मुसलिमों की भागवत से मुलाकात के बाद क्या संघ बदलेगा?
5 प्रतिष्ठित मुसलमान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत से मिले। उन्होंने बतलाया कि उनकी बातचीत बड़ी सकारात्मक रही। मोहन भागवत ने चुप रहकर, बिना टोका-टाकी उन्हें सुना। इससे उन्हें इत्मीनान हुआ कि वे उनकी बातों को लेकर वाक़ई गम्भीर थे।
यह शिष्टमंडल इससे बहुत प्रभावित हुआ कि संघ प्रमुख का कमरा बड़ा सादा था। समय के भी वे बड़े पाबंद हैं, इससे भी उनका रौब शिष्टमंडल पर पड़ा। सादगी, अनुशासन, विनम्रता, आदि गुण अगर आप में हों तो आप हत्या कर सकते हैं, हत्या के विचार का प्रचार भी कर सकते हैं।
जिस बात से हमारे ये भद्रजन बहुत प्रभावित हुए, उससे एक दूसरे समय के पाबंद और सादगी से जीने वाले गाँधी क़तई भ्रमित नहीं हुए थे। अनुशासन नाज़ियों का भी गुण था, उन्होंने अपने सहयोगियों को चेताया था।
यह मुलाक़ात बहुत बड़ी ख़बर बन गई है। एक तो शायद इसलिए कि मिलनेवाले मुसलमान हैं लेकिन उससे भी ज़्यादा इसलिए कि वे पूर्व नौकरशाह, सेना के अधिकारी, पत्रकार हैं। ये वे हैं जिन्हें आप मुसलमानों के अभिजन का हिस्सा कह सकते हैं। ये शिक्षित मुसलमान हैं। ये भारतीय राज्य की निर्णयकारी जगहों पर काम कर चुके हैं। इसलिए ये सिर्फ़ मुसलमान अभिजन ही नहीं हैं। ये भारतीय समाज और राज्य के भी अभिजन हैं।
हमें नहीं मालूम कि इस शिष्टमंडल ने अभी हाल में पारित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उस प्रस्ताव पर बात की या नहीं जिसमें यह कहा गया है कि एक विशेष समुदाय के द्वारा सरकारी तंत्र में घुसने की बड़ी साज़िश की जा रही है। आख़िरकार ये सब जो संघ प्रमुख से मिलने गए थे, उसी ‘विशेष समुदाय’ के हैं जिनका नाम लिए बिना ही संघ जिनके बारे में बात करता रहा है।
यूपीएससी जिहाद
संघ का प्रस्ताव वही कह रहा है जो काफ़ी पहले एक टेलीविज़न चैनल ने अपने एक कार्यक्रम में रहस्योद्घाटन के रूप में देश को बतलाया था। वह यह कि मुसलमान यूपीएससी जिहाद कर रहे हैं, नौकरी जिहाद कर रहे हैं और शिक्षा जिहाद भी कर रहे हैं। अलावा लैंड जिहाद और मकान जिहाद के।
मतलब यह कि मुसलमान संगठित रूप से देश की सरकारी नौकरियों पर क़ब्ज़ा करने की साज़िश कर रहे हैं।
जब टीवी चैनल ने लैंड जिहाद, शिक्षा जिहाद और नौकरी जिहाद के ख़तरे से हिंदुओं को सावधान किया तो कौन जानता था कि कुछ साल बाद यही बात आरएसएस आधिकारिक तरीक़े से बोलेगा। यानी, मुसलमानों का शिक्षा ग्रहण करना और नौकरी की योग्यता हासिल करना एक षड्यंत्र है राज्य पर क़ब्ज़े का। दूसरे शब्दों में, संघ को मुसलमान मध्य वर्ग के निर्माण से ऐतराज है। यह मध्य वर्ग ही एक तरह के अभिजन में बदल जाता है जो मुखर होता है और समाज की तरफ़ से बोल सकता है।
क्या चाहता है संघ?
