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फिल्म समीक्षा- श्रीकांतः क्या वे सिर्फ मोमबत्तियां बनाने के लिए हैं? 

फिल्म समीक्षा- श्रीकांतः क्या वे सिर्फ मोमबत्तियां बनाने के लिए हैं? 

आंध्र प्रदेश के मछलीपट्टनम में एक दिव्यांग लड़के का जन्म हुआ और उसके पिता ने प्रसिद्ध भारतीय क्रिकेटर के नाम पर उसका नाम 'श्रीकांत' रखा। लेकिन यह फिल्म श्रीकांत बोल्ला की वास्तविक जीवन की कहानी पर आधारित है। जाने-माने फिल्म समीक्षक डॉ प्रकाश हिन्दुस्तानी को यह फिल्म क्यों नहीं पसंद आई, आप भी जानिएः

भारत में दो प्रतिशत लोग दृष्टिबाधित हैं और 98% लोग दृष्टि (विजन) नहीं रखते। दृष्टिबाधित उद्योगपति श्रीकांत बोल्ला के जीवन पर बनी यह फिल्म कहती है कि दृष्टिहीनों को भी समान अवसर मिलने चाहिए। दृष्टिहीन केवल ट्रेनों में गाना गाने और मोमबत्तियां बनाने के लिए नहीं हैं। दृष्टिबाधितों को दया की नज़र से मत देखो, उन्हें समान अवसर दो।

मगर फिल्म यह भी बताती है कि जैसे ही दृष्टिबाधित उपलब्धियां पाते हैं, अपने मददगारों को भूल जाते हैं। उनमें भी वही बीमारियां या बुरी आदतें लग जाती हैं, जो आम कामयाब लोगों को लगती हैं। वे भी कर्कश, क्रूर और मतलबी हो जाते हैं। उनमें भी अहंकार आ जाता है और वे अपने ही मददगार लोगों को एक टूल की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर देते हैं। यही इस फ़िल्म की कमजोरी है।

फिल्म का एक संवाद है -"आपने हमारे लिए दिमाग में एक अलग ही कहानी बना रखी है। बेचारा, बहुत बुरा हुआ उसके साथ। हमारे साथ कुछ भी बुरा नहीं हुआ। बेचारे तो हम बिल्कुल भी नहीं हैं। आप हमारे चक्कर में मत पड़ना। आपको बेच कर खा जाएंगे हम।"

भारत में दिव्यांगों की बहुत उपेक्षा होती है। सही है। दूसरी तरफ अमेरिका में उन्हें समान अवसर मिलते हैं। श्रीकांत स्कॉलरशिप पाकर अमेरिका पढ़ने जाता है और वापस भारत आना नहीं चाहता। लेकिन अपनी गर्लफ्रेंड के कहने पर वह भारत आता है और यहां रतन टाटा की मदद और एपीजे अब्दुल कलाम की प्रेरणा से वह इंडस्ट्री कायम करता है। कई लोग साथ देते हैं। फिर वह नेताओं के चंगुल में फंस जाता है। फ़िल्म के इंटरवल तक श्रीकांत का संघर्ष प्रेरित करता है, मनोरंजक है। बाद में फ़िल्म के असली हीरो, राजकुमार राव के दोस्त शरद केलकर और टीचर ज्योतिका लगते हैं। जिनके त्याग और मेहनत की उपेक्षा की गई।

फिल्म कहना चाहती है कि दिव्यांगजनों को भी बराबरी की नजर से देखें, लेकिन संदेश जाता है कि वे भी सामान्य लोगों जैसे मेहनती और काबिल होते हैं। साथ ही उतने ही अहंकारी और उतने ही मौकापरस्त भी। इंटरवल के बाद फ़िल्म डॉक्यूमेंट्री लगती है।

निर्देशक तुषार हीरानंदानी ने पहले महिला शूटर चंद्रो तोमर और प्रकाशी तोमर की बायोपिक 'सांड की आंख' बनाई थी। यह फ़िल्म श्रीकांत बिल्ला के 'Shree Can't से Shree Can' तक का सफर बयान करती है। राजकुमार राव ने फिल्म में बहुत मेहनत की है, 'शैतान' फिल्म की मजबूर मां का रोल करने वाली ज्योतिका इसमें राजकुमार राव की टीचर बनी है जो कदम-कदम पर उसकी मदद करती है। श्रीकांत के बिजनेस पार्टनर शरद केलकर और ज्योतिका ही इस फिल्म के असली स्टार हैं। श्रीकांत की प्रेमिका के रूप में आलिया एफ. (फर्नीचरवाला) भी है!

यह फ़िल्म मनोरंजन के लिए नहीं बनी है, नजरिया बदलने के लिए बनी है। दृष्टिबाधितों पर दोस्ती, किनारा, स्पर्श, ब्लैक, अनुराग, आंखें, झील के उस पार, काबिल आदि कई फिल्में बन चुकी है, लेकिन यह एक बायोपिक है।

झेलनीय फ़िल्म है।

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