धनकुबेर कंपनियों पर सिर्फ़ जुर्माने से पर्यावरण को कैसे बचाएगी सरकार?
प्लेटो अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘फीडो’ में लिखते हैं कि ‘आओ, हम सबसे अधिक इस बात का ध्यान रखें कि ऐसी विपत्ति से हम ग्रस्त न हों कि हम विवेकद्वेषी बन जाएँ, जैसे कि कुछ लोग मानवद्वेषी हो जाते हैं; क्योंकि मनुष्यों के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य कोई नहीं हो सकता कि वे विवेक के शत्रु बन जाएँ।’
केन्द्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा हाल ही में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 (ईपीए 1986) में बदलाव को लेकर किए जा रहे प्रयास विवेकद्वेषी बनने के लक्षणों की ओर ले जा रहे हैं। मंत्रालय ने अधिनियम के महत्वपूर्ण प्रावधानों में बदलाव के लिए अपने प्रयासों के तहत संबंधित संशोधन प्रस्ताव को जन सुझावों के लिए अपनी वेबसाइट पर डाल दिया है। सरकार ने न सिर्फ ईपीए 1986 को बल्कि जल प्रदूषण (निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974 और वायु प्रदूषण (निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1981 के उन सभी प्रावधानों को बदलने का प्रस्ताव रखा है जिनके तहत इन पर्यावरण क़ानूनों को तोड़ने वालों को जेल की सजा का प्रावधान है।
संयुक्त राष्ट्र के मानवीय पर्यावरण सम्मेलन में जून, 1972 में स्टॉकहोम में जो हुआ था और जिसमें भारत ने भाग लिया था, यह तय किया गया था कि मानवीय पर्यावरण के संरक्षण और सुधार के लिए समुचित क़दम उठाए जाएँ। जब भारत अपने गणतंत्र के 37वें वर्ष में था तब भारत की संसद ने संविधान के अनुच्छेद-253 के तत्वाधान में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 पारित किया। अधिनियम में ‘पर्यावरण’ शब्द की बेहद विस्तृत परिभाषा रखी गई। ऐक्ट के तहत पर्यावरण के अंतर्गत ‘जल, वायु और भूमि हैं और वह अंतर्संबंध है जो जल, वायु और भूमि तथा मानवों, अन्य जीवित प्राणियों, पादपों और सूक्ष्मजीव और संपत्ति के बीच मौजूद है’। यह अधिनियम इतना अधिक विस्तृत था कि विशेषज्ञों ने इसे ‘अम्ब्रेला विधान’ नाम दिया। ‘पर्यावरण प्रदूषक’ की परिभाषा देते हुए अधिनियम कहता है कि इससे ‘ऐसा ठोस, द्रव या गैसीय पदार्थ अभिप्रेत है जो ऐसी सांद्रता में विद्यमान है जो पर्यावरण के लिए क्षतिकर हो सकता है या जिसका क्षतिकर होने की संभावना है।’
पर्यावरण को क्षति पहुँचाने वाले लोगों के लिए वर्तमान में इसमें जुर्माने के साथ साथ 7 साल तक की सजा का प्रावधान है। परंतु अब केंद्र सरकार का प्रस्ताव यह है कि अधिनियम से सजा का प्रावधान हटा दिया जाए और जुर्माने को बढ़ाकर 5 लाख से 5 करोड़ तक कर दिया जाए जो कि पहले सिर्फ़ 1 लाख रुपये तक ही था। प्रस्तावित संशोधन में इस जुर्माने की राशि के लिए ‘पर्यावरण संरक्षण कोष’ को बनाए जाने का प्रावधान है। पर्यावरण नियमों को तोड़ने वाले किस अपराधी को कितना जुर्माना भरना है इसके निर्धारण के लिए एक न्याय निर्णयन अधिकारी (एजुडिकेटिंग ऑफिसर) का पद प्रस्तावित है।
सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), 1860 के अस्तित्व में रहते हुए भी पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 की आवश्यकता क्यों महसूस हुई। आईपीसी, धारा-268 से 294ए के प्रावधानों द्वारा पर्यावरण को बिगाड़ने वाले अपराधियों से निपटा जाता है लेकिन इन धाराओं में दिए गए प्रावधानों में जुर्माना और जेल की सजा की तीव्रता पूरी तरह नाकाफ़ी है। यह प्रावधान 21वीं शताब्दी की पर्यावरण समस्याओं से लड़ने के लिए अपर्याप्त हैं। जलराशियों को प्रदूषित करने के लिए 500 रुपये का जुर्माना और 3 महीने की सजा के प्रावधान (धारा-277) पृथ्वी के सबसे बड़े संकट से लड़ने के लिए नहीं बनाए गए हैं।
