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क्या बहुत मजबूत है हमारी सरकार ?

क्या बहुत मजबूत है हमारी सरकार ?

मोदी सरकार हाल ही महंगाई, ईडी की मनमानी के मुद्दे पर कांग्रेस के आंदोलन से डर गई। मात्र इस आंदोलन से डरने वाली सरकार कितनी मजबूत निकली, वो सामने आ गया। इसी से पता चलता है कि भारत में कोई भी राजनीतिक दल सत्ता में आने पर मनमानी तो कर सकता है लेकिन वो इस मजबूत लोकतंत्र को विलुप्त नहीं कर सकता। 

महात्मा गांधी कहा करते थे कि "मृतकों, अनाथों और बेघरों को इससे क्या फर्क पड़ता है, कि मूर्खतापूर्ण विनाश सर्वसत्तावाद के नाम पर किया गया है या स्वतंत्रता व लोकतंत्र के पवित्र नाम पर?" सिर्फ वोट लेकर और चुनाव जीतकर लोकतंत्र को बचाया नहीं जा सकता। लोकतंत्र को लोगों का समूह कहने से बेहतर है इसे स्वतंत्र और शक्तिशाली संस्थाओं के समूह के रूप में परिभाषित किया जाए। 

सिर्फ वोट और चुनाव पर केंद्रित सत्ता किसी भी लोकतांत्रिक देश का मूर्खतापूर्ण विनाश आसानी से कर सकती है। इस विनाश से सर्वाधिक नुकसान हमेशा वंचित तबकों का होता है। क्योंकि अत्यधिक वोट और चुनाव केंद्रित राजनीतिक दल लगातार प्रचार और प्रोपेगेंडा के लिए अरबों रुपयों की जरूरत को उद्योगपति ‘मित्रों’ के माध्यम से ही पूरा करते हैं। ‘सिर्फ लाभ आधारित’ मानसिकता से पीड़ित उद्योगपति भारत के ‘कल्याणकारी राज्य’ की अवधारणा के प्रति बिल्कुल जिम्मेदार नहीं हैं। 

ऐसे में यह जिम्मेदारी सरकार पर आती है। लेकिन जब सरकार अपनी जिम्मेदारी लेने से इंकार कर दे तो संस्थाओं को वंचितों के बचाव में आना पड़ता है। लेकिन अगर संस्थाएं सिर्फ सरकार के मैंडेट से चलें संविधान और कानून से नहीं, तो सड़क के सिवाय कोई अन्य रास्ता नहीं बचता। शांतिपूर्ण संघर्ष का यह अहिंसक रास्ता ही लोकतंत्र और इसकी संस्थाओं में लग रहे घुन को कुरेद कर निकाल सकता है।

महंगाई-बेरोजगारी के खिलाफ प्रदर्शन के पहले कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की। इस दौरान उन्होंने वर्तमान मोदी सरकार पर प्रश्न उठाते हुए कहा कि- देश में लोकतंत्र की मौत हो चुकी है; जिस लोकतंत्र को 70 सालों में बनाया गया उसे 8 सालों में ही ध्वस्त कर दिया गया; देश में सिर्फ चार लोगों (2+2) की तानाशाही है; हमें संसद में बहस नहीं करने दी जाती, अगर हम बेरोजगारी और महंगाई के मुद्दे उठाते हैं तो हमें जेल में डाल दिया जाता है।

राहुल गांधी के आरोप बहुत गंभीर हैं। इन बातों और आरोपों की सच्चाई जनता को समझ आ जाए तो बेहतर है। वैसे इन आरोपों को तथ्यों के आलोक में गहराई से जांचा भी जा सकता है।

लोकतंत्र कोई मीनार नहीं है कि कुछ लोग धक्का देकर इसे गिरा दें। न ही इसका कोई निश्चित पता है कि चुनी हुई सरकारें ईडी या सीबीआई का छापा डलवा दें। एक बार लोकतंत्र की नींव का पत्थर रख जाए और उस पत्थर के ऊपर 70 सालों तक सफलतापूर्वक ढाँचा खड़ा किया जा सके तो यह लगभग असंभव है कि कोई सरकार या विचार उस ढांचे को कभी समाप्त कर पाएगी।


