क्या सरकार के निशाने पर हैं न झुकने वाले अधिकारी और स्वायत्त संस्थान?
देश की आज़ादी के बाद से आज तक तमाम सरकारों पर यह आरोप लगता रहा है कि वे अपने राजनीतिक विरोधियों पर दबाव बनाने के लिए जांच एजेंसियों का ग़लत इस्तेमाल करती हैं। विपक्ष में रहे दलों ने यह आरोप सत्तारुढ़ दलों पर पहले भी लगाये हैं और आज जो दल विपक्ष में हैं, वे भी सत्तापक्ष पर ऐसे आरोप लगाते हैं। यहां तक तो ठीक है लेकिन पिछले कुछ सालों में ऐसे मामले सामने आए जिनमें आरोप लगा कि सरकार के साथ ‘एडजस्ट’ न होने के कारण सरकारी अधिकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की गई या उन्हें परेशान किया गया। विपक्षी दल यह आरोप भी लगाते हैं कि मोदी सरकार न्यायपालिका, निर्वाचन आयोग और सीबीआई जैसे संस्थानों की स्वायत्तता को कमज़ोर करने की कोशिश कर रही है। रिजर्व बैंक ऑफ़ इंडिया (आरबीआई) के कामकाज में केंद्र सरकार के हस्तक्षेप की बात भी सामने आई थी। पिछले कुछ सालों में ऐसे कौन से बड़े मामले हुए, आज इस बारे में बात करते हैं।
जजों का प्रेस कॉन्फ़्रेंस करना
न्यायपालिका के इतिहास में उस समय सनसनी फैल गई थी जब 2017 में चार जजों ने प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर कहा था कि देश में लोकतंत्र ख़तरे में है। ऐसा भारत के इतिहास में पहली बार हुआ था जब सुप्रीम कोर्ट के जजों ने प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर अपनी बात रखी थी। तब इस मसले पर काफ़ी विवाद भी हुआ था। न्यायपालिका के एक तबक़े का मानना था कि सरकार और सरकार से जुड़े मामलों में सुप्रीम कोर्ट पर अनाश्वयक दबाव डाला जा रहा है और मनमाने फ़ैसले करवाने की कोशिश की जा रही है। यह वह समय था जब जस्टिस लोया की मौत का मामला बहुत गर्म था और भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह की तरफ़ संदेह की उंगलियां उठ रही थी। हालांकि बाद में सुप्रीम कोर्ट ने लोया के मामले में लगे सारे आरोपों को बेबुनियाद बताया था।
आलोक वर्मा को हटाया जाना
सीबीआई के निदेशक रहे आलोक वर्मा को रात के दो बजे मोदी सरकार ने पद से हटा दिया था। वर्मा की जगह नागेश्वर राव को अंतरिम निदेशक नियुक्त किया गया था। तब यह प्रश्न उठा था कि आख़िर सरकार के सामने ऐसी कौन सी मुश्किल आ गई थी कि उसे रात के दो बजे सीबीआई के निदेशक को हटाना पड़ा। कांग्रेस ने आरोप लगाया था कि वर्मा ने रफ़ाल सौदे की फ़ाइल मँगाई थी और इस वजह से उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई हुई थी।
आलोक वर्मा ने केंद्र सरकार की कार्रवाई का विरोध किया था और सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। कोर्ट ने केंद्र सरकार को झटका देते हुए वर्मा को पद पर बहाल करने का आदेश दिया था लेकिन 10 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली तीन सदस्यीय समिति ने 2-1 के बहुमत से वर्मा को पद से हटा दिया था।
वर्मा ने पद से हटाये जाने के बाद कहा था कि कुछ लोगों ने सीबीआई की विश्वसनीयता को बर्बाद करने की कोशिश की थी। तब यह सवाल उठा था कि क्या आलोक वर्मा को जानबूझकर बलि का बकरा बनाया गया है।
