आतंकवादियों की सरकार! जानें उन्हें जो अब चलाएंगे अफ़ग़ानिस्तान
अफ़ग़ानिस्तान की अंतरिम सरकार को न तो समावेशी कहा जा सकता है न ही उदारवादी। इसमें मुल्ला अब्दुल सलाम हनफ़ी अकेले व्यक्ति हैं जो ग़ैर-पश्तून हैं। वे उज़बेक क़बीले के हैं। उनके अलावा सभी मंत्री पश्तून हैं।
मंत्रिमंडल में एक भी ताज़िक या तुर्कमान क़बीले का नहीं है। इसी तरह शिया इसलाम को मानने वाले हज़ारा समुदाय का भी कोई व्यक्ति नहीं है। किसी महिला या धार्मिक अल्पसंख्यक यानी हिन्दू या सिख की तो बात ही सोचना मुश्किल है।
इसी तरह इस मंत्रिमंडल को उदारवादी नहीं कहा जा सकता है। इनमें से ज़्यादातर तो संयुक्त राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय आतंकवादियों की सूची में या अमेरिका की आतंकवादी सूची में थे।
मुल्ला मुहम्मद हसन अखुंद
अफ़ग़ानिस्तान के प्रधानमंत्री का पद संभालने वाले मुल्ला मुहम्मद हसन अखुंद कोई धार्मिक विद्वान नहीं हैं, लेकिन उनके पास संगठन का लंबा अनुभव है।
वे उस रहबरी शूरा या क्वेटा शूरा से शुरू से ही जुड़े हुए रहे, जिसकी स्थापना 2001 में पाकिस्तान के बलोचिस्तान प्रांत में हुई थी।
जब तालिबान को 2001 में अफ़ग़ानिस्तान छोड़ कर जाना पड़ा तो आईएसआई ने उन्हें पनाह दी और मुल्ला उमर व मुल्ला बरादर ने मिल कर दूसरे कुछ साथियों के साथ क्वेटा शूरा का गठन किया था।
पाकिस्तानी खुफ़िया एजेन्सी ने उत्तरी वज़ीरिस्तान में उन्हें जगह दी, प्रशिक्षण वगैरह का इंतजाम किया।
कांधार के मूल निवासी मुल्ला अखुंद तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर के साथ शुरू से रहे हैं।
उन्हें संगठन के अलावा प्रशासन का भी अनुभव है। साल 1996-2001 तक चलने वाली पहली तालिबान सरकार में वे उप प्रधानमंत्री थे।
अफ़ग़ानिस्तान के प्रधानमंत्री का नाम संयुक्त राष्ट्र आतंकवादी सूची में है, जिसमें उन्हें मुल्ला उमर का नज़दीक का आदमी बताया गया है।
वे पश्तून हैं और आधुनिक अफ़ग़ानिस्तान के संस्थापक समझे जाने वाले अहमद शाह दुर्रानी के वंशज माने जाते हैं।
पर्यवेक्षकों का कहना है कि उनके नाम पर सहमति एक तरह के समझौते के तहत ही बनी।
अब्दुल गनी बरादर के नाम पर सहमति नहीं बन पा रही थी क्योंकि पाकिस्तान उन्हें नहीं चाहता था और तालिबान के लोग पाकिस्तान की पसंद सिराजुद्दीन हक्क़ानी को नहीं चाहते थे। लिहाजा एक तीसरे आदमी को चुना गया, जिस पर सब राजी हो गए।
मुल्ला बरादर
मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर उन लोगों में से हैं, जिन्होंने मुल्ला मुहम्मद उमर के साथ मिल कर तालिबान की नींव डाली थी।
उनका महत्व इससे समझा जा सकता है कि जब तालिबान ने 2001 में पाकिस्तान में आईएसआई की मदद से क्वेटा शूरा की स्थापना की थी, तो उसके संस्थापकों में मुल्ला उमर के साथ मुल्ला अब्दुल ग़नी भी थी।
वे मुल्ला उमर के इतने अजीज़ मित्र थे कि मुल्ला उमर ने अपनी बहन की शादी ग़नी से करवाई और बरादर ( बिरादर या भाई) का उपनाम दिया, जिस नाम से वे आज जाने जाते हैं।
उमर के बीमार पड़ने पर पूरे तालिबान संगठन का नियंत्रण बरादर के हाथ में आ गया। वे उनके सही उत्तराधिकारी थे, लेकिन जिस समय 2013 में मुल्ला उमर की मौत हुई, बरादर पाकिस्तान की जेल में थे। लिहाज़ा, वे तालिबान प्रमुख बनने से वंचित रह गए।
आज वे अपनी छवि भले ही एक उदार तालिबान नेता के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हों, पर 1996-2001 के तालिबान शासन काल में ज़्यादतियों व महिलाओं, अल्पसंख्यकों और ग़ैर पश्तूनों पर अत्याचार के लिए वे ज़िम्मेदार माने जाते है।
अमेरिका की पसंद!