भारत का लोकतंत्र भी इतनी जगहों और गहराई तक जा चुका है कि लोकसभा की सभी सीटें जीतने के बाद भी कोई दल इसे इस देश से ‘विलुप्त’ नहीं कर सकता। यह जरूर है कि लोकतंत्र ‘लुप्तप्राय’ या‘खतरे’ में आ सकता है।

लगभग 100 सालों के अनवरत संघर्ष के बाद जब भारत ने 1947 में आजादी पाई तब से लेकर आजतक स्वतंत्रता और लोकतंत्र भारत की अंतरात्मा की आवाज़का हिस्सा बन चुका है जिसे अब नहीं मिटाया जा सकता। इसलिए एक चुनी हुई सरकार का आकलन बुद्धिजीवियों और जनता दोनों को इस बात से करना चाहिए कि यह ‘कमजोर और भ्रष्ट’ सरकार है या नहीं? क्योंकि लोकतंत्र की समाप्ति तो भारत में असंभव है, हाँ क्षरण जरूर संभव है जो कि हो भी रहा है।

लोकतंत्र का क्षरण उसकी संस्थाओं में परिलक्षित होता है। 2017-18 में सर्वोच्च न्यायालय के चार न्यायाधीशों को प्रेसवार्ता करनी पड़ जाती है कि सर्वोच्च न्यायालय में सब कुछ सही नहीं चल रहा है। 3 सालों से सर्वोच्च न्यायालय धारा 370 के मुद्दे की सुनवाई तक नहीं शुरू कर पाता है। चुनावी बॉन्ड का मुद्दा जिसकी वजह से साफ-सुथरे चुनावों के संचालन में कठिनाई है, जिसकी वजह से धन का संग्रह एक खास दल तक सीमित हो गया है, इस आवश्यक मुद्दे की भी सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय नहीं कर पाया है।

जनजातीय आधिकारों के लिए जीवन भर लड़ाई लड़ने वाले स्टैन स्वामी की जेल में ही मौत हो जाती है, भीमा कोरेगाँव मामले में उन्हे आरोपी बनाया गया, अभी तक कुछ साबित नहीं हुआ, लेकिन वह बुजुर्ग आदमी देश की न्यायपालिका की ओर आशा की निगाह से देखता रहा गया पर उसे राहत नहीं दी गई। सबसे अधिक उम्र में आतंकवाद के ‘आरोप’ में स्टैन स्वामी जेल में ही मर गए। देश में खुलेआम दल-बदल कानून का दुरुपयोग किया जा रहा है लेकिन न्यायालय असहाय हैं। सामाजिक कार्यकर्ताओं पर थोक के भाव UAPA लगाया जा रहा है लेकिन न्यायालय खामोश हैं।

यूपीएससी जैसे संस्थान 2011 में सीसैट लागू करने के बाद से आज तक हिन्दीभाषी व क्षेत्रीय भाषा के छात्रों के लिए न्याय करने में विफल रहे हैं। हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं से चयनित होने वाले छात्रों का प्रतिशत अर्श से फर्श पर आ चुका है लेकिन इस संवैधानिक संस्था को आत्मनिरीक्षण करने की फुरसत तक नहीं मिल पा रही है।

उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग जैसे संस्थान लगभग तानाशाही के मूड में हैं। छात्रों के सरोकारों से उनका कोई मतलब नहीं। यह आयोग 2018 में बिना बताए स्केलिंग पद्धति को समाप्त कर देता है जिसकी वजह से हिन्दी भाषी एवं कला वर्ग के विषयों से परीक्षा देने वाले छात्रों को भारी नुकसान होता है;न्यायालय में 3 सालों से छात्र इस आयोग की तानाशाही के खिलाफ लड़ रहे हैं परंतु छात्रों का संघर्ष है कि समाप्त होने का नाम ही नहीं लेता।

कोरोना काल में छात्रों के 2-2 अवसर महामारी की भेंट चढ़ गए लेकिन सरकार और आयोग दोनों असंवेदनशील बने हुए हैं, कोई राहत देने को तैयार नहीं। आयोग एक संवैधानिक संस्था है लेकिन 12 महीनों में प्रारम्भिक परीक्षा के लिए 150 सही प्रश्न तक नहीं बना पाता। औसतन हर साल 10-15 गलत प्रश्न छात्रों की साल भर की मेहनत पर पानी फेर देते हैं। अभी हाल में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आयोग की 2021 की सम्पूर्ण परीक्षा ही रद्द कर दी। अंदाजा लगाया जा सकता है कि आयोग क्या कर रहा है? साथ ही यह भी समझा जा सकता है कि सरकार छात्रों की जायज मांगों के प्रति कितना गंभीर है।

