ग़रीब सवर्णों को आरक्षण के ज़रिये मोदी सरकार ने फेंका तुरुप का पत्ता
नरेन्द्र मोदी की कैबिनेट ने फ़ैसला लिया है कि देश में आर्थिक रूप से कमज़ोर सवर्णों को भी 10 फ़ीसदी आरक्षण दिया जाएगा। लेकिन अफ़सोस कि सरकार पूरी ताक़त लगाकर भी इस चुनावी शिग़ूफ़े का फ़ायदा नहीं उठा पाएगी! इसकी सबसे बड़ी वजह हमारा संविधान है जो आर्थिक आधार पर नहीं बल्कि ‘सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन’ के आधार पर आरक्षण देने की बात करता है। लिहाज़ा, इसके लिए मोदी सरकार को सबसे पहले संविधान में संशोधन करना होगा। इसके लिए सियासी जमात के बीच वैसी ही आम राय बनानी होगी, जैसा कि महिला आरक्षण विधेयक के लिए अपेक्षित रहा है। इससे भी बड़ी बाधा यह है कि सरकार के पास संविधान संशोधन को परवान चढ़ाने के लिए पर्याप्त वक़्त नहीं है। वैसे सरकार की इस मंशा को सुप्रीम कोर्ट में भी चुनौती झेलनी पड़ सकती है।
जातियाँ बनी आधार
आरक्षण को लेकर होने वाली बहस भी उतनी ही पुरानी है, जितना पुराना आरक्षण ख़ुद है। संविधान के अनुच्छेद 16, 115, 335, 338, 340, 341 और 342 का नाता आरक्षण की पूरी नीति और व्यवस्था से जुड़ा है। इन्हीं के मुताबिक़, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग आरक्षण के हक़दार बनते हैं। एन नागराज, अशोक कुमार ठाकुर और इन्दिरा साहनी केस के फ़ैसलों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने ‘सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन’ के आधार पर आरक्षण की नीति को संवैधानिक माना है।
संविधान में जिस ‘पिछड़ेपन’ का ज़िक्र है, उसे तय करने के लिए जातियाँ आधार बनीं और हमेशा यही आधार क़ायम रहा। आरक्षण के लिए न तो कभी आर्थिक आधार को स्वीकृति मिली और ना ही धार्मिक आधार को।
इसीलिए तमाम आन्दोलनों के बावजूद सवर्ण हिन्दुओं के अलावा मुसलमानों तथा अन्य अल्पसंख्यक समुदायों को आरक्षण का हक़दार नहीं माना गया। अलबत्ता, इन्दिरा साहनी केस के फ़ैसले के ज़रिये आरक्षण की अधिकतम सीमा को 50 फ़ीसदी तय किया गया और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए क्रीमी-लेयर को धारणाओं से जोड़ा गया। इसके बावजूद तमिलनाडू और कुछेक उत्तर पूर्वी राज्यों ने आरक्षण की सीमा को 70 से 85 फ़ीसदी तक पहुँचा दिया और न्यायपालिका ने इसे नज़र अंदाज़ किया।
सवर्णों को पटाने की चाल
अब ये किससे छिपा है कि आम चुनाव की दस्तक और अपनी गिरती लोकप्रियता को देखते हुए ही मोदी सरकार ने सवर्णों को पटाने के लिए उन्हें शिक्षा और नौकरी में 10 फ़ीसदी आरक्षण देने का फ़ैसला लिया है। कैबिनेट के फ़ैसले के बाद अब मोदी सरकार ने 8 जनवरी को प्रस्तावित विधेयक को राज्यसभा में पेश करने की रणनीति बनाई है। इसी वजह से संसद के मौजूदा सत्र की मियाद को एक दिन बढ़ाकर 9 जनवरी तक किया गया है।
आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था बदलने के लिए संविधान में संशोधन करना ज़रूरी होगा। इसे मोदी सरकार अपने मौजूदा कार्यकाल में नहीं कर पाएगी। लेकिन वह इसी बात को लेकर चुनाव में सवर्णों को रिझाने की कोशिश करेगी कि यदि वह फिर से सत्ता में आई तो वादा निभाएगी। यही उसका तुरुप का पत्ता है। लग गया तो दाँव, वर्ना तुक्का!
