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इस संक्रमण ने बहुत महँगी सीख दी, क्या लोग याद रख पाएँगे?

इस संक्रमण ने बहुत महँगी सीख दी, क्या लोग याद रख पाएँगे?

श्मशान खाली हैं और कब्रों की खुदाई करनेवालों के हाथों को कुछ आराम है। हस्पतालों में भी बिस्तर अब मिल जाएँगे। तो क्या हम इसे प्राकृतिक चक्र मानकर बैठ जाएँ? कितने लोग इस बीच गुज़र गए, उनके बारे में सोचने की जहमत कौन ले? 

एक और हफ्ता गुज़र गया। पौ फटने की वेला है। कोयल की कूक सुन पा रहा हूँ। गिलहरी की बेचैन चूँ-चूँ। कई महीनों में पहली बार एम्बुलेंस के सायरन की आवाज़ों से अबाधित। तो क्या हम दुःस्वप्न के दूसरे छोर पर हैं?

दिल्ली, मुंबई, पटना, लखनऊ, कोलकाता, चेन्नई, बेंगलुरु, शहर जैसे अब राहत की साँस ले पा रहे हैं। लेकिन हमें गाँवों की ख़बर अभी भी पूरी तरह नहीं है। बिहार में खगड़िया के एक गाँव से मेरे युवा मित्र नील माधव बताते हैं कि अब जाकर लोग कुछ समझ पाए हैं कोरोना महामारी की गंभीरता को। लेकिन शादी-ब्याह, मुंडन का सिलसिला जारी है। लोग भोज भात को जमा होते हैं। दो-चार को ‘सर्दी-बुखार’ होता है। मौतें होती हैं। फिर श्राद्ध का भोज होता है। फिर दो चार को सर्दी-बुखार होता है। और फिर मौतें होती हैं। यह मृत्यु का दुष्चक्र है।

श्मशान खाली हैं और कब्रों की खुदाई करनेवालों के हाथों को कुछ आराम है। हस्पतालों में भी बिस्तर अब मिल जाएँगे। तो क्या हम इसे प्राकृतिक चक्र मानकर बैठ जाएँ? कितने लोग इस बीच गुज़र गए, उनके बारे में सोचने की जहमत कौन ले? क्या उनका यों जाना कुदरत की मर्जी थी? क्या जैसी हम भारतीयों की आदत है, हम जो बचे रह गए हैं, यह कहकर मन को तसल्ली दे लेंगे कि यह जनसंख्या कम करने का, पृथ्वी का बोझ घटाने का प्रकृति का अपना तरीक़ा था? अपने अलावा हर किसी को अतिरिक्त मानने की स्वार्थी प्रवृत्ति क्या मरनेवालों को ही उनकी मृत्यु के लिए ज़िम्मेवार मानकर उस ऊपरवाले का शुक्रिया अदा करेगी कि उसने उसे ज़िन्दगी बख्श दी? या वह कर्म के सिद्धांत की आड़ लेकर अगले दिन की प्रतीक्षा करेगी? 

 जनसंख्या का तर्क अभी से पेश किया जाने लगा है। यह कि हम हैं ही इतने ज़्यादा, कोई भी सरकार क्या कर सकती है? इसमें भी इशारा भारत की एक ख़ास जनसंख्या की तरफ़ है। चूँकि हम अनावश्यक रूप से अधिक हैं, अगर मौतों की संख्या भी अधिक हो तो क्या आश्चर्य? आख़िर प्रकृति कुछ तो करेगी?

इन तर्कों में सरकार को इस तबाही की ज़िम्मेदारी से बरी करने की व्यग्रता दिखलाई पड़ती है। एक तरफ़ तो हम सरकार और इस आपदा के बीच किसी रिश्ते से इंकार करते हैं, दूसरी तरफ़ देश के गृह मंत्री अचानक प्रकट होकर राष्ट्र को सन्देश देते हैं कि प्रधानमंत्री के नेतृत्व में हमने कोरोना वायरस के संक्रमण की दूसरी लहर को काबू कर लिया है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने अपने राज्य को कोविड से सुरक्षित प्रदेश घोषित कर दिया है।

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फ़ोटो साभार: ट्विटर/नरेंद्र मोदी

यह शेखी ही हमें इस दलदल में ले आई, यह पूरी दुनिया बता रही है। अभी दो रोज़ पहले अमर्त्य सेन को एडम स्मिथ के हवाले से बताना पड़ा कि अगर आप अच्छा काम करेंगे तो निश्चय ही श्रेय आपको मिलेगा। श्रेय जितना आपको मिले वह आपके अच्छे काम का सूचक होगा। लेकिन आपकी प्रवृत्ति अगर काम करने की नहीं जिससे श्रेय मिले बल्कि मात्र अपने लिए प्रशंसा बटोरने की हो तो उससे विनाश ही होगा। इसमें जोड़ा जा सकता है कि यह नुक़सान कम होता है जब यह किसी व्यक्ति का मामला हो। लेकिन जब सरकारें और राजनीतिक नेता इस व्याधि के शिकार हो जाएँ तो विनाश उनका नहीं देश और जनता का होता है।

तो इस साल दूसरी बार सरकार के मुखिया लोग ख़ुद को श्रेय दे रहे हैं। इसका इन्तज़ार किए बिना कि कोई और या जनता ही उनके काम के लिए उनकी तारीफ़ करे। यह सब कुछ इतना दयनीय और अश्लील है कि इस पर बात करते भी घिन आती है।

