बीजेपी की विभाजनकारी राजनीति को सही ठहराना चाहते हैं भागवत!
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने हाल में कहा कि लोगों को जोड़ने का काम राजनीति पर नहीं छोड़ा जा सकता। क्या इसका आशय यह भी है कि राजनीति विभिन्न समुदायों को जोड़ने की जगह तोड़ने का काम करती है? इसलिए वह काम, यानी लोगों को क़रीब लाने का किसी और को करना चाहिए? किसको? क्या वह काम संघ कर रहा है या उसे करना चाहिए? और यह उन्होंने क्यों कहा होगा?
राजनीति का स्वभाव विभेद पैदा करना है, द्वंद्व पैदा करना है। उसी द्वंद्व या विभेद के आधार पर वह समर्थकों की गोलबंदी करती है। या इसे इस तरह भी समझें कि अगर मुझे अपने लिए समर्थक जुटाने हैं तो मुझे अनिवार्य रूप से एक शत्रु समूह की कल्पना करनी पड़ेगी जिसके मुक़ाबले अपने समूह को सुरक्षा का आश्वासन देकर मैं उसे अपनी तरफ़ आकर्षित कर सकूँगा।
क्या यह राजनीति के लिए जायज़ है? क्या इसी कारण हम चुनावों में और उनके पहले और बाद भी लगातार ऐसा अभियान देखते हैं जिसमें अपने मतदाताओं को कुछ राजनीतिक दल डराते रहते हैं कि उनके अलावा और कोई उनके हित की रक्षा नहीं कर सकता। उनके मतदाता एक ही प्रकार के होते हैं। उनमें विविधता नहीं होती।
लेकिन क्या हर प्रकार की राजनीति इसी भाषा में की जाती है? क्या ऐसी राजनीति भी है जो लोगों को जोड़ने को एक राजनीतिक कार्य मानकर अपने मतदाताओं से बात कर सकती है?
कौन से राजनीतिक दल हैं जो समाज के अलग-अलग तबकों को, जिनमें एक-दूसरे को लेकर संदेह, पूर्वाग्रह हैं साथ लाने की कोशिश करते हैं? कौन से राजनीतिक दल हैं जो इस संदेह को और बढ़ाते हैं? भारत में यह पहचानना मुश्किल नहीं है।
श्मशान और क़ब्रिस्तान
जब कोई नेता अपने मतदाता को कहे कि उसके लिए श्मशान नहीं हैं जबकि दूसरों के लिए क़ब्रिस्तान हैं तो ज़ाहिर है, वह एक श्मशानवादी समूह का निर्माण कर रहा है और चाहता है कि वह माने कि उसे श्मशान इसलिए नहीं मिल पा रहा है कि किसी को क़ब्रिस्तान मिल रहा है। या जब कोई कहे कि हिंदू आबादी घट रही है और इसका कारण घुसपैठिए हैं जो मुसलमान हैं तो ज़ाहिर है, वह हिंदुओं में प्रत्येक मुसलमान के लिए पहले से मौजूद पूर्वाग्रह को और गहरा कर रहा है।
एक मुसलमान का पैदा होना एक हिंदू के लिए ख़तरा है इसलिए उनकी जनसंख्या नियंत्रित की जानी चाहिए जबकि हिंदू औरतों को और बच्चे पैदा करने चाहिए। यह बात तो और कोई नहीं अपनी ख़ास कूट भाषा में मोहन भागवत ही कह चुके हैं।
देखिए, मोहन भागवत के बयान पर चर्चा-
जन्म दर को लेकर प्रचार
हिंदुओं की जन्म दर घट रही है जबकि मुसलमानों की बढ़ रही है, यह प्रचार क्या हिंदुओं को मुसलमानों के प्रति सशंकित करने के लिए नहीं दिया गया? क्या यह प्रचार पिछले कई दशकों से संघ और उसके संगठनों के द्वारा नहीं चलाया जा रहा? जो भागवत यह कह रहे हैं कि राजनीति लोगों को नहीं जोड़ सकती, उनका संघ जोड़ सकता है, वे खुद विभेद पैदा कर रहे हैं।
असम और अब उत्तर प्रदेश की सरकारें जो जनसंख्या सम्बन्धी नीतियाँ बना रही हैं, वह क्या समाज को जोड़ने का काम करेंगी? असम के मुख्यमंत्री कई बार कह चुके हैं कि मुसलमानों को जनसंख्या नियंत्रित करनी चाहिए। यह जानते हुए कि असम के मुसलमानों में जन्म दर राज्य की जन्मदर के बराबर ही है और लगातार घट रही है।
फिर भी वे झूठ क्यों बोल रहे हैं? क्यों उन्होंने कहा कि अगर ऐसे ही आबादी बढ़ती रही तो कामाख्या मंदिर का भी अतिक्रमण हो सकता है? क्या यह विभेदकारी बयान नहीं है?