एसएससी, नीट, यूपीएससी, यूपीपीएससी, यूपीएसएसएससी आदि सभी के छात्र परेशान हैं, परीक्षाओं के प्रश्नपत्र लगातार लीक हो रहे हैं, पारदर्शिता का अभाव बेचैन करने वाला है। लेकिन छात्र असहाय हैं। प्रार्थना, अहिंसक प्रदर्शन, विनय, निवेदन आदि के अतिरिक्त ज्यादा कुछ रास्ते नहीं हैं उनके पास। अपने देश के युवा छात्रों की समस्या समझने में विफल सरकारें वास्तव में कमजोर सरकारें हैं जिन्होंने ऐसा तंत्र ही नहीं विकसित किया जिससे निदान शीघ्र हो सके। लीक होते पेपर, कमजोर और भ्रष्ट सरकार के लक्षण हैं, सरकार को इससे बचना चाहिए।

 

कोविड की शुरुआत में न चेतना; लोगों के जीवन से पहले चुनावी लाभ को देखना; अवैज्ञानिक तरीके से लॉकडाउन लगा देना; सैकड़ों भारतीयों का सड़कों पर मर जाना; सर्वोच्च न्यायालय में जाकर झूठ बोलना कि सड़कों पर कोई नहीं है और न ही कोई सड़कों पर मर रहा है; लाखों लोगों के आक्सीजन की कमी से मर जाने के बाद भी साफ झूठ बोल जाना कि कोई नहीं मरा, यह सभी लक्षण एक बेहद कमजोर सरकार के लक्षण हैं।

2 करोड़ रोजगार प्रतिवर्ष का वादा करने के बाद भी सरकार पिछले 8 सालों मंय कुछ लाख रोजगार ही दे सकी। जब बेरोजगारी के आंकड़ों ने सरकारी मशीनरी की गर्मी बढ़ाई तो बिना सोची समझी योजना ‘अग्निवीर’ के रूप में सामने आई। लाखों छात्रों ने देशभर में प्रदर्शन किया लेकिन सरकार पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा। वेटेरन लेफ्टिनेंट जनरल प्रकाश कटोच का मानना है कि- सरकार की मंशा सेना की रेजिमेंटल प्रणाली को खत्म करने की है, जो आर्मी की आधारशिला है। यह योजना इतनी जल्दबाजी में क्यों लाई गई?

सेना में अगर इतना व्यापक परिवर्तन करना था तो कम से कम तीनों सेनाओं के जितने भी जीवित मुखिया  हैं उनके साथ सलाह मशविरा कर लेते। यह डर कि सबसे मशविरा करने पर योजना पर पानी फिर सकता है, एक कमजोर सरकार का लक्षण हैं। जिस तरह से केंद्र सरकार के सबसे प्रमुख मंत्री खुलेआम सीआईएसएफ को धीरे धीरे खत्म करके सुरक्षा प्राइवेट हाथों में सौंपने की बात करते पाए गए उससे तो यह भी लगता है कि यह योजना सिर्फ कमजोर सरकार की नहीं बल्कि भ्रष्ट सरकार के दृष्टिकोण से आई है।

केंद्र के सभी बड़े नेताओं और मंत्रियों ने मंचों से खड़े होकर यह दावा किया था कि नोटबंदी (2016) से देश में काले धन की समाप्ति हो जाएगी; कश्मीर में आतंकवाद का खात्मा हो जाएगा। दुर्भाग्य से सब झूठ निकला। नोटबंदी के बाद ही हमारी फौज पर पुलवामा जैसा हमला हुआ; कई जवान शहीद हो गए; हाल ही में कश्मीर में कश्मीरी पंडितों की लगातार हत्याएं हो रही थीं;कश्मीरी पंडित घाटी छोड़कर जम्मू शिफ्ट होने लगे थे, मतलब साफ है कि नोटबंदी के बावजूद टेरर फंडिंग में कमी नहीं आई। 