एनएसएसओ के आंकड़े छुपाना
इसी साल फ़रवरी में एनएसएसओ (नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन) की रिपोर्ट आई थी, जिसमें कहा गया था कि बेरोज़गारी पिछले 45 साल में सबसे ज़्यादा हो गई है। तब केंद्र सरकार ने कहा था कि वह ड्राफ़्ट रिपोर्ट थी लेकिन केंद्रीय सांख्यिकी आयोग के पूर्व प्रमुख पीसी मोहनन ने इसे ग़लत बताया था।
मोहनन ने कहा था कि एनएसएसओ की रिपोर्ट 5 दिसंबर, 2018 को आई थी और आयोग ने इसे मंजूरी भी दे दी थी, लेकिन इसके बाद भी इसे सरकार जारी नहीं कर रही थी। उन्होंने कहा था कि कि आयोग की लगातार उपेक्षा की जा रही थी और और इसी कारण से उन्होंने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। मोहनन ने यह भी कहा था कि उन्होंने व्यक्तिगत कारणों से इस्तीफ़ा नहीं दिया था। लोकसभा चुनाव से पहले एनएनएसएसओ की रिपोर्ट से किनारा करने वाली केंद्र सरकार ने बाद में इसे मान लिया था।
संजीव भट्ट को आजीवन कारावास
गुजरात के जामनगर की एक स्थानीय अदालत ने 1990 में पुलिस हिरासत में हुई मौत के एक मामले में इस साल जून में गुजरात कैडर के बर्खास्त आईपीएस अफ़सर संजीव भट्ट को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। लोगों को इस पर हैरानी हुई थी क्योंकि यह मामला क़रीब 30 साल पुराना था।
बता दें कि संजीव भट्ट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ खुलकर बोलने के लिए चर्चा में रहे हैं। उन्होंने गुजरात दंगों में नरेंद्र मोदी का हाथ होने का आरोप लगाते हुए उनके ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में हलफ़नामा तक दिया था। भट्ट ने 14 अप्रैल 2011 को सुप्रीम कोर्ट में हलफ़नामा देकर आरोप लगाया था, 'मोदी ने 27 फ़रवरी 2002 को एक बैठक में पुलिस के शीर्ष अधिकारियों से कहा कि वे मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंदुओं को अपना ग़ुस्सा बाहर निकालने दें।'
लेकिन गुजरात दंगों में पीएम मोदी के ख़िलाफ़ कोई आरोप साबित नहीं हो पाए थे और इसके बाद संजीव भट्ट के बुरे दिन शुरू हो गए थे। मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद पहले भट्ट को नौकरी से निलंबित किया गया था और 2015 में बर्खास्त कर दिया गया था।
रजनीश राय का ज़िक्र ज़रूरी
यहां एक और आईपीएस अफ़सर का ज़िक्र करना ज़रूरी होगा। नाम है उनका रजनीश राय।
रजनीश राय ने 2005 में गुजरात में हुए सोहराबुद्दीन शेख़ एनकाउंटर केस की जाँच की थी और गुजरात के ही दूसरे आईपीएस अधिकारी डीजी वंजारा और दूसरे पुलिसकर्मियों को ऑन ड्यूटी गिरफ़्तार किया था। इसके बाद से ही बीजेपी सरकार और रजनीश राय में अनबन शुरू हो गई थी। उस दौरान नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे।
