अनशन पर बैठे डल्लेवाल से चर्चा तय करने में सरकार को 54 दिन क्यों लग गए?
किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल के आमरण अनशन के 54 दिन बाद अब सरकार ने किसानों को बातचीत के लिए आमंत्रित किया है। डल्लेवाल की हालत अब बेहद नाजुक स्थिति में पहुँच गई थी। वैसे तो किसान पिछले साल फरवरी महीने से ही अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन डल्लेवाल के अनशन के क़रीब दो महीने होने को आए तब सरकार की ओर से बातचीत करने की पहल की गई है। फिलहाल, सरकार के इस फ़ैसले के बाद चिकित्सा सहायता के लिए वह सहमत हुए और उनको ड्रिप चढ़ाई जा रही है। लेकिन सवाल है कि आख़िर सरकार को बातचीत के लिए सहमत होने पर आख़िर इतना समय क्यों लग गया?
इसकी वजह जानने से पहले यह जान लें कि किसान आंदोलन के बारे में सरकार की ओर से क्या कहा गया है और किसानों ने अब इस पर किस तरह की प्रतिक्रिया दी है। किसानों के विरोध पर गतिरोध को दूर करने के लिए केंद्र ने शनिवार को किसानों को उनकी मांगों पर चर्चा करने के लिए अगले महीने बातचीत के लिए आमंत्रित किया। यह सफलता तब मिली जब संयुक्त सचिव प्रिया रंजन के नेतृत्व में केंद्रीय कृषि मंत्रालय के अधिकारियों के एक प्रतिनिधिमंडल ने डल्लेवाल से मुलाकात की और उनके संयुक्त किसान मोर्चा (गैर-राजनीतिक) और किसान मजदूर मोर्चा (केएमएम) के प्रतिनिधियों के साथ बैठक की।
बैठक के बाद प्रिया रंजन ने एक प्रस्ताव पढ़ा जिसमें डल्लेवाल से अपनी भूख हड़ताल ख़त्म करने का आग्रह किया गया और किसान नेताओं को 14 फरवरी को शाम 5 बजे चंडीगढ़ में एक बैठक के लिए आमंत्रित किया गया। यह निमंत्रण डल्लेवाल और एसकेएम (एनपी) और केएमएम के समन्वयक सरवन सिंह पंधेर को दिया गया। अधिकारी ने कहा कि हम दल्लेवालजी के स्वास्थ्य को लेकर बेहद चिंतित हैं। एक अधिकारी ने कहा कि दिल्ली में 9 फरवरी तक आचार संहिता लागू है और 12-13 फरवरी को केंद्रीय बजट पेश होना है। इसलिए पहले बैठक संभव नहीं थी।
सरकार की ओर से इस घोषणा के बाद डल्लेवाल ने कहा, 'अगर भूख हड़ताल पर बैठे 121 किसान मुझे बताएंगे तो मैं चिकित्सा सहायता लूंगा, लेकिन तब तक कुछ नहीं खाऊंगा, जब तक कि एमएसपी को कानूनी गारंटी के रूप में सबसे महत्वपूर्ण मांग सहित सभी मांगें पूरी नहीं हो जातीं।' इसके तुरंत बाद, भूख हड़ताल पर बैठे 121 किसानों ने डल्लेवाल से चिकित्सा सहायता स्वीकार करने का आग्रह किया और वह सहमत हो गए। इसके बाद उन्हें ड्रिप लगाई गई।
जगजीत सिंह डल्लेवाल पिछले साल 26 नवंबर से आमरण अनशन पर हैं। डल्लेवाल के अलावा पंजाब के 111 और हरियाणा के 10 किसान पंजाब और हरियाणा के बीच खनौरी सीमा पर भूख हड़ताल पर हैं। रविवार को दोनों किसान यूनियन मंचों की बैठक के बाद उनसे भी अपना अनशन खत्म करने का आग्रह किया जाएगा।
किसान बातचीत के लिए सरकार पर लगातार दबाव बना रहे थे। इस महीने की शुरुआत में भी पंजाब के कृषि मंत्री ने केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान से व्यक्तिगत हस्तक्षेप करने की मांग की थी।
किसानों से वार्ता क्यों नहीं हो पाई?