लेकिन अमेरिका ने मुल्ला बरादर को एक ऐसे नेता के रूप में देखा, जिसका तालिबान पर नियंत्रण है। नतीजा यह हुआ कि जब अमेरिका के अफ़ग़ान दूत ज़लमे खलीलज़ाद 2018 में काबुल पहुँचे तो उन्होंने पाकिस्तान को इस पर राज़ी किया कि बरादर को रिहा कर दिया जाए। इसके लिए उन्होंने पाकिस्तान की यात्रा की और प्रधानमंत्री इमरान ख़ान को इसके लिए राजी कराया।
मुल्ला बरादर अक्टूबर 2018 में पाकिस्तान से रिहा हो कर क़तर की राजधानी दोहा पहुँचे और अलग-अलग लोगों से बातचीत शुरू की।
यह निश्चित तौर पर मुश्किल काम था क्योंकि उस समय तक अमेरिका तालिबान का दुश्मन था, जिससे युद्ध चल ही रहा था और ऐसे दुश्मन से बात करने पर दूसरे नेताओं को राजी कराना था। यह उनकी बात करने की कला ही थी कि समझौता हो सके।
यह समझौता तालिबान की जीत का दस्तावेज़ है क्योंकि अमेरिका की सिर्फ यह शर्त मानी गई कि तालिबान के लोग समझौता लागू होने के बाद अमेरिकी हितों या उसके सैनिकों पर हमले नहीं करेंगे।
हालांकि तालिबान इस पर भी राजी हो गया कि उसकी सरज़मीन का इस्तेमाल किसी देश के खिलाफ़ नहीं करने दिया जाएगा, पर वह इस पर कितना टिका रहेगा, इसकी परीक्षा आगे होगी।
अब्दुल सलाम हनफ़ी
मुल्ला अब्दुल सलाम हनफ़ी को अंतरिम अफ़ग़ान सरकार में मुल्ला बरादर के बराबर का दर्जा दिया गया है और मुल्ला मुहम्मद अखुंद के ठीक नीचे रखा गया है। यानी वे नंबर दो होंगे। वे भी उप प्रधानमंत्री होंगे।
वह 1996-2001 की पहली तालिबान सरकार में उप शिक्षा मंत्री थे। वे काबुल विश्वविद्यालय में पढ़ाते थे और उन्हें तालिबान का आलिम-ए-दीन कहा जाता था। यानी, वे तलिबान के धार्मिक मामलों के प्रमुख थे।
सिराजुद्दीन हक्क़ानी
अफ़ग़ानिस्तान के मौजूदा आतंरिक सुरक्षा मंत्री सिराजुद्दीन हक्क़ानी अमेरिका की आतंकवादी सूची में हैं। वे उस हक्क़ानी नेटवर्क के प्रमुख हैं, जिसकी स्थापना आईएसआई ने 2003-04 में की थी। हक्क़ानी नेटवर्क को उत्तरी वज़ीरिस्तान में बसाया गया।
हक्क़ानी नेटवर्क का नाम सबसे तेज़ी से तब सामने आया था जब उसने 2008 में काबुल स्थित भारतीय दूतावास पर आत्मघाती हमला किया था।
भारतीय दूतावास पर हमला
काबुल स्थित भारतीय दूतावास पर 7 जुलाई, 2008 को स्थानीय समयानुसार सुबह आठ बजे हुए ज़बरदस्त बम धमाके में 58 लोग मारे गए थे और 114 दूसरे लोग घायल हो गए थे।
मारे जाने वालों में चार भारतीय थे- डिफेंस अताशे ब्रिगेडियर रवि दत्त मेहता, भारतीय विदेश सेवा के वी. वेंकटेश्वर राव और आइटीबीपी के दो जवान- अजय पठानिया और रूप सिंह।
भारतीय ख़ुफ़िया एजेन्सियों का कहना था कि पाकिस्तानी खुफ़िया एजेन्सी आईएसआई ने इसकी योजना बनाई थी और इसे हक्क़ानी नेटवर्क ने अंजाम दिया था।
पाकिस्तान के गुजरांवाला ज़िले का रहने वाला हमजा शकूर ही वह आत्मघाती हमलावर था, जो विस्फोटकों से लदी गाड़ी लेकर दूतावास तक गया था।
इसके बाद 8 अक्टूबर 2009 को भी काबुल स्थित भारतीय दूतावास पर आत्मघाती हमला हुआ था, जिसमें 17 लोग मारे गए थे और 63 घायल हुए थे।
इसके अलावा 26 फरवरी 2010 को काबुल स्थित एक गेस्ट हाउस पर पहले एक आत्मघाती बम विस्फोट और उसके तुरन्त बाद गोलीबारी हुई। इसमें 18 लोग मारे गए थे। यह गेस्ट हाउस भारतीय डॉक्टरों में लोकप्रिय था। मरने वालों में छह भारतीय थे।