एम सी मेहता बनाम यूनियन ऑफ इंडिया वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने तय किया कि प्रदूषण मुक्त वातावरण में रहने का अधिकार, अनुच्छेद-21 के तहत उपलब्ध जीवन का अधिकार है।
ऐसे में लोगों को जीवन के अधिकार से वंचित करने वाले उद्योगों के लिए न सिर्फ 500 रुपये का जुर्माना बल्कि करोड़ों का जुर्माना भी अपर्याप्त ही है। आज हम लोग उस दौर में हैं जब हमेशा बर्फ से ढके रहने वाले आर्कटिक और अंटार्कटिक में अधिकतम तापमान की सीमा क्रमशः 30℃ और 40℃ तक पहुँच चुकी है। हिमालय के ग्लेशियर, जिनसे भारत को वर्ष भर जल की आपूर्ति होती है, अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहे हैं। पश्चिम हिमालय के निचले इलाक़ों में तापमान में औसत से 7℃ से 10℃ की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। फैक्ट्रियों से लगातार बढ़ता CO2 का उत्सर्जन जलवायु परिवर्तन को अवश्यंभावी बना रहा है। स्वयं संयुक्त राष्ट्र को इस बात पर शक है कि कॉप-21, पेरिस में तय किए गए वैश्विक तापमान को 1.5℃ पर रोकने के लक्ष्य को शायद ही पूरा किया जा सकेगा। इस शताब्दी के अंत तक अगर तापमान 2℃ से अधिक हो जाता है तो दुनिया जलवायु परिवर्तन के गंभीर परिणामों को भुगतेगी। इसीलिए भारत ने भी कॉप-26 में यह प्रतिबद्धता जाहिर की है कि वर्ष 2070 तक भारत ‘नेट-ज़ीरो’ उत्सर्जन के लक्ष्य तक पहुँच जाएगा। अर्थात 2070 तक भारत में कुल उत्सर्जित CO2 की मात्रा कुल कार्बन सिंक की क्षमता के बराबर हो जाएगी।
इन लक्ष्यों की प्राप्ति के साथ-साथ भारत को 17 सतत विकास लक्ष्यों को भी वर्ष 2030 तक पूरा करना है। लेकिन यदि सरकार क़ानूनों में प्रस्तावित संशोधनों के साथ आगे बढ़ती है तो SDG3 (स्वास्थ्य), SDG6 (साफ़ पानी और स्वच्छता), SDG11 (सतत शहर और परिवहन), SDG13 (जलवायु कार्यवाही), SDG14 (जलीय जीवन), SDG15 (भूमि पर जीवन) यहाँ तक कि SDG16 (शांति और न्याय) को भी कभी पूरा नहीं किया जा सकेगा।
पर्यावरण संरक्षण, जल और वायु संबंधी क़ानूनों में सिर्फ़ जुर्माने का प्रावधान सरकार की विवेकशीलता पर प्रश्न है। सरकार यह बात समझने में चूक रही है कि वास्तव में ये सारे क़ानून किस उद्देश्य से लाए गए। इन कानूनों का उद्देश्य किन लोगों से पर्यावरण की रक्षा करना है। पर्यावरण संबंधी ऐसे उल्लंघनों जिनसे पर्यावरण को गंभीर क्षति पहुँचती है, वे वास्तव में विभिन्न उद्योगों द्वारा ही किए जाते हैं। प्रतिदिन 1000 करोड़ रुपये तक कमाने वाले भारतीय उद्योगपतियों के लिए ऐसा कौन सा जुर्माना है जो उन्हें हतोत्साहित कर सकता है? सरकार द्वारा प्रस्तावित 5 करोड़ का जुर्माना तो कम से कम पूरी तरह नाकाफ़ी है। इन उद्योगपतियों को जिस बात से डर लगेगा वह है जेल की सजा। हर दिन अपने ऐशों आराम में करोड़ों फूंकने वाले उद्योगपति कभी नहीं चाहेंगे कि उन्हें जेल की यात्रा पर जाना पड़े। जुर्माना तो आम और गरीब नागरिकों के लिए है, जो जेल तो जा सकता है पर उसके पास लाखों/करोड़ों रुपये, जुर्माना भरने के लिए नहीं है। एक सच यह भी है कि एक आम गरीब नागरिक पर्यावरण का शायद ही कोई ऐसा नुक़सान कर पाएगा जिसे ‘गंभीर’ की श्रेणी में लाया जा सके। हाँ, यह ज़रूर सच है कि आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक द्वारा यमुना के किनारे किए गए धर्म महोत्सव से यमुना को जो नुक़सान पहुँचा वह अपूर्णीय है। उनके लिए भी सजा ही डिटरेन्ट है जुर्माना नहीं। यह अलग बहस है कि ‘खास’ से खास आदमी को भी कैसे कानून की ताक़त और समानता का एहसास दिलाया जाये।
