(...गतांक से आगे)
आपातकाल की 46वीं वर्षगाँठ पर (बीते शुक्रवार) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का छोटा सा ट्विटर संदेश ख़ासा दिलचस्प तो है ही राजनीतिक अंतर्विरोध की ज़बरदस्त गुत्थियों में उलझा हुआ भी है। अपने संदेश में वह लिखते हैं- ‘इमरजेंसी के भयावह दिनों को कभी नहीं भुलाया जा सकता...।’ कांग्रेस पर लोकतांत्रिक परम्पराओं के अपहरण का आरोप लगाते हुए मोदी आगे लिखते हैं- ‘...1975 से 1977 का समय संस्थाओं को सिलसिलेवार रूप से नष्ट किये जाने का युग था। आइए भारत की लोकतांत्रिक आत्मा को सुदृढ़ करने और संविधान प्रदत्त मूल्यों को जीवंत बनाने के लिए हर संभव प्रतिज्ञा लें।’
क्या अनेकानेक बार आपातकाल का ज़िक्र करके प्रधानमंत्री का इरादा देशवासियों को इंदिरा गाँधी की उस अलोकतांत्रिक हरक़त से देश को असंवैधानिक अंधकार के गर्त में धकेल दिए जाने के आँसू बहाकर वोट बैंक के अपने लॉकर में राजनीतिक नक़दी बढ़ाना है? क्या जनता की स्मृतियों को कुरेद-कुरेद कर वह अपनी उस शत्रु नंबर एक पार्टी और उसके मौजूदा नेतृत्व को बारम्बार ज़लील करना चाहते हैं? उन्हें बेशक इतिहास के जिस्म पर जिनके पूर्वजों ने कभी अलोकतांत्रिकता का गहरा ज़ख्म लगाया हो लेकिन जो पुरखों की भूल पर कई-कई बार ‘राख डाल' चुके हैं और जिनके नेता राहुल गाँधी अपनी दादी के इस कृत्य को कई बार अलग-अलग सिरे से ख़ारिज कर चुके हैं।
या फिर मोदी जी की मंशा देशवासियों को अपनी लोकतान्त्रिक परंपराओं के भविष्य के प्रति सजग और सचेत बनाये रखने की है? क्या वह यह कह डालना चाहते हैं कि संविधान और परम्पराओं द्वारा प्रदत्त लोकतान्त्रिक और मौलिक अधिकारों को कुचल कर हासिल इतिहास के इस घृणित 'एक्शन' को दोबारा करने की छूट किसी को नहीं दी जानी चाहिए और यदि कोई ऐसा करने की जुर्रत करता है तो देशवासी तत्काल उसका मुंह नोच डालने की उसे वैसी ही सज़ा दें जैसी उन्होंने पूर्व में इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी को दी थी?
हो सकता है कि सच्चाई ढूंढने में लोगों को मुश्किल हो। इसके लिये हाल के सालों में लिए गए उनके, उनकी सरकार और पार्टी के, राज्यों में हुकूमतों का संचालन करने वाले उनके लग्गुओं-भग्गुओं, उन लग्गुओं-भग्गुओं की सरकार और पार्टी के निर्णयों को लोकतान्त्रिक लैब में टटोलकर देखा जाए। पता तो चले कि मोदी का असली मक़सद क्या है?
क्रमबद्ध जाँच में सबसे पहले जम्मू-कश्मीर को लिया जाना चाहिए जिसके उन नेताओं के साथ पीएम ने ठीक एक दिन पहले ही उच्च स्तरीय वार्ता की जिनमें से ज़्यादातर को उन्होंने 23 महीने पहले देशद्रोही बता कर लंबे समय के लिए नज़रबंद कर दिया था और जो अदालती हस्तक्षेप से महीनों बाद रिहा हो सके। मीटिंग के बाद जारी प्रेस विज्ञप्ति में पीएम का वक्तव्य है- ‘जम्मू कश्मीर में सरकार की प्राथमिकता लोकतंत्र को धरातल के स्तर पर सुदृढ़ करना है।’
संविधान प्रदत्त मूल्यों को सुदृढ़ बनाने का अलाप छेड़ने वाले पीएम की अगुवाई में 5 अगस्त 2019 को संविधान की धारा 370 को यह कहकर चकनाचूर कर डाला गया कि यह उनकी पार्टी का चुनावी एजेंडा था।
इतना ही नहीं, लोकतान्त्रिक संस्थाओं को नष्ट किये जाने की इंदिरा गाँधी की पुरातनकाल की कोशिशों पर अफ़सोस प्रकट करने वाले प्रधानमंत्री ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा को विश्वास में लेने की रंच मात्र कोशिश के बिना ही राज्य का मनमाफिक विभाजन करके इसे 2 केंद्र शासित प्रदेशों में बदल दिया। इतना ही नहीं, सभी प्रमुख पार्टियों के नेताओं को जेल में डालकर जिस तरह विकास परिषद के एकतरफा चुनाव करवा डाले वह अपने आप में इतिहास की कभी न भुलाई जा सकने वाली परिघटना है।
