राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के मुखिया मोहन राव भागवत ने फरमाया है कि अगर कोई हिंदू है तो वह देशभक्त ही होगा, क्योंकि देशभक्ति उसके बुनियादी चरित्र और संस्कार का अभिन्न हिस्सा है। यह बात उन्होंने महात्मा गांधी को हिंदू राष्ट्रवादी बताने वाली एक किताब 'मेकिंग ऑफ़ ए हिंदू पैट्रीअट : बैक ग्राउंड ऑफ़ गांधीजी हिंद स्वराज’ का विमोचन करते हुए कही। किताब के नाम और मोहन भागवत के हाथों उसके विमोचन किए जाने से ही स्पष्ट है कि यह महात्मा गांधी को अपने हिसाब से परिभाषित करने की कोशिश है।
भागवत के बयान से यह भी साफ़ है कि वह सिर्फ़ देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त अपने संगठन के लोगों के देश भक्त होने का अनापत्ति प्रमाण पत्र (एनओसी) जारी कर रहे हैं, बल्कि परोक्ष रूप से देश के अन्य सभी ग़ैर हिंदू समुदायों की देशभक्ति पर सवाल उठा कर उन्हें अपमानित और लांछित कर रहे हैं। उनके इस कथन का स्पष्ट निहितार्थ है कि कोई हिंदू है तो भारत विरोधी नहीं हो सकता, लेकिन कोई ग़ैर हिंदू ज़रूर भारत विरोधी हो सकता है।
इसे व्यंग्य की स्थिति कहें या स्थिति का व्यंग्य कि यह बात वह व्यक्ति कह रहा है, जिसके 95 वर्षीय संगठन ने अपने आपको देश की आज़ादी के संघर्ष से बिल्कुल अलग रखा था। इतना ही नहीं, स्वाधीनता संग्राम के दौर में ही उसके वैचारिक पुरखों ने धर्म पर आधारित दो राष्ट्र (हिंदू और मुसलिम) का सिद्धांत पेश किया था। यह और बात है कि इस सिद्धांत को बाद में मुसलिम लीग ने भी अपनाकर अपने लिए धर्म के आधार पर अलग देश ले लिया, जो महज 24 साल बाद ही भाषा के आधार पर टूट गया। पाकिस्तान के विभाजन ने मुहम्मद अली जिन्ना को ही नहीं बल्कि सावरकर-गोलवलकर के दो राष्ट्र के सिद्धांत को भी ग़लत साबित किया।
बहरहाल, सवाल है कि अगर हिंदू भारत विरोधी नहीं हो सकता है तो फिर कौन भारत विरोधी हो सकता है? प्रधानमंत्री मोदी समेत बीजेपी और आरएसएस के तमाम नेता और सोशल मीडिया पर उनके अपढ़-कुपढ़ समर्थकों की फ़ौज सरकार का विरोध करने वाले जिन लोगों को टुकड़े-टुकड़े गैंग का बताते हैं, पाकिस्तान और चीन का एजेंट बताते हैं, देशद्रोही और गद्दार बताते हैं, उन्हें पाकिस्तान चले जाने की सलाह देते हैं, वे कौन लोग हैं?
सवाल यह भी है कि मोहन भागवत ख़ुद कई मौक़ों पर कह चुके हैं कि भारत में रहने वाला हर व्यक्ति हिंदू है।
भागवत का यह भी कहना है कि कुछ लोगों की पूजा पद्धति अलग हो सकती है, लेकिन वे अगर भारत में जन्मे हैं और भारत में ही रहते हैं तो वे हिंदू हैं। इस बात को भागवत के ताज़ा बयान के साथ देखा जाए तो भारत के सभी 135 करोड़ लोग हिंदू हैं और इसलिए वे भारत विरोधी नहीं हो सकते।
ऐसे में बीजेपी और आरएसएस के तमाम छोटे-बड़े नेता 'हम और वे’ या 'देशभक्त और देश विरोधी’ का नैरेटिव बना रहे हैं और प्रचार कर रहे हैं, उसका क्या मतलब है? क्या यह माना जाए कि संघ प्रमुख के इस बयान के बाद देशभक्त और देशद्रोही वाला नैरेटिव बंद हो जाएगा?
