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महंगाई: क्यों ‘टॉप’ से ‘टोटल’ तक फेल रहे मोदी?

महंगाई: क्यों ‘टॉप’ से ‘टोटल’ तक फेल रहे मोदी?

रोजमर्रा की सबसे बड़ी ज़रूरत वाली तीन सब्जियों- आलू, प्याज और टमाटर की महंगाई आख़िर बार-बार आसमान क्यों छू लेती है? किसान कभी सब्जियाँ सड़कों पर फेंकने को मजबूर होते हैं तो कभी ग़रीबों की इसको ख़रीदने की क्षमता तक नहीं बच पाती?  अगर भाषणों में “अन्नदाता” या “मेरे किसान भाई” कहने से ही या हर किसान परिवार को 17 रुपये रोज दे कर “सम्मान” करने से ही काम चलता हो तो वास्तविक विकास कैसे होगा। 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी रणनीति के तहत एक लुभावने नारे की असफलता के बाद दूसरा लुभावन नारे दे देते हैं और पहले नारे को भूल जाते हैं। इसका नतीजा दस साल बाद अब झेलना पड़ा है जब महंगाई मोदी की लगातार असफलताओं की चुगली खाते हुए आसमानी हो गयी और जनता ने इस नेता को नकारना शुरू कर दिया। सीआईआई की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार देश में किसानों के अथक श्रम और व्यय से पैदा होने वाले 35 करोड़ टन फल व सब्जियों का 35 प्रतिशत बर्बाद हो जाता है। क्या कोई किसान समाज ऐसी निकम्मी सरकार को माफ़ कर सकता है?

याद करिए सन 2016 में यूपी चुनाव के चंद महीने पहले बरेली में पीएम मोदी की जनसभा जिसमें किसानों की आय दूनी करने का वादा किया था। ताज़ा आँकड़े बताते हैं कि किसानों की वास्तविक आय (महंगाई-एडजस्ट करने के बाद) घट गयी है। फिर आया 2019 का आमचुनाव। मोदी जी ने कुछ माह पहले यानी वर्ष 2018 में फिर लॉन्च की एक और कर्णप्रिय नारे वाली ‘टॉप’ स्कीम। रोजमर्रा की सबसे बड़ी ज़रूरत वाली तीन सब्जियां हैं– आलू, प्याज और टमाटर। इनकी महंगाई से आज देश कराह रहा है। इनके अंग्रेज़ी नामों के प्रथम अक्षर को जोड़ क ‘टॉप’ योजना का नामकरण हुआ था। उद्देश्य था इनके रखरखाव के लिए देशव्यापी कोल्ड चेन और विपणन के लिए मंडियों का एकीकरण ताकि किसान मजबूरी में औनेपौने न बेंचे। कालान्तर में इस स्कीम को विस्तार दे कर ‘टोटल’ नाम दिया गया था और 22 और आइटम्स इनमें जोड़े गए। नयी स्कीम तो पुरानी से भी लुभावनी थी। लेकिन आज दस वर्षों में भी कोल्ड स्टोरेज की क्षमता 350 लाख टन से मात्र 11 प्रतिशत बढ़ कर 394 लाख टन हुई है जो कुल 35 करोड़ टन के उत्पादन का 12 प्रतिशत है।

सीआईआई की रिपोर्ट के अनुसार किसानों की अथक श्रम से पैदा हुई फल-सब्जियों का 35 प्रतिशत कोल्ड चेन जैसे रखरखाव के अभाव में बर्बाद हो जाता है। फिलहाल आलू, प्याज और टमाटर के दाम क्रमशः 25, 35 और 70 प्रतिशत बढ़े हैं। विगत चुनाव में भी इस महंगाई ने अपनी भूमिका निभाई है। याद करें कि पिछले साल इन्हीं दिनों टमाटर 250-300 रुपये किलो तक बिका था। अगर आगरा-फर्रुखाबाद का किसान दो साल पहले आलू सड़कों पर फेंका क्योंकि मंडी ले जाने का भाड़ा भी आलू बेच कर नहीं मिला, लाचार किसानों ने महाराष्ट्र के लासलगाँव के इलाक़े में प्याज और कर्नाटक में टमाटर खेत में हीं दबा दिया तो यह समस्या रखरखाव के साथ खाद्य प्रसंस्करण की योजना की असफलता की है। 