इस महीने की शुरुआत में किसान आंदोलन को लेकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई समिति से प्रदर्शनकारी किसानों ने मिलने से इनकार कर दिया था। पहले तो भारतीय किसान यूनियन (उगराहां) ने 4 जनवरी को समिति से मिलने से इनकार कर दिया था। और फिर संयुक्त किसान मोर्चा (राजनीतिक) ने भी ऐसा ही किया। पंजाब-हरियाणा सीमा पर विरोध प्रदर्शन कर रहे किसानों का कहना है कि यह समिति किसी और मक़सद से बनाई गई थी और ऐसे में उनके मुद्दों का समाधान नहीं हो सकता है।
पिछले क़रीब एक साल से चल रहे किसानों के प्रदर्शन के बावजूद किसी मंत्री ने प्रदर्शनकारी किसानों के साथ वार्ता करने की जहमत नहीं उठाई है। जबकि 2020 के किसान आंदोलन में तो किसानों के प्रदर्शन के दौरान क़रीब चार महीने में ही तीन मंत्रियों की टीम 11 बार किसानों के साथ वार्ता कर चुकी थी।
मौजूदा किसान आंदोलन दोबारा पिछले साल 2024 के फरवरी माह में दो किसान संगठनों- संयुक्त किसान मोर्चा (गैर राजनीतिक) और किसान मजदूर मोर्चा द्वारा लंबित मांगों को लेकर शुरू किया गया था। राष्ट्रीय संयुक्त किसान मोर्चा से अलग होकर अपने संगठन के समर्थकों के साथ पंजाब से जगजीत सिंह डल्लेवाल और स्वर्ण सिंह पंधेर ने दिल्ली कूच किया था जिनको हरियाणा के अलग-अलग बॉर्डर पर हरियाणा के सुरक्षा बलों द्वारा रोक दिया गया।
पिछले साल फरवरी की शुरुआत में जब किसानों ने फिर से दिल्ली कूच का आह्वान किया था तो तीन केंद्रीय मंत्री- पीयूष गोयल, तत्कालीन कृषि मंत्री अर्जुन मुंडा और गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय- आंदोलनकारी किसान यूनियनों के साथ दो दौर की बातचीत करने के लिए चंडीगढ़ गए थे, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकल सका। तब से गतिरोध के बावजूद केंद्र सरकार प्रदर्शनकारी किसानों से बातचीत करने से कतरा रही थी।
इस आंदोलन का आधार क्या?
किसान आंदोलन 2020 में तीन कृषि कानून को खत्म करने के साथ-साथ जो मुख्य मांगें थीं उनमें एमएसपी की कानूनी गारंटी, कर्ज से मुक्ति, बिजली आपूर्ति कानूनों में सुधार व दरों में कटौती, स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करना, किसानों पर किये गए केस वापसी आदि शामिल थीं। तीन कृषि क़ानून तो रद्द कर दिए गए। लेकिन बाक़ी मांगों को सरकार द्वारा लिखित आश्वासन दिए जाने के बावजूद पूरा नहीं किया जाना मौजूदा किसान आंदोलन का आधार बना हुआ है।
इस कारण सरकार नहीं दे रही थी तवज्जो?
इस बार कृषि आंदोलन से निपटने में केंद्र के बदले हुए रुख को इन वजहों से समझा जा सकता है। पहला, मौजूदा आंदोलन अभी तक पंजाब-हरियाणा सीमा तक ही सीमित है, जिसका विस्तार 2020-21 के कृषि आंदोलन जितना नहीं है। दूसरा, पंजाब और अन्य राज्यों के कई कृषि संघों का एक छत्र संगठन एसकेएम सहित कई प्रमुख किसान निकाय इसकी मांगों का समर्थन करने के बावजूद मौजूदा आंदोलन में शामिल नहीं हुए हैं। तीसरा, 2020-21 का आंदोलन केंद्र के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ था, मौजूदा विरोध में कई मांगें हैं जिनमें कुछ पहले भी उठाई गई थीं। चौथा, सरकार ने 2020 के आंदोलन से सबक़ लिया क्योंकि तब बातचीत के लिए आमंत्रण दिए जाने के बाद आंदोलन और भड़क गया था।
तो सवाल वही है कि क्या बातचीत के लिए किसानों को तब आमंत्रण दिया गया जब आमरण अनशन पर बैठे डल्लेवाल की हालत बिगड़ने लगी और सरकार पर इसके लिए काफ़ी ज़्यादा दबाव पड़ा? या फिर सच में सरकार अब किसानों की मांगों को लेकर गंभीर हुई है?