मुसलिम सीएम या पीएम क्यों नहीं?
भागवत के राजनीतिक दल, यानी बीजेपी ने गुजरात और असम में अपने मतदाताओं को यह कहकर बार-बार डराया है कि अगर उसे वोट नहीं दिया तो कोई मुसलमान मुख्यमंत्री बन जाएगा। अगर हिंदुओं और मुसलमानों में कोई फ़र्क़ ही नहीं है तो क्यों एक मुसलमान के मुख्यमंत्री बनने को ख़तरा बतलाया जाता है? मुसलमान अगर मतदाता है तो वह मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री क्यों नहीं हो सकता?
तो जब मोहन भागवत यह कहते हैं कि राजनीति पर समाज को जोड़ने का काम नहीं छोड़ा जा सकता तो क्या यह वे अपने राजनीतिक दल के लिए भी कह रहे हैं?
बीजेपी और संघ की राजनीति
संघ की राजनीतिक शाखा ही है बीजेपी और उसमें प्रत्येक निर्णायक स्थान पर संघ का कार्यकर्ता या प्रचारक ही है। इसका अर्थ यही है कि बीजेपी की नीतियाँ संघ तय करता है तो बीजेपी जो विभेदवादी राजनीति करती है वह संघ की ही राजनीति है। क्या संघ यह कहना चाहता है कि राजनीति का दूषित काम बीजेपी में होता है, संघ के स्थान में नहीं? या बीजेपी से हमें समाज को जोड़ने की कोई अपेक्षा नहीं करनी चाहिए? अगर उससे न करें तो संघ से कैसे करें क्योंकि बीजेपी के माध्यम से संघ की ही तो राजनीति चल रही है?
लोगों को जोड़ने वाली राजनीति
ऐसा नहीं है कि राजनीति बिना सामाजिक द्वंद्व और विभेद के नहीं चल सकती। न्यूज़ीलैंड या कनाडा के शासक राजनीतिक दलों या जर्मनी के शासक दल के आचरण से स्पष्ट होता है कि ऐसी राजनीति भी सफल हो सकती है जो समाज के अलग-अलग तबकों को आपस में जोड़ने पर बल देती है।
कनाडा में हमने हाल में देखा कि वहाँ के ईसाई, श्वेत प्रधानमंत्री ने मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा को पूरी तरह, खुले गले से अस्वीकार किया। दूसरे राजनेताओं ने भी। न्यूजीलैंड में भी हमने प्रधानमंत्री को मुसलमानों के साथ खड़े देखा। जर्मनी की राष्ट्र प्रमुख मर्केल ने यहूदियों के ख़िलाफ़ हिंसा को अस्वीकार किया।
डोनल्ड ट्रम्प की विभाजनकारी राजनीति के विरुद्ध जो बाइडन ने एक समन्वयवादी राजनीति का प्रस्ताव दिया और समाज उनके साथ आया। इसका अर्थ यह है कि राजनीति समाज को जोड़ने का काम कर सकती है। लेकिन समाज में विभेद मिटाने और समन्वय स्थापित करने के नाम पर वह नाइंसाफ़ी से नज़र नहीं चुरा सकती। वह इंसाफ़ को यह कहकर बाधित नहीं कर सकती कि इससे वह नाराज़ हो जाएगा जिस पर नाइंसाफ़ी का आरोप है।
बयान के मायने
भारत में एकता का अर्थ आरक्षण की समाप्ति नहीं है। जो ऐतिहासिक कारणों से वंचित हैं उनके लिए राज्य के संसाधन का प्रावधान विभेद नहीं पैदा करता। आश्चर्य नहीं कि मोहन भागवत ने समाज में समन्वय के नाम पर ही शायद आरक्षण की समीक्षा की ज़रूरत बतलाई थी। जो बलशाली है, संख्या और अन्य कारणों से, उसके लिए जो सुविधाजनक समन्वय है वह निश्चय ही दबाए हुए या अल्पसंख्यकों के लिए अधीनता की स्थिति होगी। वे इस पर प्रश्न करें तो विभेद होगा।
मोहन भागवत यह कूट भाषा में ही कहना चाहते हैं कि न्याय की यह माँग या बराबरी की इच्छा छोड़ देनी चाहिए। अगर आततायी ने बाँहें फैला दीं तो आपको खुद को उसके धृतराष्ट्र आलिंगन में सौंप देना चाहिए। अगर आप ऐसा नहीं करते तो उस बेचारे का दिल दुखाने का इल्जाम आप पर लगना ग़लत न होगा।
भागवत की बात का आशय लेकिन और गंभीर है। वह राजनीति को नैतिकता से रहित कार्रवाई मानने को कह रहे हैं। यह कह कर कि राजनीति का स्वभाव ही यह है, वे वास्तव में अपने दल, यानी बीजेपी की विभेदकारी हिंसक राजनीति का औचित्य साधन करना चाहते हैं।