मई 2007 में रजनीश को मामले की जाँच से हटा दिया गया था। 2014 में केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद रजनीश राय का ट्रांसफ़र सीआरपीएफ़ में कर दिया गया था। लेकिन रजनीश अपनी ईमानदारी को लेकर वहाँ भी सबकी नज़रों में आ गए थे और मोदी सरकार ने रजनीश का ट्रांसफ़र आंध्र प्रदेश कर दिया था। पिछले साल दिसंबर में रजनीश ने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था और इस साल 6 मई से वह आईआईएम, अहमदाबाद में बतौर एसोसिएट प्रोफ़ेसर नौकरी कर रहे थे।
लेकिन सरकार ने उनका पीछा यहां भी नहीं छोड़ा और मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से राय को आईआईएम, अहमदाबाद में नौकरी क्यों दी गई, इसे लेकर सवाल उठाया गया था। इसे लेकर गुजरात हाई कोर्ट ने आपत्ति जताई थी। कोर्ट ने कहा था कि आईआईएम एक स्वतंत्र संस्थान है, ऐसे में भारत सरकार उसे इस तरह का पत्र कैसे लिख सकती है।
गुजरात में रजनीश राय के अलावा राहुल शर्मा और सतीश वर्मा, ये दोनों ऐसे आईपीएस अधिकारी थे जिन्होंने मोदी सरकार के काम करने के तरीक़ों का जोरदार विरोध किया था। राहुल शर्मा ने गुजरात में 2002 में हुए दंगों के दौरान बेहद सख़्ती से काम किया था और दंगों के आरोपी राजनेताओं और दंगाइयों के बीच संबंधों को भी उजागर किया था।
इशरत जहाँ एनकाउंटर को बताया था फर्जी
सतीश वर्मा ने जून 2004 में हुए इशरत जहाँ एनकाउंटर को फर्जी बताया था। गुजरात पुलिस की क्राइम ब्रांच की टीम ने इस एनकाउंटर में 4 लोगों को मार गिराया था। मरने वालों में इशरत जहाँ भी थी, जिसका ताल्लुक आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा से बताया गया था। इसके अलावा प्रनेश पिल्लै उर्फ़ जावेद गुलाम शेख़, अमजद अली राना और जीशान जौहर को भी पुलिस ने मार गिराया था। डीआईजी डीजी वंजारा की अगुवाई में पुलिस ने इस ऑपरेशन को अंजाम दिया था। यह एनकाउंटर गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए नासूर बन गया था।
'क्लीन चिट' पर उठाया था सवाल
कुछ ही दिन पहले ख़बर आई थी कि चुनाव आयुक्त अशोक लवासा की पत्नी, बहन और बेटे आयकर विभाग की जाँच के घेरे में हैं। अंग्रेजी अख़बार ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के मुताबिक़, चुनाव आयुक्त अशोक लवासा की पत्नी नोवेल सिंघल लवासा के ख़िलाफ़ कर चोरी के आरोपों में आयकर विभाग जांच कर रहा है। इतना ही नहीं लवासा की बहन शकुंतला लवासा और बेटे अबीर लवासा को भी आयकर विभाग की ओर से नोटिस भेजा गया है।
यह वही लवासा हैं जिन्होंने लोकसभा चुनाव के दौरान मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा को चिट्ठी लिख कर इस बात पर असंतोष जताया था कि आचार संहिता के उल्लंघन के मामलों को लेकर विचार करने वाली बैठकों में उनकी असहमतियों को दर्ज नहीं किया जाता है। उस समय यह चिट्ठी सामने आने के बाद हड़कंप मच गया था क्योंकि चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन के मामलों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को लगातार ‘क्लीन चिट’ मिलने के बाद विपक्षी दलों ने चुनाव आयोग को निशाने पर ले लिया था।