क्या इन योजनाओं के तहत मंडियों को आज तक एकीकृत किया जा सका है? इन तीनों फसलों का दस प्रतिशत भी खाद्य प्रसंस्करण उद्योग नहीं ले पाता। ध्यान से सोचें तो क्या कोल्ड चेन बनाना इतना मुश्किल और अधिक निवेश वाला प्रयास है? तभी तो जो टमाटर 10 रुपये किलो कर्नाटक का किसान बेचता है दिल्ली में 150 रुपये हो जाता है? इसका कारण है सरकार का मार्केट इंटरवेंशन (बाज़ार में हस्तक्षेप) यानी उत्पाद की खरीद का मूल्य सुनिश्चित न करना। महंगाई कम करना सरकार के सार्थक प्रयासों पर निर्भर है। 

आलू गरीब व मध्यम वर्ग का प्रमुख भोज्य पदार्थ है। इसे अनगिनत तरीकों से इस्तेमाल किया जाता है। यह मार्केट फोर्सेज का ही कमाल है कि पांच से दस रुपये किलो की दर से किसानों से खरीद कर इसका चिप्स बना कर बड़ी कंपनियां इसे 400-500 रुपये किलो बेच रही हैं। चिप्स उद्योग कोई रॉकेट साइंस का इस्तेमाल नहीं करता, न ही अरबों की लागत लगती है। 

छोटी-छोटी इकाइयों के ज़रिये स्थानीय स्तर पर लघु उद्योग खड़े किये जा सकते थे। स्टार्च निकल कर अनेक उद्योगों को कच्चे माल के रूप में बेचा जा सकता था। टमाटर की प्यूरी वर्षों तक सुरक्षित रखी जा सकती है। प्याज का पाउडर इन दिनों काफी प्रचलन में है।

अगर ऐसे उद्योग लगते तो किसान अपना उत्पाद न तो सड़कों पर फेंकता ना ही एक काल विशेष में जब बारिश ज्यादा होने लगती है तो इन उत्पादों की महंगाई आम आदमी की कमर तोड़ती। और तब शायद मोदी भी 400 के पार होते। 

और तब शायद किसानों की आय भी दूनी होने की दिशा में मोदी कुछ कदम चलते हुए दीखते। लेकिन शायद आदत जुमलानुमा योजनाओं से ही गवर्नेंस का कारोबार चलाने का है। अगर भाषणों में “अन्नदाता” या “मेरे किसान भाई” कहने से ही या हर किसान परिवार को 17 रुपये रोज दे कर “सम्मान” करने से ही काम चलता हो तो वास्तविक विकास कैसे होगा। लेकिन मोदी भूल गए कि ऐसे छलावे की भी मियाद होती है। और अब वह मियाद पूरी होने लगी है। वरना गुजरात में एक निजी कंपनी में एक अदद नौकरी के लिए युवाओं की भीड़ एक-दूसरे के कंधे पर लात रखा कर, रेलिंग तोड़ कर जान देने पर आमादा न होती। अंबानी की शाही शादी कुछ लोगों के लिए भारत का अमृतकाल है तो सांख्यिकी मंत्रालय की ताज़ा रिपोर्ट विशाल भारत का विष-काल जिसमें सात वर्षों में अनइंकॉर्पोरेटेड सेक्टर तक में भी 16 लाख जॉब्स कम हुए हैं। इसका कारण है- मोदी की अहंकारनिष्ठ नोटबंदी, जीएसटी के अमल में व्यापक कन्फ्यूजन और कोरोना काल के सख्त लॉकडाउन। क्या मोदी इन गलतियों को कभी मानेंगे?

(लेखक पत्रकार हैं और ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के पूर्व महासचिव हैं। ये लेखक के निजी विचार हैं।)

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