कच्चे तेल की गिरी कीमतों का फ़ायदा उपभोक्ताओं को नहीं, यही है ‘गुड गवर्नेंस’?
ऐसे समय में जब पूरी दुनिया में कच्चे तेल की कीमतें कम हुई हैं और दस साल के सबसे निचले स्तर पर पहुँच गई हैं, सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी की है और वह 8 साल में सबसे बड़ी बढ़ोतरी है। जब सरकार लगभग आधी कीमत पर कच्चा तेल खरीद रही है, इसने आम उपभोक्ताओं को कोई राहत देने के बजाय मौके का फ़ायदा उठा कर ज़्यादा से ज़्यादा वसूलने की नीति अपनाई है।
सरकार ने डीज़ल की कीमतों में प्रति लीटर 3 रुपए की बढ़ोतरी कर दी है। यह 2012 से अब तक की सबसे बड़ी वृद्धि है। सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर इनफ्रास्ट्रक्चर सेस में 1 रुपया और अतिरिक्त उत्पाद कर में 2 रुपए प्रति लीटर की बढ़ोतरी कर दी।
अंतरराष्ट्रीय बाज़ार
इसके पहले सरकार ने बजट में दो प्रति बढ़ोतरी का प्रस्ताव रखा था। इस तरह कुल मिला कर डीज़ल 5 रुपए और पेट्रोल 6.28 रुपए प्रति लीटर महँगा हो गया।सरकार के इस एलान के कुछ दिन पहले ही अमेरिका के न्यूयॉर्क एक्सचेंज में कच्चे तेल की कीमत 30 प्रतिशत गिर कर 32 डॉलर प्रति बैरल पर आ गई। इसके बाद स्थिति थोड़ी सुधरी और 11 मार्च को यह 35.95 डॉलर प्रति बैरल तक पहुँच गई।
सरकार की मंशा?
जिस समय तेल की कीमतें गिरीं, उसी समय यह सवाल उठा था कि सरकार इसका कितना हिस्सा आम उपभोक्ताओं तक पहुँचने देगी। अब सरकार ने यह साफ़ कर दिया है कि वह इस स्थिति का फ़ायदा उठा कर लोगों से और ज्यादा पैसे वसूलना चाहती है।एक उदाहरण लेते हैं। दिल्ली में 1 मार्च को डीलरों तक पहुँचे पेट्रोल की कीमत 32.93 रुपए प्रति लीटर थी। उपभोक्ताओं को यह 71.71 रुपए में मिला था।
सरकार की कमाई
इसमें केंद्र सरकार को जाने वाला उत्पादन कर यानी एक्साइज़ ड्यूटी 19.98, डीलर का कमीशन 3.55 रुपए, दिल्ली सरकार का वैट 15.25 रुपए भी शामिल है। एक्साइज़ ड्यूटी तय है। पर वैट हर राज्य में अलग-अलग लगता है, क्योंकि वह राज्य सरकार तय करती है। कर्नाटक में 32 प्रतिशत तो महाराष्ट्र में 26 प्रतिशत वैट है।लेकिन अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत दिसंबर 2019 में जहाँ 65.50 डॉलर प्रति बैरल थी, वह 12 मार्च को 32.32 डॉलर पर आ गई। यानी कीमत आधी हो गई। अंतरराष्ट्रीय बाज़ार का महत्व ज़्यादा इसलिए है कि भारत अपनी ज़रूरतों का 83 प्रतिशत कच्चा तेल आयात करता है।
विश्लेषकों का कहना है कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की कीमतें अभी और गिरनी हैं। लेकिन इससे भारतीय उभोक्ताओं के लिए खुश होने की बात नहीं है। इस हम ऐसे समझ सकते हैं, 6 जनवरी, 2020 को जब तेल की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में 31.13 डॉलर प्रति बैरल थी, दिल्ली में पेट्रोल की कीमत 75 रुपए थी।
तर्क
इस मुद्दे पर मतभेद स्वाभाविक है। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि चूँकि कच्चे तेल की कीमत गिरी हुई है तो सरकार को इसका भरपूर फ़ायदा उठा कर अपना राजस्व बढ़ा लेना चाहिए।
इस बढ़े हुए राजस्व का इस्तेमाल वह उस समय कर सकती है अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तेल की कीमतों में एक बार फिर आग लगेगी और घरेलू बाज़ार उस बेतरतीब ढंग से बढ़ी हुई कीमतों को नहीं सोख पाएगा।
भारत ने 2018-19 के दौरान कच्चे तेल की खरीद पर 111.90 अरब डॉलर चुकाया था। उसे क्यों नहीं इस मौके का फ़ायदा उठा कर भविष्य के लिए कुछ पैसे बचा कर रख लेना चाहिए, यह सवाल पूछा जाना स्वाभाविक है।
प्रति-तर्क
पर इसके उलट यह भी पूछा जा सकता है कि जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत गिर रही हो तो घरेलू बाज़ार में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमत बढ़ाने का क्या तर्क है? क्या सरकार के पास जो पैसे बच रहे हैं, उसका एक छोटा हिस्सा उसे अपने लोगों तक नहीं पहुँचाना चाहिए?
जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत 10 साल में सबसे कम हो तो पेट्रोल-डीज़ल की कीमत घरेलू बाज़ार में 8 साल में सबसे अधिक क्यों होनी चाहिए?
जब पेट्रोलियम उत्पादों की कीमत बढ़ानी हो तो सरकार अंतरराष्ट्रीय बाज़ार का हवाला देती है, फिर कीमत गिरने पर वह ऐसा क्यों नहीं करती?
क्या कहा था मोदी ने?
लोगों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वह भाषण याद आता है जिसमें उन्होंने कहा था, ‘लोग कहते हैं कि मोदी तक़दीर वाला है, इसके आते ही तेल की कीमत गिर गई, तो फिर ऐसे लोगों को क्यों चुनेगो जिसके पास तक़दीर नहीं है?’पर्यवेक्षक पूछते हैं, अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की कीमत गिरने को प्रधानमंत्री की तक़दीर से जोड़ कर देखा गया था तो जब एक बार फिर कीमत गिरी है तो वही प्रधानमंत्री उपभोक्ताओं को इस गिरी कीमत का फ़ायदा क्यों नहीं देना चाहते हैं?
पर्यवेक्षकों का कहना है कि या तो सरकार तेल की कीमतों को एकदम अंतरराष्ट्रीय बाज़ार पर छोड़ दे या ज़रूरत पड़ने पर उसमें हस्तक्षेप करे।
यह नहीं हो सकता कि कच्चे तेल की कीमत बढ़ने पर सरकार घरेलू बाज़ार में पेट्रोल-डीज़ल की कीमतों को बाज़ार के भरोसे छोड़ दे। लेकिन कीमत गिरने पर हस्तक्षेप करे और ख़ुद उसका भरपूर फ़ायदा उठाए।
तेल की कीमत बढ़े तो पेट्रोल-डीज़ल की कीमत बढ़े और कच्चे तेल की कीमत गिरे तो भी यह बढ़े, यानी उपभोक्ताओं को हर हाल में अधिक कीमत चुकानी पड़े, यह कहाँ का न्याय है?
इस तरह के हस्तक्षेप की नीति बेईमानी तो है ही, अर्थव्यवस्था में लोकतंत्र के सिद्धान्त का भी खुला उल्लंघन है। यह लोकहितकारी शासन व्यवस्था का उल्लंघन है। उसके साथ ही विशुद्ध पूंजीवादी बाज़ार व्यवस्था में भी यह मॉडल फिट नहीं बैठता है।
इसका एकमात्र मक़सद लोगों की मजबूरी का फ़ायदा उठा कर उनका दोहन करना है और यह काम जनता की चुनी हुई सरकार करती है तो यह ‘गुड गवर्नेंस’ या ‘रिस्पॉन्सिव गवर्नेंस’ के भी ख़िलाफ़ है। लेकिन ‘गुड गवर्नेंस’ की फ़िक्र किसे है?