जो प्रधानमंत्री आपदा का प्रबंधन करने में बुरी तरह नाकाम साबित हुआ, वह अब और कोई उपाय न देखकर स्कूल बोर्ड की परीक्षा स्थगित करने के फ़ैसले के लिए देश भर से तारीफ़ें बटोर रहा है। स्कूली छात्रों को प्रशासन ने हिदायत दी है कि वे प्रधानमंत्री को धन्यवाद का पत्र लिखें, धन्यवाद देते हुए वीडियो बनाएँ और उन्हें ट्वीट करें। “इस कठिन समय में छात्रों के साथ खड़े होने के लिए और परीक्षा रद्द करने के लिए मैं प्रधानमंत्री मोदीजी को धन्यवाद देती हूँ।” अपनी स्कूल की पोशाक पहनकर एक छात्रा ने ट्वीट किया। ऐसा ही अनेक दूसरे छात्रों से करवाया गया।

जब एक के बाद दूसरा उच्च न्यायालय केंद्र सरकार कोरोना वायरस संक्रमण की विभीषिका में बदइंतज़ामी और आपराधिक लापरवाही के लिए केंद्र सरकार को फटकार रहा हो, जब सारी दुनिया सरकार के दंभी नाकारापन के लिए उसकी आलोचना कर रही हो, उस वक़्त अपने मातहत केंद्रीय विद्यालयों और नवोदय विद्यालयों के प्रशासन के ज़रिए छात्रों से अपने लिए प्रशंसा उगलवाना इसी सरकार के बस की बात है जो अभी कुछ वक़्त पहले ही ख़ुद अपनी पीठ थपथपा रही थी कि उसने बिना टीके के कोरोना संक्रमण को रोक दिया है! अब टीके के लिए पूरे देश में हाय-हाय मची है तो यह सरकार स्कूली छात्रों से ही अपने लिए प्रशंसा का दोहन करने में जुट गई है।

तुलनात्मक अध्ययन हमेशा किसी स्थिति को समझने के लिए अच्छा होता है। इसी देश में केरल के मुख्यमंत्री हैं जिनकी सरकार के सुप्रबंधन के लिए पूरी दुनिया तारीफ़ कर रही है लेकिन आपने उन्हें ख़ुद या उनके किसी मंत्री को युद्ध जीत लिया, मैदान मार लिया जैसी भाषा में बात करते नहीं सुना होगा। एक भी आत्मप्रशंसा का वक्तव्य नहीं। वे लगातार चुनौतियों की बात कर रहे हैं। जनता को स्थिति की गंभीरता बता रहे हैं। कोई सतही या हल्की बयानबाज़ी न केरल से सुनाई पड़ी और न मुंबई या महाराष्ट्र से। 

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मुझ जैसे लोग शिवसेना के आलोचक रहे हैं लेकिन महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने इस एक साल में एक गंभीर, संवेदनशील प्रशासक की भूमिका निभाई है। वे संयमित भाषा में बात करते हैं। अभी कल ही उन्होंने कहा है कि जिस जनता ने उन्हें चुनकर उनकी सरकार बनाई है, उनका दायित्व उस जनता के प्रति है। उसकी पूरी सुरक्षा के लिए वे ज़िम्मेवार हैं। वे न तो जनता को भुलावे में रख रहे हैं, न दिग्भ्रमित करने की कोशिश कर रहे हैं और न अपनी तारीफ़ कर रहे हैं। इस जवाबदेह रवैये के कारण ही मुंबई में संक्रमण की घातकता को जल्दी ही नियंत्रित किया जा सका। तमिलनाडु, झारखंड और छत्तीसगढ़ या राजस्थान के मुख्यमंत्री भी इसी श्रेणी में आएँगे। इनके मुक़ाबले आप उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, गुजरात के मुख्यमंत्रियों की आत्मश्लाघा को देखेंगे तब उनकी क्रूरता उभरकर सामने आएगी। भारतीय जनता पार्टी के जितने भी नेता हैं, उनमें से किसी के स्वर में इस विभीषिका के आगे अपनी लघुता का कोई अहसास या उस बोध से पैदा हुई विनम्रता का लेश भर भी नहीं है। जनता के जीवन की उनकी निगाह में क्या क़ीमत है, यह इस एक साल में मालूम हो गया है।

 

कहा भी जाता है कि आपदा में ही किसी के चरित्र की पहचान या परख होती है। स्वतः सहायता या सेवा का भाव किसमें है और किसे उसके लिए बहुत कोशिश करनी पड़ती है फिर भी वह सेवा की प्रदर्शनी होकर ही रह जाती है? जब केंद्र सरकार ने अपनी पीठ मोड़ ली तो समाज से कौन ख़ुद ब ख़ुद सामने आए? खालसा एड हो या गुरुद्वारे हों या मस्जिदें भी, सबने हाथ बढ़ाया। जो अपनी सेवा का ढिंढोरा पीटता रहता है, वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नदारद था। भारतीय जनता पार्टी ने अपने स्थापना दिवस को सेवा दिवस घोषित किया। उस दिन दर्जन भर भाजपा नेता एक करीने से सजाई एक टोकरी में हाथ लगाकर एक महिला पर सेवा उड़ेलते तस्वीर में दिखलाई दिए। यह भी ठीक ही था। घृणा जिनका स्वभाव और जीवन भर की शिक्षा है, सेवा के लिए अनिवार्य मानवीयता वे आख़िर कहाँ से लाएँ? सेवा उनके लिए एक आयोजन है, रोजमर्रा की चीज़ नहीं, उनकी राजनीति का अंग नहीं। 

भारत के लोगों को इस संक्रमण ने बहुत महँगी सीख दी है। प्रश्न यह है कि क्या वे कर्मवाद, भाग्यवाद और बहुसंख्यकवाद से मुक्त होकर इस सीख को याद रख पाएँगे और उससे अपनी आगे की जनतांत्रिक ज़िम्मेवारी तय कर पाएँगे?

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