सिराजुद्दीन हक्क़ानी के पिता जलालुद्दीन हक्क़ानी थे, जो मुजाहिदी नेता थे और जिन्होंने सीआईए की मदद से अफ़ग़ानिस्तान में रूसी सेना से लड़ाई लड़ी थी।
खलील-उर-रहमान हक्क़ानी
हक्क़ानी नेटवर्क के एक और लड़ाके खलील उर रहमान हक्क़ानी यानी खलील हक्क़ानी को शरणार्थी मामलों का मंत्रालय दिया गया है।
वे जलालुद्दीन हक्क़ानी के भाई, यानी सिराजुद्दीन हक्क़ानी के चाचा हैं। सीआईए की मदद से उन्होंने सोवियत संघ की सेना के ख़िलाफ़ मजिस्त्राल, ख़ोस्त, उरगुन, जाजी और हिली में हमले किए थे।
ओसामा बिन लादेन जब अफ़ग़ानिस्तान पहुँचा तो खलील हक्क़ानी से उसकी नज़दीकी बनी।बाद में अमेरिका ने 2011 में उन्हें स्पेशली डेजीनेटेड इंटरनेशनल टेररिस्ट घोषित किया। उन पर 50 लाख डॉलर की ईनाम राशि रखी गई।
संयुक्त राष्ट्र ने 2011 में ही अंतरराष्ट्रीय आतंकवादियों की सूची में डाला।
मुल्ला याक़ूब
मुल्ला मुहम्मद याक़ूब को रक्षा मंत्री बनाया गया है। उनका नाम 2013 में पहली बार सामने तब आया जब उनके पिता मुल्ला मुहम्मद उमर की मौत पाकिस्तान के एक अस्पताल में होने की पुष्टि हुई।
हालांकि उनकी मौत तो बहुत पहले ही हो गई थी, लेकिन इसे गुप्त रखा गया था। 2013 में मुल्ला याकूब ने एक वीडियो मैसेज में पिता के मरने का एलान किया था।
मुल्ला उमर की मृत्यु के बाद तालिबान की बागडोर मुल्ला मंसूर ने संभाल ली थी और उन्होंने ही उमर की मृत्यु की बात लंबे समय तक छुपाए रखी।
मुल्ला मंसूर की याकूब से नहीं बनती थी और दोनों एक दूसरे को नापसंद करते थे।
याक़ूब को 2015 में तालिबान का डिप्टी लीडर चुना गया। बाद में उन्हें तालिबान की सैन्य ईकाई का प्रमुख बना दिया गया।
लंदन स्थित रॉयल यूनाइटेड सर्विस इंस्टीच्यूट के अंतोनियो गिस्तोत्ज़ी का मानना है कि मुल्ला मुहम्मद याक़ूब नरमपंथी तालिबान नेता हैं और उन्होंने अमेरिकियों से बातचीत करने और उनके ख़िलाफ़ लड़ाई ख़त्म करने की ज़ोरदार वकालत की थी।
मुल्ला याक़ूब ने अफ़ग़ानिस्तान में अफ़ीम की खेती और इसके व्यापार को बढ़ावा दिया था और उनकी वजह से ही सालाना 1.5 अरब डॉलर का अफ़ीम व्यापार तालिबान कर लेता था।
अमीर ख़ान मुत्तकी
अमीर ख़ान मुत्तकी को विदेश मंत्री बनाया गया है। वह पहले मुजाहिदीन थे और मौलाना मुहम्मद नबी मुहम्मदी गुट के थे। बाद में वे तालिबान से जुड़े। वे पहली तालिबान सरकार में संस्कृति मंत्री थे और उन्हें संयुक्त राष्ट्र से समन्वय करने का काम दिया गया था।
अमीर खान मुत्तकी तालिबान के क़तर मुख्यालय में थे, मुल्ला बरादर की उस टीम में शामिल थे जो अमेरिका से समझौते से पहले अलग-अलग गुटों से बातचीत कर रहे थे।
उन्हें अफ़ग़ानिस्तान के ग़ैर तालिबान नेताओं से बात करने को कहा गया था। उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई और मुख्य कार्यकारी अब्दुल्ला अब्दुल्ला से बात की थी। वे अब्दुल्ला अब्दुल्ला को सरकार में शामिल करने के पक्ष में थे।
अब्दुल्ला अब्दुल्ला का पत्ता शायद पाकिस्तान ने काटा, क्योंकि वे अंत तक अशरफ़ ग़नी सरकार में चीफ़ एग्जक्यूटिव थे। इस कारण पाकिस्तान उन्हें नापसंद करता था।
आख़िर अफ़ग़ानिस्तान में नई सरकार बन गयी । क्या ये तालिबान की सरकार है या पाकिस्तान की या आतंकवादियों की ? कितने दिन चलेगी ये सरकार ? आशुतोष के साथ चर्चा में शिवकांत, कबीर तनेजा, धनंजय त्रिपाठी, ऊमर अल्ताफ़ और विनोद अग्निहोत्री ।