4000 साल पुराने 89 फीसदी को यह कैसा डर है!
यूपी के मुरादाबाद की एक पॉश सोसाइटी में फ्लैट मालिकों ने प्रदर्शन किया. उनका ऐतराज था कि एक हिन्दू फ्लैट मालिक डॉक्टर ने अपना मकान किसी महिला मुसलमान डॉक्टर को बेंच दिया. तर्क था कि मुसलमान के आने से “सामाजिक सद्भाव” बिगड़ जाएगा और सांख्यिकी बदलाव शुरू होगा क्योंकि बाकि पड़ोस के हिन्दू भी अपना मकान बेंच कर चले जायेंगें. उन्होंने प्रशासन से रजिस्ट्री रद करने की मांग की है. इस सोसाइटी में करीब 450 फ्लैट्स हैं जिसमें एक भी मुसलमान का नहीं. प्रदर्शनकारियों ने बताया कि उन्हें “किसी संप्रदाय से विरोध नहीं” है लेकिन वे चाहते हैं कि यह “सिस्टम” न बदला जाये. उधर डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट ने कहा है कि वह इस स्थिति को “बगैर सांप्रदायिक सौहार्द्र बिगाड़े” हल करने का प्रयास कर रहे हैं. उनके कथन का मतलब है अगर हिन्दू बेजा मांग करे मुसलमानों के खिलाफ तो इसे “सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ना” माना जाएगा और प्रशासन देखेगा कि मुसलमान “हिन्दू सोसाइटी” में “घर खरीदने की साजिश के जरिये” इस “सौहार्द को न बिगाड़े”.
चार माह पहले बड़ोदरा (गुजरात) में भी हिन्दू फ्लैट मालिकों ने मुसलमानों को सीएम आवास योजना में मकान आबंटन का विरोध किया था. इस जिले में “अशांत क्षेत्र कानून” के तहत प्रावधान है कि दो सम्प्रदायों के लोगों के बीच मकान की खरीद-फरोख्त के पहले प्रशासन की अनुमति लेनी होगी. दोनों जगहों पर प्रदर्शनकारियों का मानना है कि सैकड़ों हिन्दुओं के बीच एक मुसलमान परिवार के आने से “सौहार्द” हीं नहीं सांख्यिकी संतुलन भी बिगड़ेगा. क्या चार हजार साल पुराना सनातन धर्म जिसकी मूल अवधारण हीं “वसुधैव कुटुम्बकम” (पूरी दुनिया हीं परिवार है) हो उसमें ऐसा भय उचित है? फिर सर्वसमाहन की क्षमता वाले सनातन धर्म के किसी सोसाइटी में कई सौ अनुयायिओं को एक गैर-सनातनी से सांख्यिकी बदलाव का डर लगे तो इसे क्या कहेंगें?
बहरहाल हाल में ऐसी भावनाओं से मुसलमानों का “घेटोआइजेशन” (मजबूरन एक हीं मुहल्लें में पीढी-दर-पीढी न्यून होती जन-सुविधाओं के साथ रहना) बढ़ता जा रहा है. समाजशास्त्री मानते हैं कि “घेटोज” (ऐसे मोहल्ले) में अपराध की प्रवृति भी ज्यादा होती है. राफेल ससविंड की ताज़ा शोध में दिल्ली में सबसे ज्यादा सांप्रदायिक अलगाव पाया गया. देश के बड़े शहरों मुसलमान दिल्ली के जामा मस्जिद और ओखला, मुम्बरा और भेंडी बाज़ार (मुंबई), जुहापुरा (गुजरात), और चमनगंज (कानपुर) में रहने को मजबूर होता है.
यहाँ सवाल दो हैं. भारत के संविधान में जब “हम भारत के लोग” लिखा गया था तो उसमें मुसलमानों को अलग नहीं किया गया था. वह एक आश्वासन था कि भारत में धर्म के आधार पर विभेद नहीं होने दिया जाएगा. इसी संविधान में मौलिक अधिकारों में से एक सभी नागरिकों को कहीं भी रहने, जाने और प्रोफेशन चुनने के अधिकार देता है और इसके तहत बना कानून प्रॉपर्टी के स्वामित्व का अधिकार देता है.
क्या यह तर्क कि इनके (मुसलमानों के) आने से हिन्दू भय, घृणा या “आस्था” के कारण घर बेचने को मजबूर होगा, किसी आदिम सभ्यता का मुजाहरा नहीं लगता? अगर यह तर्क मान लिया जाये तो आने वाले दिनों में प्रातः सड़क पर किसी “दाढ़ी वाले” के आने से मंदिर की ओर जाने वाले किसी भक्त का “आस्था” अपवित्र नहीं हो जायेगी? यही भाव तो दलितों को लेकर कई हज़ार साल तक रहा जिसके तहत दक्षिण भारत के राज्यों में वे गले में तख्ती लटका कर और जोर-जोर से अपने मार्ग पर आने का ऐलान कर आसपास के सवर्णों को “अपवित्र” होने से बचाते थे. जो हालत आज भारत में पैदा किये जा रहे हैं उसमें तो मुसलमानों को भी सड़क पर आने पर “भारत माता की जय”, “जय श्रीराम” बोलते हुए अपने राष्ट्र-भक्त होने और हिन्दू आस्था को तस्लीम करने का ब-आवाज-ए-बुलंद ऐलान करना होगा अपने अस्तित्व को बचाने के लिए. कहाँ जा रहा है यह देश?
एआई के इस दौर में अगर बेरोजगार युवा धर्म-विशेष के लोगों के घर फ्रीज में गौमांस तलाशेगा और शक होने पर घर वालों को मार देगा तो इस विचारधार को हवा देने वालों को सत्ता तो मिल जायेगी लेकिन देश हमेशा के लिए “अतार्किकता, जहालत और आदिम काल” की गहरी गर्त में फिसल जाएगा.
हमने “लव-जिहाद” और “लैंड जिहाद” के धूम्रपट खड़ा कर उन्हें आइसोलेट तो कर हीं दिया था और बड़ी चालाकी से उनके द्वारा “थूक लगा कर माल बेचने” के “वीडियोज” सोशल मीडिया में डाल कर उनके आर्थिक जड़ों को भी खोखला कर दिया, अब उनका खुली हवा में सांस लेने को साजिश बता कर उस रोक लगाना बाकी रह गया है.
उधर सत्ता में बैठे लोग “संविधान” को सार्वजानिक रूप से दर्जनों कैमरों के बीच माथे पर लगा कर अपने “न्यायप्रिय” होने का ऐलान करते रहेंगें.
(लेखक एन के सिंह ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बीईए) के पूर्व महासचिव हैं)