संघ की मुख्य चिंता यही है कि मुसलमान भारतीय जीवन के बारे में फ़ैसला लेनेवाली जगहों पर न पहुँच जाएँ। वे हिंदुओं के मातहत रहें, उनकी मर्ज़ी से ज़िंदगी जिएँ, संघ यही चाहता है। हमें नहीं पता कि इस विषय पर चर्चा हुई या नहीं। आख़िर सच्चर समिति इसी मसले पर विचार करने को बनाई गई थी। क्या संघ प्रमुख से पूछा गया कि वह भारत के प्राकृतिक और सार्वजनिक संसाधनों पर बाक़ी समुदायों की तरह ही मुसलमानों के अधिकार को स्वीकार करते हैं या नहीं। क्या अगर मुसलमान अब तक नौकरियों और बाक़ी साधनों से वंचित रहे हैं तो अब उन्हें ये हासिल होने चाहिए या नहीं। क्या उन्हें इस मामले में प्राथमिकता मिलनी चाहिए या नहीं।
बाहर यह बतलाया जा रहा है कि संघ प्रमुख इससे दुखी हैं कि मुसलमान हिंदुओं को काफ़िर कहते हैं। दूसरी बात कि वे गोमांस क्यों खाते हैं! अपनी इतनी लंबी उमर में, और मेरी परवरिश मुसलमान मोहल्ले में हुई है, मुझे याद नहीं किसी मुसलमान ने काफ़िर कह कर बुलाया हो। इसके उलट अनेकानेक मुसलमानों को उन असंख्य अपमानजनक संबोधनों की याद है जो स्कूल, सड़क, दफ़्तर में उनके लिए इस्तेमाल किए जाते रहे हैं। नहीं मालूम, इस शिष्टमंडल ने यह शिकायत की या नहीं कि मुसलमानों को क्यों इस तरह संबोधित किया जाता है।
अवसरवादी गाय प्रेम
हिंदुओं को बुरा लगता है कि मुसलमान गोमांस खाते हैं। संघ प्रमुख के इस शिकवे से शिष्टजन सहमत थे। उन्होंने कहा कि पहले ही कई राज्यों में गोकुशी के ख़िलाफ़ क़ानून लागू है और मुसलमानों को हिंदुओं की भावना की कद्र करनी चाहिए। भले लोगों ने यह नहीं पूछा कि संघ और भाजपा गोवा और नागालैंड जैसे राज्यों में क्यों गोमांस के सेवन पर ज़ुबान नहीं खोल पाते! इससे साफ़ है कि संघ का गाय प्रेम सिर्फ़ एक अवसरवादी बहाना है मुसलमानों के ख़िलाफ़ विद्वेष और घृणा फैलाने और उसके बहाने हिंसा को जायज़ ठहराने का। गोमांस सिर्फ़ मुसलमान और ईसाई समुदाय में स्वीकृत नहीं, ढेर सारे हिंदू कहलाने वाले समुदायों में उसका प्रचलन रहा है।
संघ वहाँ चुप रहता है जहाँ बहुमत में वे हैं जो गोमांस खाते हैं। बल्कि उसके लोग इसका समर्थन करके उन राज्यों में सत्ता तक पहुँचते हैं। असल मसला है किसी तरह सत्ता तक पहुँचना। दूसरा यह साबित करना कि वह मुसलमानों और दूसरों को अपने तरीक़े से जीने पर बाध्य कर सकता है।
नियंत्रित करने की कोशिश
मुसलमानों को अच्छे बच्चे की तरह रहना चाहिए। वैसे अच्छे बच्चे, जैसा संघ चाहता है। अगर उन्होंने ऐसा किया तो उन्हें मार नहीं पड़ेगी। यही संघ कहता रहा है। संघ यह जानता है कि अब हिटलर बनना बहुत मुश्किल है। इसलिए उन्हें हमेशा के लिए दूसरे दर्जे के नागरिकों में तब्दील कर देना ही सबसे अच्छा और सस्ता उपाय है। मुझे कुछ वर्ष पहले एक टीवी चैनल की चर्चा में आरएसएस के एक बौद्धिक का वक्तव्य याद है।
मौक़ा था मुहर्रम का और चर्चा दिल्ली में हुई एक घटना के बाद हो रही थी जिसमें मुसलमानों को चौक पर ताजिया लाने से रोका गया था। उन बौद्धिक ने बड़े विनम्र अंदाज़ में कहा था कि मुसलमानों को भारत में आज़ादी होगी लेकिन उनपर कुछ नियंत्रण रहेंगे। जब तक वे उस नियंत्रण के भीतर रहेंगे, उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी।
जर्मनी का मॉडल आदर्श है लेकिन अब वह अव्यावहारिक और महँगा है। जर्मनी में ही वह सफल नहीं हो पाया! उससे बेहतर है मुसलमानों और ईसाइयों को स्थायी रूप से मातहत क़ौम में बदल देना जो ‘अपनी’ मर्ज़ी से हिंदू जीवन पद्धति के मुताबिक़ जीना स्वीकार कर लें। मुसलमानों को वैसे ही संघ के क़ाबू में रहना चाहिए जैसे भली महिलाएँ परिवारों के नियम पालन करते हुए रहती हैं।
विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल
संघ ख़ुद को भारतीय परिवार के मुखिया के रूप में पेश करता है। उसके थोड़े मनबढ़ू बच्चे हैं विश्व हिंदू परिषद या बजरंग दल। लेकिन हैं वे उसी के बच्चे। जब वे मुसलमानों को बहकते देखते हैं तो उनका दिमाग़ ख़राब हो जाता है। मुसलमान ऐसा करते ही क्यों हैं जिससे वे उत्तेजित हों!
जैसे औरतों को कहा जाता है कि उनके चलते मर्द उत्तेजित हो जाते हैं, वे उन्हें हिंसा के लिए उकसाती हैं या मजबूर कर देती हैं। उसी तरह हिंदुओं जैसी सहिष्णु जाति को जब क्रोध आ जाए तो समझा जा सकता है कि उसके सब्र का कितना इम्तहान लिया गया होगा!
इस टिप्पणी में संघ के दोमुँहेपन का उदाहरण देने की ज़रूरत नहीं। संघ का वह चरित्र ही रहा है। वह कटी हुई ज़ुबान से बोलता है, यह जानी हुई बात है। वह अपने सदस्यों के कहे और किए का जिम्मा नहीं लेता। जो ख़ुद प्रचारित करता है उसके परिणाम का जिम्मा भी नहीं लेता।
फिर भी क्या संघ से बात नहीं करनी चाहिए? हमारा ख़याल है कि ऐसी बातचीत ज़रूर होती रहनी चाहिए जिससे संघ का दोमुँहापन और उजागर होता रहे।