सरकार कह रही है बर्दाश्त करें, लेकिन कब तक?
लिखने को कई विषय हैं लेकिन कम से कम पिछले 9 साल से राष्ट्रीय विषय एक ही बना हुआ है। विषय एक ही है: मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा। हरियाणा के नूंह में हुई हिंसा के बाद गुड़गाँव, सोहना और आस पास मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा पूरी तरह थमी नहीं है।अब सरकार घरों, दुकानों पर बुलडोज़र चला रही है। कहा जा रहा है कि ये सब ग़ैरक़ानूनी हैं लेकिन पूछा जा सकता है कि ठीक इसी समय क्यों अचानक इन्हें गिराया जा रहा है। यह भारतीय जनता पार्टी सरकारों का ईजाद किया हुआ बुलडोज़री बदला लेने का तरीक़ा है।
अभी मुसलमानों को जो बेघर किया जा रहा है उसका तर्क यह दिया जा रहा है कि नूंह की हिंसा की शुरुआत मुसलमानों की तरफ़ से हुई थी। इससे एक स्तर पर मुसलमान भी इंकार नहीं करते। वह एक दूसरी हिंसा का जवाब था, इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता। वह शारीरिक नहीं, भाषा की हिंसा थी। नूंह के मुसलमान बहुल इलाक़े से विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के द्वारा यात्रा निकालने के पहले जो वीडियो जारी किए गए, वे यात्रा की सूचना देने के लिए नहीं, उन्हें अपमानित करने के मक़सद बनाए गए थे। तीन लोग इस हिंसा में मारे गए।
और फिर जवाबी हमले शुरू हुए। वह नूंह नहीं, सोहना और गुड़गाँव तक फैल गए। सैंकड़ों घरों और दुकानों को जलाया गया। धर्मस्थल को तबाह किया गया और एक धर्म गुरू की रात में हत्या कर दी गई। अब तक 6 लोगों की जान जा चुकी है।
उसके साथ या बाद सरकार की कार्रवाई शुरू हुई। एफ़आईआर, गिरफ़्तारियाँ और बुलडोज़र से घरों को ढहाया जाना। यह सब कुछ बिना किसी जाँच के किया जा रहा है। कहने की ज़रूरत नहीं कि गिरफ़्तारी ज़्यादातर एक ही समुदाय की गई है। हरियाणा सरकार के मंत्री और भारतीय जनता पार्टी के एक नेता हैं जो सवाल कर रहे हैं कि यात्रा में हथियार लाने की इजाज़त क्यों दी गई, क्या पुलिस उसका जवाब खोज रही है? उत्तर हमें मालूम है।
हरियाणा सरकार कह रही है कि इस हिंसा के पीछे बहुत बड़ा षड्यंत्र है। एक मंत्री कह रहे हैं कि यात्रा के आयोजकों ने सरकार को अँधेरे में रखा। लेकिन बिना किसी जाँच के, बिना किसी रिपोर्ट के एक समुदाय के लोगों के मकानों, दुकानों को गिराया जा रहा है।
मणिपुर में इतनी भयानक हिंसा के बाद अगर कोई सरकार यह कहे कि उसके राज्य में क्या हो रहा है, इसकी ख़बर उसे नहीं है तो इससे उसके बारे में क्या धारणा बनाई जानी चाहिए? अभी तो हर जगह अतिरिक्त सावधानी, चौकसी की ज़रूरत है। फिर विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल तो भाजपा के ही अपने संगठन हैं। क्या प्रधानमंत्री ने कर्नाटक में बजरंग दल के पक्ष में नारे नहीं लगाए थे? वे संगठन सरकार को अँधेरे में रखकर तनाव और हिंसा का माहौल पैदा कर रहे हैं। क्या यह सब कुछ एक दूसरे से स्वतंत्र है?