2010 में केंद्र सरकार द्वारा ओडिशा और गोवा में अवैध खनन की जांच करने के लिए एम बी शाह कमीशन बनाया गया। इस कमीशन की रिपोर्ट चौंकाने वाली थी। इसके अनुसार देश की 70 कंपनियों जिनमें सेल, टाटा स्टील और बिरला समूह की खनन कंपनी एस्सेल माइनिंग भी शामिल हैं, ने ओडिशा में एक दशक तक लगभग 45 हजार करोड़ के आयरन अयस्क और लगभग 3 हजार करोड़ रुपये के मैंगनीज़ अयस्क के अवैध खनन का काम किया। यह वो अतिरिक्त खनन था जिसकी अनुमति सरकार द्वारा इन कंपनियों को नहीं दी गई थी। शाह कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर ही 2017 में सर्वोच्च न्यायालय ने इन कंपनियों पर 25 हजार करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया।
आदित्य बिरला समूह दुनिया का सबसे बड़ा विस्कस फ़ाइबर आपूर्तिकर्ता है। रायटर्स की एक रिपोर्ट, 2018 के अनुसार इस समूह की विस्कस फैक्ट्रियों पर भारत समेत दक्षिण पूर्वी एशिया के तमाम देशों में ग़ैर ज़िम्मेदाराना तरीक़े से जलराशियों को बड़े पैमाने पर प्रदूषित करने के आरोप लगते रहे हैं। 2022 में इसी आदित्य बिरला समूह पर गुजरात के भरूच जिले के दो गाँवों-दाहेज और लखिगाम- में वायु, जल तथा मृदा प्रदूषण के साबित आरोपों के चलते एनजीटी यानी नैशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल, द्वारा लगभग 55 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया गया। यही नहीं, शाह कमीशन की रिपोर्ट में और बाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दोषी ठहराई गई कंपनियों में से एक एस्सेल माइनिंग (बिरला समूह) को 2019 में मध्य प्रदेश के छतरपुर में बंदर डायमंड प्रोजेक्ट का ठेका प्रदान कर दिया गया। पर्यावरण वेबसाइट मोंगाबे डॉटकॉम, की एक रिपोर्ट के अनुसार इस प्रोजेक्ट के लिए 2 लाख पेड़ों को काटा जाना है। ऐसी कंपनियों को बजाय ब्लैकलिस्ट करने के उन्हें सरकारों द्वारा प्रोत्साहन प्रदान किया गया।
सरकार का विवेकद्वेषी रवैया इसी से जाना जा सकता है कि जिस बुंदेलखंड क्षेत्र में यह खनन क्षेत्र स्थित है वहाँ दशकों से पानी की समस्या विकराल रूप लिए हुए है। बजाय इस समस्या का समाधान निकालने के सरकार ने 2 लाख पेड़ों को ही काटने की अनुमति दे दी।
वेदांता लिमिटेड पर एनजीटी ने 2 मई, 2022 को 25 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया। यह जुर्माना इसलिए लगाया गया क्योंकि इस कंपनी ने ओडिशा के लांजीगढ़ क्षेत्र में आवंटित जमीन से अधिक जमीन पर बिना किसी पर्यावरण मंजूरी के अपना प्रोजेक्ट शुरू कर दिया। यह वही वेदांता कंपनी है जिसके तूतीकोरिन, तमिलनाडु स्थित स्टरलाइट प्लांट पर पुलिस द्वारा चलाई गई गोलियों में 12 प्रदर्शनकारी मारे गए थे। प्रदर्शनकारियों की शिकायत ये थी कि कंपनी पर्यावरण मानकों का उल्लंघन कर रही है और यहाँ से होने वाली गैस लीक की वजह से अनगिनत स्वास्थ्य समस्याएँ पैदा हो रही हैं।
यह बात भी छिपी नहीं है कि किस तरह अडानी समूह पर ऑस्ट्रेलिया में कोल माइनिंग प्रोजेक्ट पाने के लिए नीति निर्माताओं को गुमराह करने का आरोप लगा। पूरी दुनिया के पर्यावरणविदों ने #StopAdani कैम्पेन चलाया। इसी अडानी समूह पर 2013 में सुनीता नारायण समिति की सिफारिशों के आधार पर, मुँदरा पोर्ट पर पर्यावरण अनियमितताओं को लेकर 200 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया गया। स्थानीय लोगों और कार्यकर्ताओं ने आरोप लगाया था कि बंदरगाह और बिजली परियोजना के विकास के दौरान हरित मानदंडों का उल्लंघन किया गया था। समिति ने अपनी रिपोर्ट में लगभग 75 हेक्टेयर संरक्षण क्षेत्र में मैंग्रोव का व्यापक विनाश पाया। अडानी समूह पर निर्माण के कारण खाड़ियों को अवरुद्ध होने से बचाने के लिए सावधानी नहीं बरतने का भी आरोप लगाया गया था।