चुनाव आयोग के इन फ़ैसलों की काफ़ी आलोचना हुई थी। यह बात भी चर्चा में रही थी कि मोदी और शाह को ‘क्लीन चिट’ चुनाव आयुक्तों की आम सहमति से नहीं दी गई थी और एक चुनाव आयुक्त की आपत्तियों को दरकिनार करते हुए ऐसा किया गया था।
लवासा की पत्नी, बहन और बेटे को नोटिस मिलने के बाद यह माना गया था कि उन्हें मोदी और शाह को ‘क्लीन चिट’ देने के मामलों में अन्य चुनाव आयुक्तों से अलग ‘रुख’ रखने की सजा मिल रही है।
आरबीआई-मोदी सरकार में तनातनी
आरबीआई के साथ केंद्र सरकार की कई मुद्दों पर चल रही तनातनी तब और बढ़ गई थी जब पिछले साल अक्टूबर में आरबीआई के केन्द्रीय बोर्ड के सदस्य नचिकेत मोर को कार्यकाल पूरा होने से दो साल पहले ही बिना सूचना दिए बोर्ड से हटा दिया गया था। मोर ने सरकार द्वारा आरबीआई से अधिक लाभांश माँगे जाने का विरोध किया था और माना गया था कि विरोध करने के कारण ही मोर को बोर्ड से हटा दिया गया।
आरबीआई के पूर्व डेप्युटी गवर्नर विरल आचार्य ने भी कहा था कि केंद्र सरकार की ओर से बैंक के कामकाज में दख़ल देना ख़तरनाक साबित हो सकता है। विरल आचार्य ने कार्यकाल पूरा होने से 6 महीने पहले ही इस्तीफ़ा दे दिया था। उससे पहले आरबीआई के पूर्व गवर्नर उर्जित पटेल ने पीएनबी में हुए घोटाले को लेकर गुस्सा और अफ़सोस ज़ाहिर किया था और इसे देश के भविष्य के साथ लूट बताया था। बताया जाता है कि मोदी सरकार के साथ अनबन के कारण ही उर्जित पटेल को पद छोड़ना पड़ा था।
उर्जित पटेल ने कार्यकाल पूरा होने के 9 महीने पहले इस्तीफ़ा दे दिया था। उर्जित पटेल से पहले गवर्नर रघुराम राजन और मोदी सरकार के बीच टकराव हो चुका था। इसलिए जब पटेल ने इस्तीफ़ा दिया तो यह सवाल उठे थे कि क्या सरकार आरबीआई की स्वायत्तता को चुनौती दे रही है
आरबीआई के बोर्ड में आरएसएस से जुड़े एस. गुरुमूर्ति को मोदी सरकार द्वारा निदेशक बनाये जाने पर भी बोर्ड और सरकार के बीच तनानती हुई थी।
सीबीडीटी चेयरमैन पर गंभीर आरोप
ताज़ा मामला केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) के चेयरमैन प्रमोद चंद्र मोदी का है। मोदी पर बेहद गंभीर आरोप लगे हैं। सीबीडीटी के चेयरमैन पर उन्हीं के विभाग की एक शीर्ष महिला अफ़सर अलका त्यागी ने आरोप लगाया है कि चेयरमैन ने एक ‘संवेदनशील मामले’ को ख़त्म करने के लिए उन्हें ‘चौंकाने वाला निर्देश’ दिया था। साथ ही यह भी आरोप लगाया था कि मोदी ने इस बात को स्वीकार किया था कि उन्होंने एक विपक्षी नेता के ख़िलाफ़ ‘सफल सर्च ऑपरेशन’ चलाया था और इसी वजह से वह अपनी कुर्सी को सही-सलामत रख सके थे। केंद्र सरकार ने मोदी का कार्यकाल एक साल के लिए बढ़ा दिया था।
अंग्रेजी अख़बार ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के मुताबिक़, त्यागी की ओर से केंद्रीय वित्त मंत्री को 9 पन्नों की शिकायत भेजी गई है और इसमें आरोप लगाया गया है कि मोदी की ओर से उन पर बहुत ज़्यादा ‘दबाव’ बनाया गया। त्यागी इनकम टैक्स विभाग के प्रिंसिपल चीफ़ कमिश्नर के पद पर नियुक्त किये जाने के इंतजार में थीं लेकिन उन्हें नागपुर स्थित राष्ट्रीय प्रत्यक्ष कर अकादमी का प्रिंसिपल डायरेक्टर जनरल (ट्रेनिंग) बना दिया गया था।