अगर इस रिश्ते को समझना हो तो सिर्फ़ यही देख लेना काफ़ी है कि राजस्थान के जुनैद और नासिर की हत्या का अभियुक्त मोनू मानेसर हरियाणा में इत्मीनान से रह रहा है। राजस्थान पुलिस उसे तलाश रही है लेकिन हरियाणा पुलिस उसे पकड़ने में उसकी मदद करने को क़तई इच्छुक नहीं है।
मोनू को हरियाणा सरकार का अभयदान है, यह इससे मालूम हो जाता है कि उसने इस यात्रा के पहले वीडियो बनाकर प्रसारित किया। उसने यात्रा में शामिल होने का ऐलान किया। एक दूसरे वीडियो में मुसलमानों के ख़िलाफ़ अपमानजनक बातें की गईं। क्या हरियाणा सरकार इससे अनजान थी?
यह कहा जा सकता है, जैसा उस इलाक़े के बहुत से मुसलमान कह रहे हैं कि मुसलमानों को यह अपमान पी जाना चाहिए था। उन्हें ख़ुद पर क़ाबू रखना चाहिए था। लेकिन कुछ मुसलमान नौजवान इसे बर्दाश्त नहीं करना चाहते थे। फिर हिंसा हुई। और उसकी ज़्यादा क़ीमत मुसलमानों ने चुकाई।
यह बहुत साफ़ है और मुसलमान इस बात को जानते हैं कि भारत में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच शक्ति का भयानक असंतुलन है। भारतीय राज्य की ताक़त प्रायः हिन्दुत्ववादी संगठनों के साथ है या उसका हाथ उनकी पीठ पर है।
इसे एक-दूसरे तरीक़े से समझने की कोशिश करें। मणिपुर में कुकी लोगों ने भी हिंसा की है। लेकिन जैसा नंदिता हक्सर ने लिखा है, मैतेयी लोगों की पीठ पर सरकार का हाथ है। इसीलिए मैतेयी हिंसा वास्तव में राजकीय हिंसा में बदल गई है। अगर कुकी लोगों का सफ़ाया नहीं किया जा सका है तो उसका कारण यह है कि उनके पास एक इलाक़ा है जहाँ वे इकट्ठा हो सकते हैं और फिर उनके पास भी हिंसा के साधन हैं। इस एक चीज़ ने उनके ऊपर उस तरह का हमला नहीं होने दिया है जैसा भारत में मुसलमानों को झेलना पड़ता है।
यह तय है और यह कई बार देखा गया है कि अगर मुसलमानों ने ख़ुद को हिंसा से बचाने की कोशिश भी की है तो उन्हें दोहरी हिंसा का सामना करना पड़ता है। पुलिस और प्रशासन प्रायः उनके ख़िलाफ़ होता है। अगर ऐसे पुलिस अधिकारी हुए जो हिन्दुत्ववादियों को हिंसा या उपद्रव से रोकें तो या तो उन्हें सरकार दंडित करती है या उनकी हत्या कर दी जाती है। प्रभाकर चौधरी और सुबोध कुमार सिंह ऐसे ही अपवाद हैं। बाक़ी जगह पुलिस अधिकारी हिंसा होने देते हैं।
हम हिंदू समाज को इस पर विचार करने की ज़रूरत है कि क्या कोई कार्यक्रम अब बिना दूसरे समुदाय को अपमानित किए नहीं हो सकता? कितने लोग हरियाणा की विश्व हिन्दू परिषद या बजरंग दल की यात्रा के प्रचार के लिए जारी किए गए वीडियो से सहमत हैं? क्या हम यह सवाल करेंगे कि जब इन्हें पुलिस की जानकारी में लाया गया तो क्यों उसने फ़ौरन उनके प्रसार पर रोक नहीं लगाई? क्यों उनकी निंदा करते हुए कोई बयान नहीं जारी किया? उन्हें बनाने और जारी करनेवालों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की?
प्रशासन अगर इनमें से एक भी क़दम उठाता तो मुसलमानों को भरोसा होता कि सरकार उनके साथ है। लेकिन सरकार उनसे सिर्फ़ यह कह रही है कि आपके साथ जो हो, उसे बर्दाश्त कीजिए। उनकी प्रतिष्ठा की रक्षा और उनके जानमाल की हिफ़ाज़त के लिए सरकार या राज्य की तरह से कोई आश्वासन नहीं है। सिर्फ़ उन्हें सब कुछ मुँह बंद करने के लिए बर्दाश्त करने का आदेश है। उसे मालूम है कि उसके पास ताक़त कम है और नुक़सान उसी का होगा लेकिन कब तक?