दरअसल, मुश्किल यह कि अगर यह नैरेटिव बंद हो गया तो बीजेपी चुनाव किस मुद्दे पर लड़ेगी और संघ अपनी संस्कार शाला में स्वयंसेवकों को क्या सिखाएगा? इसलिए यह माना जाना चाहिए कि भागवत का यह बयान उनके सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के एजेंडा के सिलसिले को ही आगे बढ़ाने वाला है।
सवाल यह है कि आख़िर मोहन भागवत और उनका संगठन किन कामों को देश विरोधी मानता है? दरअसल धरती के किसी टुकड़े का नाम ही देश नहीं होता है। देश बनता है उस भू भाग पर रहने वाले लोगों से, उनकी उदात्त जीवनशैली, संस्कारों और परंपराओं से। इसलिए देश विरोधी काम सिर्फ़ किसी दुश्मन देश से मिलकर अपने देश के सामरिक हितों को नुक़सान पहुँचाना ही नहीं होता, बल्कि देश को आर्थिक और सामाजिक तौर पर नुक़सान पहुँचाना, देश के संसाधनों का आपराधिक दुरुपयोग करना, किसी के उपासना स्थल को नष्ट कर देना, किसी नाजायज मक़सद के लिए किसी व्यक्ति या समुदाय को आर्थिक, शारीरिक या मानसिक तौर पर नुक़सान पहुँचाना और समाज में भय तथा तनाव का वातावरण बनाना भी देश विरोधी कामों की श्रेणी में आता है।
महात्मा गांधी की निर्मम हत्या आज़ाद भारत की सबसे बड़ी देश विरोधी और मानवता विरोधी वारदात थी, जिसे अंजाम देने वाला वाला व्यक्ति कोई पाकिस्तान या चीन से नहीं आया था। वह भारत में रहने वाला कोई मुसलिम, ईसाई, सिख, यहूदी या पारसी भी नहीं था और न ही कोई दलित, आदिवासी, पिछड़ा या जैन था। जो था, वह हिंदू नाथूराम गोडसे ही था। वह हिंदू में भी उस वर्ण का था, जिसे देश की सबसे बड़ी हिंदू राष्ट्रवादी संस्था के संगठनात्मक ढांचे में हमेशा से सर्वोच्च स्थान हासिल रहता आया है, जैसा कि अभी मोहन भागवत को प्राप्त है।
यही नहीं, महात्मा गांधी की हत्या की साज़िश में शामिल रहे विनायक दामोदर सावरकर, गोपाल गोडसे, नारायण आप्टे, मदनलाल पाहवा, विष्णु करकरे, दिगंबर बडगे आदि नाथूराम के सभी सहयोगी भी हिंदू ही थे।
नाथूराम गोडसे तो ऐसा हिंदू था कि गांधीजी पर गोलियाँ दागने के पहले हुई धक्का-मुक्की में उनकी पोती मनु के हाथ से ज़मीन पर गिरी पूजा वाली माला और आश्रम की भजनावली को भी वह अपने पैरों तले रौंदता हुआ आगे बढ़ गया था 20वीं सदी का जघन्यतम अपराध करने-, एक निहत्थे बूढ़े, परम सनातनी हिंदू, राम के अनन्य-आजीवन आराधक और राष्ट्रपिता का सीना गोलियों से छलनी करने।
यह और बात है कि नाथूराम ने गांधी जी की हत्या के तुरंत बाद पकड़े जाने पर ख़ुद को मुसलमान बताने की कोशिश की थी। उसने पुलिस को अपना जो नाम बताया था वह मुसलिम नाम था। कहने की ज़रूरत नहीं कि ऐसा करने के पीछे उसका कितना कुत्सित और घृणित इरादा रहा होगा? वह तो उसके हाथ पर उसका वास्तविक नाम गुदा हुआ था, इसलिए उसकी मक्कारी और झूठ ने तत्काल ही दम तोड़ दिया और गांधीजी की हत्या के बाद का उसका अगला इरादा पूरा नहीं हो सका।
क्या मोहन भागवत और उनकी राष्ट्रवादी जमात के अन्य लोग इस हक़ीक़त को नकार सकते हैं कि 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश भर में हुई सिख विरोधी हिंसा, देश के बँटवारे के बाद की सबसे बड़ी त्रासदी थी। उस त्रासदी के दौरान भी असंख्य सिखों को ज़िंदा जलाने वालों और सिख महिलाओं के साथ बलात्कार करने वालों में ज़्यादातर आरोपी कौन थे, क्या यह बताने की ज़रूरत है कि वे किस धर्म के थे? वह पूरा घटनाक्रम क्या देश विरोधी नहीं था? क्या सुप्रीम कोर्ट और संविधान को ठेंगा दिखा कर बाबरी मसजिद को ध्वस्त कर देना देश विरोधी कार्रवाई नहीं थी?
सवाल यह भी पूछा जा सकता है कि कोई दो दशक पूर्व ओडिशा में ग्राहम स्टेंस नामक निर्दोष बूढ़े पादरी और उसके मासूम बच्चों को ज़िंदा जलाने का कृत्य किस तरह की देशभक्ति या मानवता से प्रेरित था?