इन सारी अनियमितताओं के बावजूद केंद्र सरकार ने शीघ्र पर्यावरण मंजूरी प्रदान करने के लिए सिंगल विंडो सिस्टम, परिवेश पोर्टल लॉन्च किया। लेकिन इस पोर्टल और सरकार की मंशा को लेकर पर्यावरणविद और सामाजिक कार्यकर्ता सशंकित हैं। पर्यावरण अधिवक्ता राहुल चौधरी का कहना है कि ‘सरकार बस यह सुनिश्चित करना चाहती है कि व्यवसायों के लिए त्वरित मंजूरी की उनकी नीति के खिलाफ कोई विरोध या जाँच न हो … भले ही यह सब पर्यावरण की कीमत पर ही क्यों न हो।”
नासा के आँकड़े बताते हैं कि पिछले 10 साल, 1880 के बाद से सबसे गरम वर्ष रहे हैं। मतलब साफ है कि तापमान बढ़ रहा है। यह संभव है कि पेरिस टारगेट न पूरा हो पाए। 2019 में 23 लाख भारतीय सिर्फ प्रदूषण की वजह से मर गए, इसमें 16 लाख वायु प्रदूषण से तो 5 लाख जल प्रदूषण की वजह से मर गए (लैंसेट)। 2021 में 5 वर्ष से कम आयु के 40 हजार बच्चों की मौत का कारण PM2.5 था। शोध यह भी बताता है कि 90% मौतें कम और मध्यम आय समूहों में हुई हैं। अर्थात धनाढ्य वर्ग को फिलहाल इससे खतरा नहीं है। मर सिर्फ गरीब ही रहा है। इस दुनिया में सिर्फ 3% पानी ही ऐसा है जिसे पीने योग्य कहा जा सकता है बाकी 97% समुद्री जल है। इस 3% का भी लगभग 70% हिस्सा पर्माफ़्रॉस्ट (स्थायी तुषार भूमि) के रूप में है, जोकि आसानी से पीने के लिए उपलब्ध नहीं हो सकता। भारत का 80% जल खतरनाक रूप से प्रदूषित है, 15 लाख बच्चे हर साल प्रदूषित जल से उत्पन्न होने वाली डायरिया से मर जाते हैं, लगभग 70% भारतीय 2 डॉलर प्रतिदिन (168 रुपए) से भी कम पर गुजर-बसर कर रहे हैं, 30% आबादी तो मात्र 1.25 डॉलर पर ही जी रही है, 80 करोड़ से भी अधिक भारतीय सरकारी राशन पर निर्भर हैं।
नीति आयोग के अनुसार ऐसी संभावना है कि 2030 तक 60 करोड़ भारतीयों को स्वच्छ जल ही न मिले। इतने सबके बावजूद सरकार को लगता है कि जल, वायु और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले लोगों को जेल की बजाय जुर्माना लगाकर छोड़ दिया जाना चाहिए।
अनुच्छेद-21, जीवन का अधिकार जिसे इमरजेंसी के दौरान भी नहीं खत्म किया जा सकता है, में साफ हवा और वायु का अधिकार निहित है। संविधान और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रदत्त यह अधिकार किसी उद्योगपति की जानलेवा लापरवाही से उत्पन्न ‘जुर्माने’ का मोहताज नहीं है। यदि पर्यावरणीय उल्लंघनों के मामले न्यायालय से निपटने में 9 से 33 साल का समय ले रहे हैं तो यह दोष सरकार की असक्षमता का है, यदि हजारों ऐसे मामलों को सुलझाया नहीं जा सका है तो इसका मतलब यह नहीं कि उल्लंघनों को पैसे से तौल दिया जाए; खासकर तब जबकि ऐसे जुर्माने 100 सालों तक भी लगते रहें तो भी इन कंपनियों की सेहत पर कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला लेकिन हजारों सालों में तैयार होने वाली मिट्टी की पतली सी परत को किसी फंड से नहीं बनाया जा सकता। बायोरिमेडीएशन की अपनी सीमा है। सरकार को ऐसे कदम और कानून बनाने चाहिए जिससे उद्योग पर्यावरण को बचाने की लंबी लड़ाई में अपना सहयोग देने को बाध्य हों न कि ऐसे कि ‘फंड’ की कीमत पर लाखों भारतीय पर्यावरणीय प्रदूषण की भेंट चढ़ते रहें। अपने ही विवेक का शत्रु बनने से सरकार को बचना चाहिए।