सफ़ाई कर्मचारियों के पैर धोने वाले मोदी सीवेज टैंक में मौत क्यों नहीं रोकते?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रयागराज में सफ़ाई कर्मचारियों के पैर धोकर यह संकेत देने की कोशिश की है कि वह इन लोगों की कितनी परवाह करते हैं और समाज के इस वंचित तबके से उन्हें कितना प्रेम है। चुनाव के ठीक पहले उनके इस दलित प्रेम के राजनीतिक निहितार्थ तो हैं ही, उसका सामाजिक महत्व भी है। मोदी यह संकेत देना चाहते हैं कि वह समाज के हाशिए पर धकेल दिए गए लोगों के साथ खड़े हैं, साथ ही उनकी नज़र सोशल इंजीनियरिग पर भी है।
पर नरेंद्र मोदी सफ़ाई कर्मचारियों के प्रति जो प्रेम दिखा रहे हैं, क्या उसके अनुरूप काम भी करते हैं इसे इस बात से समझा जा सकता है कि सीवेज टैंक की सफ़ाई करते हुए लोगों की मौत रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने जो सिफ़ारिशें की थीं, उन्हें कई साल बाद भी केंद्र सरकार ने लागू नहीं किया है। सीवेज टंकियों में सफ़ाई करते हुए लोग मर रहे हैं, ये मौतें बीजेपी-शासित राज्यों में भी हो रही हैं। पर इस तरह की मौत रोकने के लिए न तो नरेंद्र मोदी सरकार ने कुछ किया है न ही बीजेपी-शासित राज्य सरकारों ने।
दलित नेता और भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आज़ाद उर्फ़ रावण ने इसी सच्चाई को उजागर करते हुए ट्वीट कर कहा कि एक बार गटर में उतर कर देखिए।
हमारे पैर हम खुद धो लेंगे जजमान हमारी पीड़ा को समझना है तो एक बार गटर में उतरकर देखिए तब पता चलेगा।
— Chandra Shekhar Aazad (@BhimArmyChief) February 24, 2019
अब हम झांसे मे आने वाले नही है#ModiKumbhVisit
सफ़ाई कर्मचारियों के पैर धोने पर तंज करते हुए गुजरात के दलित नेता जिग्नेश मेवानी ने कहा कि हाथ से मैला उठाने वालों के लिए वैकल्पिक रोज़गार का इंतजाम कीजिए, उन्हें प्रश्रय मत दीजिए।
Don't patronise Dalits, Modiji.
— Jignesh Mevani (@jigneshmevani80) February 24, 2019
Put an end to manual scavenging, give respectable jobs. Stop with your agenda to end reservations in university recruitments!
सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक बेजवाड़ा विलसन ने तंज कसते हुए मोदी से कहा कि वह हमारे पैर नहीं, अपना दिमा साफ़ करें। उन्होंने संकेत किया कि रोज़ाना 1.6 लाख महिलाएं अपने हाथों सो मल साफ़ करती हैं।
Clean your mind not our feet, Mr. PM! Highest form of humiliation. 1.6 lac women still forced to clean shit, not a single word in five years. What a shame! #StopKillingUs https://t.co/Hs898ZJlT5
— Bezwada Wilson (@BezwadaWilson) February 24, 2019
राष्ट्रीय सफ़ाई कर्मचारी आयोग ने अपनी हालिया रिपोर्ट में कहा है कि साल 1993 और 2018 के बीच सीवेज या सेप्टिक टैंक में हाथ से सफ़ाई करते हुए 666 मौतें हुई हैं। 2017 के जनवरी से 2018 के जुलाई तक 123 लोग इस तरह की मौत मरे हैं। यानी हर पांच दिन में एक कर्मचारी मारा गया है। सबसे ज़्यादा मौतें गुजरात में हुईं।
सर्वोच्च अदालत ने अपने एक आदेश में कहा है कि इस तरह की मौत की स्थिति में मृतक के परिजनों को 10 लाख रुपए का मुआवज़ा दिया जाना चाहिए। लेकिन इस आदेश का भी पालन नहीं हुआ है। राष्ट्रीय सफ़ाई कर्मचारी आयोग ने यह माना है कि 2018 में जो 123 लोग मारे गए, उनमें से सिर्फ़ 70 लोगों के परिवार वालों को ही मुआवज़ा मिला है।
यह तो साफ़ है कि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का उल्लंघन स्वयं सरकारी एजेंसियाँ कर रही हैं। राज्य सफ़ाई कर्मचारी आयोग अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए बने मंत्रालय के अधीन आता है। सरकार दलितों के हितों की रक्षा करने के दावे तो कर रही है। पर यह अपने ही एजेंसी से अदालत के आदेश का पालन सख्ती से करवाने में नाक़ाम है।
पिछले दिनों दिल्ली जल बोर्ड से जुड़े एक सीवेज टैंक की सफ़ाई करते हुए पाँच लोगों की मौत होने के बाद मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने एलान किया था कि सीवेज की सफ़ाई करने का काम हाथ से नहीं करवाया जाएगा, उसके लिए विदेश से ख़ास मशीनें मँगवाई जाएँगी। दिल्ली सरकार अपनी इस घोषणा को लागू करने की दिशा में कितना आगे बढ़ी है, पता नहीं। पर केंद्र सरकार ने इस बारे में अब तक कुछ नहीं किया है, यह एकदम साफ़ है। नरेंद्र मोदी या उनकी सरकार के किसी दूसरी मंत्री ने इस पर कोई पहल नहीं की है।