यही नहीं, 18 महीने तक यहाँ इंटरनेट को बंद रखा गया। सर्वोच्च न्यायालय के दख़ल के बाद और 'अदालत' द्वारा इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी को प्रतिबंधित किये जाने का मसला बताकर तत्काल खोले जाने के आदेश के महीनों बाद इसे खोला गया। इंटरनेट के शट डाउन हो जाने के एक्शन ने जम्मू कश्मीर के तमाम हथकरघा और फल के घरेलू और विदेश व्यापार को पूरी तौर पर चौपट कर डाला। सरकार ने विपक्षी सांसदों के श्रीनगर में प्रवेश को प्रतिबंधित कर दिया। उसने विदेशी संवाददाताओं और राजनयिकों के जम्मू कश्मीर प्रवेश के अनुरोध को सिरे से ख़ारिज कर दिया। सरकारी प्रचार और मुख्यधारा मीडिया की मदद से देश भर में ऐसी हवा बनाने की कोशिश की गयी जैसे अगस्त 2019 से कश्मीरियों ने कोई जंग छेड़ रखी है और 'बेचारी सरकार' को उनसे जूझना पड़ रहा है।
भले ही अपने एक पिछलग्गू एनजीओ के कन्धों की सवारी करवा कर मोदी सरकार 'यूरोपियन पार्लियामेंट' के कतिपय दक्षिणपंथी सदस्यों को 20 अक्टूबर 2019 को जम्मू कश्मीर भ्रमण पर ले आयी लेकिन इससे सारी दुनिया में होने वाली मोदी प्रशासन की थू-थू में रत्ती भर भी कमी नहीं आयी।
जून के महीने में कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह ने मीडिया को दिए एक बयान में कह दिया कि यदि कांग्रेस सत्ता में आयी तो धारा 370 की बहाली पर विचार होगा। सिंह के बयान पर मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने कहा कि कांग्रेसी नेता पाकिस्तान की भाषा बोल रहे हैं। बीजेपी के तमाम छोटे-बड़े नेताओं ने दिग्विजय की बड़ी ले-दे की लेकिन 24 जून की मीटिंग में प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के सामने जब उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ़्ती सहित कई नेताओं ने धारा 370 को हटाए जाने की बात की तो न तो अगस्त 2019 से 'गुपकार गैंग' कह कर अब्दुल्ला और मुफ़्ती आदि को पुकारने वाले गृहमंत्री ने उन्हें खामोश हो जाने की धमकी दी और न प्रधानमंत्री ने मीटिंग बर्ख़ास्त कर दिए जाने की धमकी दी।
इसके विपरीत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कहना पड़ा- "हम कश्मीर में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के लिए पूरी तौर पर प्रतिबद्ध हैं।" उन्होंने ज़मीनी स्तर पर लोकतंत्र को मजबूत करने और "जम्मू कश्मीर के लोगों के साथ मिलकर काम करने" की आवश्यकता पर ज़ोर दिया ताकि उनका उत्थान सुनिश्चित हो सके। साथ ही "सभी प्रतिभागियों द्वारा समर्थित संविधान और लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्धता पर प्रसन्नता व्यक्त की।“ अब ऐसे में शिवराज सिंह चौहान जैसे बेचारे (!) दूसरे भाजपा नेताओं को अपनी देशभक्ति दिखाने के लिए मन मसोस कर रह जाना पड़ा।
कश्मीर की विशेषज्ञ सुहासिनी हैदर ने 24 जून की बैठक पर 'द हिंदू' में लिख कर पूछा है - “वे कौन से दबाव थे जिनके चलते मोदी को उक्त बैठक बुलानी पड़ी? क्या कश्मीर ने भारत की छवि को दुनिया भर में इस क़दर बिगाड़ दिया था जिसकी वजह से विदेश मंत्री को अनेक देशों में घूम घूम कर स्पष्टीकरण देने पड़े हैं? क्या बावजूद इसके उन्हें इससे कोई लाभ नहीं हो सका था?"