यूपीए के 10 सालों के दौरान प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने मात्र 112 छापे मारे लेकिन वर्तमान सरकार के कार्यकाल में पिछले 8 सालों में ईडी, 3000 से अधिक छापे मार चुकी है। अगर नोटबंदी से काला धन खत्म हो चुका था तो ईडी को इतने छापे क्यों मारने पड़ गए? अगर नोटबंदी के बाद भी देश में फिर से इतना काला धन इकट्ठा हो गया कि लगातार छापे मारने पड़ जाएँ तो इसका मतलब यह है कि सरकार असक्षम और कमजोर है। उसमें भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए कोई विजन नहीं है। और अगर काला धन इकट्ठा नहीं हुआ है और नोटबंदी सफल रही है तो इसका मतलब है कि सरकार कमजोर और असुरक्षित है। और अपनी असुरक्षा के कारण विपक्षी दलों के नेताओं को उत्पीड़ित कर रही है। वास्तविकता क्या है यह या तो सरकार स्वयं बताए या जनता उससे पूछे।

जीएसटी को लागू करने की बात सन 2000 से बाजपेई सरकार से ही चल रही थी। किसी को जीएसटी से आपत्ति नहीं थी। मुद्दा यह था कि कैसे भारत जैसे विशाल देश में इसे लागू किया जाए। वर्तमान सरकार ने 1 जुलाई 2017 को जीएसटी लागू कर दिया। लागू करने के बाद सैकड़ों संशोधन किए गए। हो सकता है कि सरकार के लिए ये संशोधन ‘हिट एण्ड ट्रायल’ रहेहों लेकिन इसकी वजह से भारत के असंगठित क्षेत्र और MSMEs की कमर टूट गई। लाखों की संख्या में MSMEs बंद हो गईं और लोगों के रोजगार छिन गए।

जहां देसी उद्योग बर्बाद हो रहा था वहीं कुछ उद्योग घराने 1000 करोड़ रुपया प्रतिदिन कमा रहे थे। यह फैसला दृष्टिहीनता वाली कमजोर सरकार का फैसला था जिसकी कीमत देश के गरीबों और अर्थव्यवस्था को चुकानी पड़ी। आज हालत यह है कि खाने के सामानों -आटा, दालें, दूध और इसके उत्पादों पर जीएसटी 5% है और हीरा उद्योगजिसमें भारी प्रॉफ़िट होता है, इसमें जीएसटी 1.5% है। वैश्विक भुखमरी सूचकांक-2021, में 116 देशों में 101वें स्थान पर रहने वाले भारत में ऐसी सरकारी नीति! सरकार की नीयत पर प्रश्न उठाने वाली है। अपने नागरिकों के हितों का संरक्षण करने में नाकाम सरकार कमजोर ही कही जाएगी।

महंगाई पर वित्त मंत्री का भाषण और दलीलें सुनने से अच्छा है कि यह समझा जाए कि क्यों कन्नौज की 6 साल की कृति अब 7 रुपये की छोटी मैगी मिलने से परेशान है? उसकी जेब में पड़े 5 रुपये अब मैगी खरीदने के लिए कम पड़ गए हैं। जब कृति के नई पेंसिल मांगने पर उसकी माँ उसे डांटती है तो उसे नहीं समझ आता ऐसा क्यों है? महंगाई को लेकर किसी भी आँकड़े से अधिक कृति का यह पत्र महत्त्वपूर्ण है जिसमें वह प्रधानमंत्री से शिकायत करती है कि आपने पेंसिल और रबड़ भी महंगी कर दी है।

महंगाई सिर्फ सांख्यिकी का आंकड़ा मात्र नहीं है बल्कि करोड़ों भारतीयों द्वारा हर दिन, हर पल जिया जाने वाला यथार्थ है। बढ़ती महंगाई गरीबों के अपने ही चादर में सिकुड़ कर बैठ जाने का प्रमाण है। कृति को रुपये की घटती कीमत चुभ रही है, लेकिन ‘ब्लैक एण्ड व्हाइट’ मीडिया को इसमें अच्छाई दिख रही है और मैडम मिनिस्टर को रुपये की घटती कीमत रुपये द्वारा अपने रास्ते की तलाश समझ आ रही है। कृति के घर की आय मंत्री महोदय और लाखों के ‘पैकेज’ के ऊपर बैठे पत्रकारों को कभी नहीं समझ आएगी।