दूसरी अहम बात यह है कि केंद्र और राज्य सरकारें सीवेज सफ़ाई के काम में लगे लोगों के लिए वैकल्पिक रोज़गार मुहैया कराने को लेकर एकदम उदासीन है। इसका नतीजा यह है कि जो लोग इस काम में लगे हैं, वे कम पैसे में सुरक्षा के किसी इंतजाम और ज़रूरी उपकरणों के बग़ैर निजी ठेकेदारों के यहाँ काम करने को मजबूर हैं। उनके बच्चे भी इस काम को अपना लेते हैं। निजी ठेकेदारों से काम कराने की वजह से सरकारी एजेंसियाँ किसी तरह की ज़िम्मेदारी से साफ़ बच निकलती हैं। वे सारा दोष उस निजी ठेकेदार पर डाल देती हैं, जिसे उन्होंने यह काम 'आउटसोर्स' किया होता है। सरकार बस मुआवजे का एलान करती है, वह भी कुछ ही लोगों को मिल पाता है और वह भी बहुत देर से।
'स्वच्छ भारत अभियान' पर करोड़ों रुपये खर्च करने वाली नरेंद्र मोदी सरकार के पास साफ़-सफ़ाई से जुड़े लोगों के लिए वैकल्पिक रोज़गार नहीं है। उनके पुनर्वास की व्यवस्था नहीं है, सफ़ाई कर्मचारियों या उनके बच्चों के लिए कोई योजना नहीं है। सरकार राष्ट्रीय सफ़ाई कर्मचारी आयोग की सिफ़ारिशों को कूड़े के ढेर पर डाल देती है, सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को लागू नहीं करती है।
बढ़ता दलित अत्याचार
दरअसल बीते पाँच साल में दलितों पर अत्याचारों में इजाफ़ा हुआ है। इसके लिए दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववादी तत्व और सवर्णों का वह तबका ज़िम्मेदार रहा है, जो बीजेपी, संघ परिवार और मोदी की राजनीति के मुख्य स्तम्भ है।मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद दलित अत्याचार की कुछ ऐसी वारदात हुईं, जिन पर पूरे देश में राजनीतिक भूचाल आया और सरकार को सफ़ाई देनी पड़ी। इनमें दो प्रमुख हैं। हैदराबाद विश्वविद्यालय में पीचएचडी कर रहे दलित छात्र रोहित वेमुला के आत्महत्या ने पूरे देश को हिला दिया था।
वेमुला के छोड़े सुसाइट नोड की बहुत ही चर्चा हुई थी। उसने पूरी व्यवस्था पर सवालिया निशान लगाया था। उन्हें आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय पर लगा था। उस समय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने जिस तरह लोकसभा में सरकार का बचाव किया था, उन्हें असंवेदनशील क़रार दिया गया था। वेमुला का लिखा सुसाइड नोट:
इसी तरह गुजरात के ऊना में मरी हुई गाय की खाल उतार रहे दलित युवकों पर गोकशी का आरोप लगा कर पकड़ लिया गया और उन्हें बुरी तरह मारा पीटा गया। इस पर भी पूरे देश में काफ़ी बावेला मचा था।
मामला यहीं नहीं रुका। एक के बाद एक घटनाएँ होती रहीं और मोदी सरकार एक बाद एक ऐसे फ़ेसले लेती गई जिसे दलित-विरोधी कहा गया या कम से कम दलितों ने उन्हें ऐसा माना। हाल ही में मोदी सरकार ने दलित-उत्पीड़न क़ानून में जो बदलाव किया, उस पर काफ़ी हल्ला मचा और सरकार को अपने पैर पीछे खींचने पड़े। ताजा उदाहरण विश्वविद्यालय में नियुक्ति से जुड़े रोस्टर प्रणाली में लाए गए बदलाव को लेकर है।
गोरक्षा ने छीना रोज़गार
दूसरी बातें भी हैं, जो बीजेपी, उनकी सरकारों और उनसे जुड़े संगठनों को कटघरे में खड़ा करती हैं। गोरक्षा के नाम पर जिस तरह की ज़्यादतियाँ हो रही हैं, उससे मुसलमान ही नहीं, दलित भी प्रभावित हुए हैं। गोरक्षा मुहिम से दलितों की रोजी-रोटी पर भी बुरा असर पड़ रहा है। चमड़ा उद्योग का लगभग सारा काम दलित समुदाय के लोग ही करते थे और इससे जुड़े धंधों में लाखों की तादाद में वे काम करते हैं। गोरक्षा की वजह से चमड़ा उद्योग संकट में है और बड़ी तादाद में दलित बेरोज़गार हुए हैं। इन सबका असर यह है कि दलित गुस्से में है।चंद्रशेखर आज़ाद उर्फ़ रावण और जिग्नेश मेवाणी जैसे तेजी से उभरते हुए दलित नेता दलित आक्रोश और दलित अस्मिता की लड़ाई का प्रतीक बन रहे हैं, वे इसे नई दिशा दे रहे हैं। इससे भी बीजेपी सांसत में है।
दलितों के पैर धोने के इस सांकेतिक रस्म को आम चुनाव से जोड़ कर देखा जा सकता है। बीजेपी की कोशिश यह है कि उसे सवर्णों के साथ-साथ दलितों के वोट भी मिले। उनके सामने मायावती का उदाहरण भी है, जिन्होंने 2006 में दलितों के साथ-साथ सवर्णों को भी बहुजन समाज पार्टी से जोड़ने की कोशिश की थी और कुछ हद तक कामयाब भी हुई थीं। यही वजह है कि बीजेपी और उसकी साइबर आर्मी यह प्रचारित कर रही है कि मोदी देश के पहले प्रधानमंत्री हैं, जिसने दलितों के पैर धोए हैं। पैर धोने से दलितों का भला तो होने से रहा, बीजेपी को कितना फ़ायदा होगा, इस पर भी संदेह है।