उस कृत्य को अंजाम देने वाला बजरंग दल का पदाधिकारी दारासिंह क्या किसी दूसरे देश का ग़ैर हिंदू नागरिक था? ओडिशा में ही क़रीब एक दशक पहले विश्व हिंदू परिषद के एक नेता लक्ष्मणानंद के नक्सलियों के हाथों मारे जाने की घटना का ठीकरा ईसाई मिशनरियों के माथे फोड़कर लगभग एक माह तक विश्व हिंदू परिषद के लोगों ने कंधमाल में हिंसा का जो तांडव मचाया था, वह क्या था? वहाँ रहने वाले सभी ईसाइयों के घरों और चर्चों को आग के हवाले कर डेढ़ सौ से भी ज़्यादा लोगों को मौत के घाट उतार दिए जाने का समूचा घटनाक्रम किस तरह के राष्ट्रवाद या देशप्रेम के दायरे में आता है?
इसी सिलसिले में गुजरात को लेकर भी सवाल बनता है कि इसी सदी के शुरुआती दौर में वहाँ क्रिया की प्रतिक्रिया के नाम पर कत्लेआम क्या आतंकवादी और देशविरोधी कार्रवाई नहीं थी? उसी हिंसा में एक सौ से अधिक लोगों की हत्या के लिए ज़िम्मेदार बाबू बजरंगी को क्या मोहन भागवत देशभक्त मानेंगे जो गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह का क़रीबी सहयोगी हुआ करता था और जिसे अदालत ने आजीवन कारावास की सज़ा सुना रखी है।
सीमा पार के आतंकवाद के साथ ही हमारा देश आज जिस एक और बड़ी चुनौती से जूझ रहा है, वह है माओवादी आतंकवाद। देश के विभिन्न इलाक़ों में सक्रिय विभिन्न माओवादी संगठनों में अपवाद स्वरूप ही कोई एकाध मुसलिम युवक होगा, अन्यथा सारे के सारे लड़ाके संघ की परिभाषा के तहत हिंदू ही हैं। पृथक गोरखालैंड तथा बोडोलैंड के लिए दशकों से हिंसक गतिविधियों में संलग्न लड़ाकों को भी क्या भागवत हिंदू नहीं मानेंगे?
तथ्य तो यह भी है कि पिछले एक दशक के दौरान पाकिस्तान और चीन के लिए जासूसी करते पकड़े गए देशद्रोहियों में से क़रीब 95 फ़ीसदी किस धर्म के हैं? इस सिलसिले में तीन साल पहले पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के एजेंट के तौर पर पकड़े गए भोपाल के ध्रुव सक्सेना का भी ज़िक्र भी किया जा सकता है जो मध्य प्रदेश में बीजेपी के आईटी सेल का पदाधिकारी था।
मालेगांव, अजमेर और समझौता एक्सप्रेस में बम धमाके करने के आरोपी असीमानंद, प्रज्ञा ठाकुर, कर्नल पुरोहित आदि भी संघ द्वारा प्रमाणित हिंदू ही हैं। इनमें से प्रज्ञा ठाकुर तो अब बीजेपी की ओर से लोकसभा में भी पहुँच गई हैं।
यहाँ जेल में बंद आसाराम और गुरमीत राम रहीम जैसे लोगों का ज़िक्र करना भी ज़रूरी है जो कथित धार्मिक गतिविधियों की आड़ में वर्षों तक बलात्कार और अन्य जघन्य कृत्यों में लिप्त रहे हैं।
सवाल यह भी बनता है कि शराब कारोबारी विजय माल्या और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के क़रीबी मित्र रहे मेहुल चौकसी और नीरव मोदी के बारे में मोहन भागवत क्या कहेंगे, जो हाल के वर्षों में भारतीय बैंकों के अरबों रुपए हड़प कर विदेशों में जा बसे हैं। क्या उनका कृत्य देश-विरोधी अपराध के दायरे में नहीं आते हैं?
उपरोक्त सारे उदाहरणों का आशय समूचे हिंदू समाज को लांछित या अपमानित करना क़तई नहीं है। मक़सद सिर्फ़ यह बताना है कि चाहे वह गोडसे हो या दारासिंह, चाहे सिख विरोधी हिंसा के अपराधी हों या गुजरात के क़ातिल, चाहे वह चर्चों और ईसाइयों के घरों में आग लगाने वाले हों या माओवादी लड़ाके, सबके सब चाहे वे जिस जाति या प्रदेश के हों या चाहे जो भाषा बोलते हों, वे सब संघ की परिभाषा के तहत हिंदू ही हैं। इसलिए यह दंभोक्ति निहायत ही अतार्किक और बेमतलब है कि कोई हिंदू कभी भारत विरोधी या आतंकवादी नहीं हो सकता।