एलएसी में चीन की आक्रामकता को देश की जनता के सामने सिरे से नकार देना; साल भर तक अपने परिवार सहित सड़क पर बैठे रहे किसानों को झूठा आश्वासन देकर उठा देना; संसद में अहम मुद्दों पर चर्चा न करवाना; कानूनों को संसदीय समिति की जांच में न जाने देना किसी विदेशी कंपनी के जासूसी सॉफ्टवेयर द्वारा भारतीयों की निजता पर हमला होते रहने देना; बहादुर नहीं बेहद कमजोर सरकार के लक्षण हैं।

विपक्षी नेताओं के खिलाफ प्रतिशोध की राजनीति, कमजोरी की निशानी है। विपक्षी नेताओं को जेल भेजकर डराने की कोशिश, कोई रणनीति नहीं बल्कि डर का प्रतीक है। संवैधानिक और वैधानिक संस्थाओं को ‘कंट्रोल’ करके उनके माध्यम से आलोचकों को ‘खामोश’ करना किसी ‘चाणक्य’ का ‘मास्टरस्ट्रोक’ नहीं बल्कि सत्ता फिसल जाने के डर की हड़बड़ी में किए गए फैसलों का प्रतीक है।

स्वयं के किए वादों और फ्लैग-शिप योजनाओं को भूल जाना वादों और इरादों में पनपनते भ्रष्टाचार का प्रतीक है। मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, गंगा का जीर्णोद्धार, किसानों की आय दोगुनी(2022 तक), 2 करोड़ रोजगार प्रतिवर्ष, काले धन की वापसी, सारे वादे कहीं अतीत में दब गए हैं। इन वादों पर कई अन्य वादों का भार आ चुका है। लगता है जैसे पुराने वादे दम घुट कर मर चुके हों। यह कमजोर सरकार की कमजोर नीतियों, जिन्हे कमजोर नीति- निर्माताओं ने एक लचर विजन से देश के अंतःकरण से ‘खेलने’ के लिए बनाया था। 

पहले से समाप्तप्राय धारा 370 को खत्म करना और 1200 सालों से चली आ रही भक्ति आंदोलन वाले उस देश में जहां राम कण कण में हैं, जहां की नर्मदा नदी का हर कंकड़ शंकर समझा जाता है वहाँ मंदिर बनाने से न किसी नेता को मजबूत माना जा सकता है न ही किसी दल या संगठन को। भारत में राम मंदिर निर्माण आस्था, भक्ति और कानून के दायरे में चलकर अपनी यात्रा स्वतः ही पूरी कर लेता उसमें किसी सरकार की कोई आवश्यकता नहीं।

किसी नेता को किस आधार पर मजबूत कहा जा सकता है जबकि उसके पास 25-30 पत्रकारों के सवालों का जवाब देने का भी साहस न बचा हो। वह सरकार कैसे सशक्त और हिम्मत वाली हो सकती है जिसका नेतृत्व एक ऐसे व्यक्ति के हाथ में हो जिसे मोनोलॉग करने की आदत हो चुकी हो। लोकतंत्र जिसका दूसरा नाम ही संवाद है वहाँ मोनोलॉग, एक अस्वस्थ परंपरा है।


जो सरकार सत्य सूचनाओं के सामने आने से घबराती हो वो कैसे मजबूत सरकार हो सकती है? मजबूती लोकसभा व राज्यसभा में सांसदों की संख्या से नहीं पैदा की जा सकती। मजबूती के लिए केन्द्रीय नेतृत्व को कुर्सी का लालच छोड़ना पड़ता है, संस्थाओं को बचाने के लिए अपनी सरकार को दांव पर लगाना होता है, कुर्सी से पहले देश के बारे में सोचना होता है और विपक्ष में बैठने के लिए तैयार रहना होता है। ऐसी सोच रखने वाला नेता मजबूत नेता और ऐसी सरकार मजबूत सरकार होती है। 

रही बात भारत में लोकतंत्र के खत्म होने की, तो यह समझ लें कि भारत का लोकतंत्र रेडियोएक्टिव पदार्थ की तरह है जिसकी ज्यादा से ज्यादा अर्द्ध-आयु तो बताई जा सकती है लेकिन समाप्ति की घोषणा नहीं की जा सकती। अर्थात स्रोत कभी खत्म नहीं होगा और भारत में जीवन भर अनंत काल तक लोकतंत्र का उत्सर्जन होता रहेगा।

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