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दिलचस्प बात यह है कि हर जाति के लोगों का अपना नेता और अपनी पार्टी है। इसके बावजूद शिकायत और सलाह सिर्फ मुसमलान वोटरों से होना अजीब बात है। मुख्यमंत्री खुल्लम-खुल्ला कहते रहे कि यह 80-20 का चुनाव है तो मायावती ने इसकी शिकायत नहीं की कि उन्हें 80 में कितने प्रतिशत का वोट मिला, और यह उन 80 प्रतिशत के बाकी हिस्से की बहुत बड़ी गलती है। 

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वैसे, बसपा से समाजवादी पार्टी के लिए उलाहना सुनने के बावजूद अखिलेश ने मुसलमानों के वोट के बारे में कोई चर्चा नहीं की है। राजनीतिक रूप से अल्पसंख्यकों के समर्थन के लिए दिया जाना वाला परंपरागत वक्तव्य भी उन्होंने नहीं दिया। 

सवाल यह है कि किस जाति-धर्म के लोगों ने किसे वोट दिया, इसका एक आंकड़ा तो सामने लाया जा चुका है मगर शिकायत सिर्फ मुसलमान वोटरों से क्यों है। क्या मायावती खुलकर यह कह सकती हैं कि हिन्दू वोटरों ने या ब्राह्मण-राजपूत-यादव वोटरों ने बसपा को वोट न देकर गलती की है?

मायावती का यह भी कहना है कि मुसलिम समाज का वोट यदि दलित समाज के साथ मिल जाता, तो बंगाल की तरह उत्तर प्रदेश में भी बीजेपी को धराशायी करने का चमत्कारिक परिणाम दिया जा सकता था।

मगर क्या मायावती ने ममता की तरह सीएए-एनआरसी के खिलाफ मुसलिम समाज के लिए कभी अपनी आवाज बुलन्द की? उनका बयान में कहा गया है कि ’ये लोग’ हमेशा इस तथ्य को ऐन वक्त पर भूल जाते हैं कि केवल बसपा ही यूपी में बीजेपी को सत्ता में अपने से रोक सकती है, सपा नहीं। ’इनकी’ इसी गलत सोच का ही यह नतीजा है कि बीजेपी फिर से सत्ता में आ गयी। शायद यहां भी ’ये लोग’ और ’इनकी’ से मतलब मुसलिम समुदाय है। क्या मायावती ने बीजेपी को हराने में खुद कभी दिलचस्पी ली या इसके उलट हमेशा उसे मजबूत किया?

मायावती कहती हैं कि मुसलिम समाज बीएसपी के साथ तो लगा रहा किन्तु इनका पूरा वोट सपा की तरफ शिफ्ट हो गया और इनके इस गलत फैसले से बसपा को बड़ा भारी नुकसान यह हुआ कि बीएसपी समर्थक सवर्ण व ओबीसी समाज की विभिन्न जातियों में भी यह

डर फैल गया कि सपा के सत्ता में आने से दोबारा यहां जंगल राज आ जाएगा और फिर से ये लोग भी बीजेपी की तरफ चले गये। इस प्रकार बीजेपी को हराने के लिए मुसलिम समाज ने बार-बार आजमाई हुई पार्टी बीएसपी से ज्यादा समाजवादी पार्टी पर भरोसा करने की बड़ी भारी भूल की है।

मायावती को यह बताना चाहिए कि बसपा समर्थक सवर्ण और ओबीसी समाज की दूसरी जातियों को सपा के आने का डर था तो उन्होंने उनकी पार्टी को वोट क्यों नहीं दिया। मायावती जिसे ’खुद का समाज’ कहती हैं, उनका वोट बीजेपी को क्यों गया? 2017 में उनके ’खुद के समाज’ ने उनकी पार्टी को 87 प्रतिशत मत दिये थे मगर इस बार तो यह घटकर 65 प्रतिशत रह गया और बीजेपी को 21 प्रतिशत वोट दिये जबकि पिछली बार यह महज आठ प्रतिशत था। 

मायावती का यह दावा कि बार-बार आजमाई हुइ पार्टी बीएसपी से ज्यादा समाजवादी पार्टी भरोसा कर बड़ी भारी भूल की है, वास्तव में अपनी भूल पर पर्दा डालने की कोशिश है।

बार-बार आजमाई’ हुई पार्टी ने मुसलमानों वोटरों से जुड़ने के बजाय सिर्फ मुसलिम उम्मीदवारों की संख्या बढ़ा दी जिसे मुसलिम समाज ने वोट काटकर बीजेपी को मदद करने की चाल समझकर बसपा को खारिज कर दिया। 

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मुसलमानों के सामने मुख्यमंत्री योगी की सरकार द्वारा दमन के इतने सारे मामले थे। मायावती ने कभी उनके लिए आवाज नहीं उठायी बल्कि ऐसे हर कदम पर वह मुसलमानों की सोच के विरुद्ध बीजेपी के पक्ष में खड़ी रही। बसपा और समाजवादी पार्टी दोनों ने बीजेपी से अधिक ब्राह्मण उम्मीवार दिये। बसपा के 70 ब्राह्मण उम्मीदवार थे, जीता कोई नहीं और उनके समुदाय का वोट एक प्रतिश से भी कम मिला। समाजवादी पार्टी ने 78 सवर्ण समुदाय के उम्मीदवार दिये, उनमें से 67 हार गये। 

क्या अखिलेश यादव यह कहेंगे कि सवर्ण समुदाय ने उनकी पार्टी के सवर्ण उम्मीदवारों को भी वोट नहीं दिये और ऐसा कर उस समुदाय ने बहुत बड़ी गलती की है?

क्या मायावती ब्राह्मण समाज से यह कहेंगी कि उन्होंने बसपा को पूरी तरह नकार दिया और बीजेपी को तकरीबन 79 प्रतिशत वोट क्यों दिये जबकि उन्होंने ब्राह्मण सम्मेलन भी किया था, मुसलिम सम्मेलन नहीं? इसी तरह यह सवाल वे राजपूतों से करेंगी कि उनके समुदाय ने 85 प्रतिशत से ज्यादा वोट बीजेपी को क्यों दिये और उनकी पार्टी को महज दो फीसद वोट दिये जबकि वे सर्वसमाज की बात करते थकी नहीं। या वैश्यों से ही ऐसे सवाल कर लें कि क्यों उन्हें महज एक फीसद वोट दिये। 

समाजवादी पार्टी का आरएलडी से गठबंधन था लेकिन सपा को जाटों का वोट पिछली बार से भी कम मिला- 57 प्रतिशत की जगह महज 33 प्रतिशत। क्या अखिलेश यादव यह कहेंगे कि जाटों ने सपा को कम वोट देकर बहुत बड़ी गलती की है।

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