दूसरी ओर, सरकार से जुड़े लोगों को कहना है कि आर्थिक रूप से कमज़ोर सवर्णों को आरक्षण देने के लिए 50 फ़ीसदी वाले मौजूदा कोटे में कोई परिवर्तन नहीं होगा। बल्कि अनारक्षित 50 सीटों में से 10 फ़ीसदी ग़रीब सवर्णों के लिए रखा जाएगा। निश्चित रूप से ये व्याख्या ‘कान को सीधे नहीं, बल्कि हाथ घुमाकर पकड़ने’ वाली है। क्योंकि ऐसा होने पर आरक्षण का दायरा 50 से बढ़कर 60 फ़ीसदी हो जाएगा और इन्दिरा साहनी केस के फ़ैसले को अनुसार, सुप्रीम कोर्ट को उसे असंवैधानिक भी ठहराना ही पड़ेगा। लेकिन ये तभी होगा जब संविधान संशोधित हो जाएगा। उससे पहले ‘कॉज़ ऑफ़ एक्शन’ यानी ‘फ़रियाद की वजह’ वाली क़ानूनी शर्त पूरी नहीं होगी। इस शर्त के बग़ैर सुप्रीम कोर्ट किसी अर्ज़ी पर विचार नहीं करना चाहेगा। क्योंकि ऐसा करना विधायिका के क्षेत्राधिकार में न्यायपालिका का दख़ल होगा।
राज्यसभा में करना होगा पेश
सरकार के पास बहुमत लोकसभा में है। लेकिन वह प्रस्तावित विधेयक को राज्यसभा में पेश करेगी। तभी इसे चुनाव में भुनाया जा सकता है। क्योंकि राज्यसभा, स्थायी सदन है। इसमें पेश विधेयक कभी मरता नहीं। जबकि लोकसभा के भंग होते ही वहाँ लम्बित विधेयक मर जाते हैं। नयी लोकसभा को उन्हें पुनर्जीवित करना पड़ता है। वैसे तो मोदी सरकार के पास अभी संसद के आख़िरी बजट सत्र का मौक़ा बचा हुआ है, लेकिन आम चुनाव की वजह से ये सत्र बेहद छोटा होगा। इसमें सरकार पर अनिवार्य संवैधानिक कामकाज निपटाने का भारी दबाव होगा। मसलन, बजट सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण, बजट भाषण, धन्यवाद प्रस्ताव और अनुदान माँगों (आंशिक बजट) को पारित करने के बाद मोदी सरकार के पास वक़्त बच ही नहीं सकता कि वो ग़रीब सवर्णों को 10 फ़ीसदी आरक्षण देने वाला या तीन तलाक़ को आपराधिक बर्ताव क़रार देने वाले क़ानून बना सके।
अनुमान है कि बजट सत्र 29 जनवरी से शुरु होगा और इसका पहला भाग 8 फरवरी 2019 तक चलेगा। इसका दूसरा हिस्सा भी 8 मार्च 2019 से आगे शायद ही जाए, क्योंकि तब तक चुनाव कार्यक्रम की घोषणा हो सकती है। 2014 में चुनाव आयोग ने 5 मार्च को चुनाव कार्यक्रम का एलान किया था। उसी दिन से आदर्श चुनाव संहिता प्रभावी हो गयी थी। लिहाज़ा, ये माना जा सकता है कि 2019 का बजट सत्र का पहला हिस्सा 5 मार्च के आसपास ही समाप्त हो जाएगा। इसका दूसरा हिस्सा नयी सरकार के हवाले होगा। 2014 में 7 अप्रैल से लेकर 12 मई तक मतदान हुआ था। नरेन्द्र मोदी, 26 मई को प्रधानमंत्री बने थे। हालाँकि, 16वीं लोकसभा का गठन 4 जून को हुआ था।
इस तरह से चुनाव आयोग के पास सारी चुनाव प्रक्रिया को पूरा करने और राष्ट्रपति के पास नयी लोकसभा के गठन की अधिसूचना जारी करने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा 3 जून तक का वक़्त होगा।
दूसरी ओर, यदि सरकार अध्यादेश का तरीका नहीं चुनती है तो उस दशा में मामले को तब तक सुप्रीम कोर्ट में जाने से रोका जा सकता है जब तक कि संसद, संविधान में संशोधन नहीं कर देती। क्योंकि संशोधन होने के बाद ही क्लॉज़ ऑफ़ एक्शन की वो क़ानूनी शर्त पूरी होगी, जिसके आधार पर सुप्रीम कोर्ट किसी अर्ज़ी पर विचार करना चाहेगी। संशोधन के नहीं होने तक वही यथास्थिति क़ायम रहेगी, जो इन्दिरा साहनी मामले में फ़ैसले के मुताबिक़ है।
बीजेपी को डर
अब सवाल यह उठ सकता है कि क्या सरकार को इन सीमाओं या चुनौतियों का अहसास नहीं है? जवाब है, बिल्कुल है। अगला सवाल यह होगा कि ‘तो फिर सरकार अपने चला-चली की बेला में ऐसा रास्ता क्यों चुन रही है, जिससे सवर्णों को रिझाया जा सके?’ इस प्रश्न का उत्तर पूरी तरह से सियासी है। सैद्धान्तिक रूप से संसद को संविधान में संशोधन का अटूट अधिकार है। लेकिन क्या संवैधानिक है और क्या नहीं? ये तय करना सुप्रीम कोर्ट का क्षेत्राधिकार है।
एससी-एसटी एक्ट को पहले की तरह फिर से बहाल किए जाने के बाद से सवर्णों में बीजेपी के प्रति गहरी नाराज़गी पैदा हो गई है। बीजेपी को लगता है कि अब सवर्णों को आरक्षण दिए बग़ैर वो अपने वोट-बैंक को बिखरने से नहीं रोक सकती।
दशकों से संघ परिवार के लोग सवर्णों को रिझाने के लिए आरक्षण की आलोचना करते रहे हैं। उन्होंने समय-समय पर आरक्षण की समीक्षा की दलीलें भी दी हैं तो ये भी कहा है कि आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था कभी ख़त्म नहीं की जाएगी। या, आरक्षण ‘उनके’ जीते-जी ख़त्म नहीं हो सकता। अब ताज़ा विधानसभा चुनाव के बाद बीजेपी को लेकर सवर्ण हिन्दुओं में यह धारणा फैलने लगी कि मोदी सरकार के जाने का वक़्त आ गया और इसने न तो राम मन्दिर को लेकर अपना वादा निभाया और ना ही आरक्षण को लेकर। सवर्णों के ऐसे आक्रोश को देखते हुए ही बीजेपी के पैरों तले ज़मीन खिसकने लगी है। पार्टी को इसका भरपूर आभास भी हो रहा है। ग़रीब सवर्णों को आरक्षण’ के ज़रिये मोदी सरकार ने तुरुप का पत्ता फेंका है! लेकिन बक़ौल पूर्व केन्द्रीय मंत्री यशवन्त सिन्हा, ‘सवर्ण आरक्षण, मोदी सरकार का एक और जुमला’है।