इसमें कोई शक नहीं कि कश्मीर के 'हिन्दू-मुसलमान' और इनसे जोड़कर पकिस्तान को दर्शाने वाले मोदी प्रशासन ने बीते सालों में पूरे देश में कश्मीर को 'शत्रु प्रदेश' के रूप में पेश किया।
मोदी सरकार ने कश्मीर के अनेक ढांचागत क़ानूनों को बदल डाला जिसमें 'बाहरी' तत्वों को स्थायी रूप से यहाँ बसने का क़ानून भी शामिल है। मुख्यधारा मीडिया की मदद से स्वयं पीएम और उनकी सरकार ने कश्मीर को ख़ास तौर पर हिंदी पट्टी में फोकस किया हुआ था। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी यूपी के 'भइया' लोगों को कश्मीर में रियल स्टेट बिज़नेस दिलवाने में बिज़ी हो गए। उनकी देखा देखी शिवराजसिंह चौहान श्रीनगर और गुलमर्ग में ‘मालवीय प्लॉट' की मलाई चाटने के सपने दिखाने में जुट गए और मनोहर लाल खट्टर कश्मीर के भीतर हरियाणा की तलाश में उलझ गए। बाक़ी पूरी बीजेपी और 'संघ' परिवार मान कर चल ही रहे थे कि बैलेट बॉक्स कश्मीर का हो तो वोट यूपी के झरेंगे।
तब सवाल यह उठता है कि पीएम के रवैये में यह अंतर आया कैसे? क्या मोदी या अमित शाह को यह इल्हाम हो गया कि कश्मीर में लोकतंत्र का गला दबाने के ख़िलाफ़ पूरे देश में माहौल बन रहा है? ऐसा सोचना संभवतः नरेंद्र भाई के आत्मबल को कम करके आंकना होगा। तब क्या लम्बे इंतजार के बाद सुप्रीम कोर्ट का जागना और उनके कश्मीर में सरकार विरोधी कुछ फ़ैसले सुना देने का हाथ है? इसमें कुछ हद तक सचाई हो सकती है लेकिन यह उन्हें झुकाने का अंतिम सच नहीं था। अंतिम सच था अमेरिकी चुनावों में सत्ता बदल के बाद वाशिंगटन डीसी से बह कर नयी दिल्ली पहुँचने वाली हवा का।
भारत में होने वाली मानवाधिकारों की निरंतर गिरावट से समूची दुनिया में मोदी सरकार की भद्द पिट रही थी। अमेरिकी सियासत में इसे लेकर तब भी बड़ी सनसनी थी जब डोनल्ड ट्रम्प राष्ट्रपति थे और उनके साथ अपनी दोस्ती की गलबहियों पर रश्क़ करने का प्रधानमंत्री मोदी दावा किया करते थे। ट्रम्प कार्यकाल के दौरान ही अगस्त 2020 में ही अमेरिकी संसद की विदेश मामलों की समिति (एचएफ़एसी) के डेमोक्रेट अध्यक्ष इलियट एंगेल और इसी समिति के रिपब्लिकन रैंकिंग सदस्य मिशेल मेककॉल ने अपने एक संयुक्त पत्र में भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर को लिखा- "अब जबकि एक साल पूरा हो चुका है, समय आ गया है कि आप कश्मीर में धारा 370 के निराकरण की दिशा में कुछ ठोस क़दम उठायें। हम दोनों देशों के संबंधों का सहयोग करते हुए इस बात पर चिंता प्रकट कर रहे हैं कि साल बीत जाने, धारा 370 हटाने तथा इसे केंद्र शासित प्रदेश बनाने के बावजूद जम्मू कश्नीर में हालत सामान्य नहीं हुए हैं।"
मोदी सरकार की कश्मीरी नीतियों पर लेकिन गहरी नज़र रखने की गंभीर प्रक्रिया अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन का कार्यकाल शुरू होने के साथ और यूएस सीनेट में डेमोक्रेट्स का नियंत्रण हासिल होने के तत्काल बाद शुरू हुई। ज़ाहिर है उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की इसमें उत्प्रेरक की भूमिका रही। अमेरिकी रक्षा मंत्री लॉएड जे ऑस्टिन की मार्च 2021 में हुई भारत यात्रा की पूर्व बेला पर सीनेट की विदेश संबंधों की समिति के अध्यक्ष रॉबर्ट मेनेंडेज़ ने उन्हें सार्वजनिक पत्र लिखकर भारतीय अधिकारियों के साथ होने वाली वार्ता में उनके देश में लोकतंत्र के बिगड़ते हालात पर चर्चा करने को कहा। ऑस्टिन के पास व्हाइट हाउस के दिशा निर्देश पहले से ही थे, मेनेंडेज़ के सार्वजानिक पत्र ने उन पर अमेरिकी जनमानस का अतिरिक्त दबाव भी बढ़ाया। ऑस्टिन की इस यात्रा के बाद पहली बार मोदी प्रशासन को महसूस हो गया कि कश्मीर में मानवाधिकारों के कुचलते रहने की अंतरराष्ट्रीय छूट ज़्यादा समय तक उनके पास नहीं रहने वाली। इस अमेरकी दबाव के सामने दिल मसोस कर लोकतान्त्रिक बन जाने के अलावा मोदी जी के पास दूसरा वैकल्पिक प्रबंध भला क्या हो सकता था?
(कल के अंक में जारी...)