सर्वे में मोदी आगे, हक़ीक़त में देश पीछे !
इंडिया टुडे और सी वोटर के मूड ऑफ द नेशन सर्वे अगस्त 2022 के अनुसार नरेंद्र मोदी को 53 फ़ीसदी लोग 2024 में प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं। जाहिर है कि पिछले दो साल में मोदी की लोकप्रियता में गिरावट दर्ज हुई है। 2020 में मोदी 66 फीसदी लोगों की पसंद थे। आर्थिक संकट और कोरोना से निपटने में नाकाम रहे नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता अगस्त 2021 में केवल 24 फीसदी रह गई थी। उस समय 84 फीसदी परिवारों ने माना था कि उन्होंने आजीविका गंवाई है और उनकी आमदनी घटी है। जबकि 46 फीसदी लोगों का मानना था कि सरकार की आर्थिक नीतियां बड़े पूंजीपतियों के हित में हैं।
अगस्त 2021 से अगस्त 2022 के बीच प्रधानमंत्री की लोकप्रियता में काफी सुधार दिख रहा है। जाहिर है, किसान आंदोलन की समाप्ति, यूपी चुनाव में प्रचंड जीत तथा महाराष्ट्र में सरकार बनाने के कारण नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता बढ़ी होगी। लेकिन हम यह कैसे भूल सकते हैं कि हाल ही में बिहार गंवाने वाली भाजपा के मुखिया बेरोजगारी और महंगाई पर बुरी तरह से घिरे हुए हैं। पिछले दिनों सेना में अस्थाई भर्ती को लेकर पूरे देश में खासकर हिन्दी पट्टी में नौजवानों ने बड़े पैमाने पर आक्रोश जाहिर किया था। बिहार और यूपी में उग्र आंदोलन हुए। लेकिन मोदी ने बड़ी चतुराई से आजादी के 75 साल पूरे होने के अवसर को 'हर घर तिरंगा' अभियान के जरिए बेरोजगारी के सवाल को राष्ट्रवाद और देशभक्ति की ओर मोड़ दिया है।
सवाल यह है कि तिरंगा अभियान के जरिए क्या अग्निवीर और बेरोजगारी का मुद्दा भुलाया जा सकता है? जबकि इसी बीच बेरोजगारों की 'तिरंगा यात्रा' को पुलिसिया तंत्र द्वारा कुचलने की कोशिश की गई तथा सरकारी भोंपू बने मीडिया के जरिए देशभक्ति और राष्ट्रवाद के शोर में बेरोजगारों की तिरंगा यात्रा को गायब किया जा रहा है।
आज भारत की अर्थव्यवस्था बदहाल है। भाजपा सरकार आर्थिक मोर्चे पर फ्लॉप साबित हुई है। 'अच्छे दिन' के मुहावरे के साथ प्रतिवर्ष दो करोड़ नौकरियां सृजित करने और गरीबी-भ्रष्टाचार मुक्त भारत के वादे के साथ सत्ता में आई मोदी सरकार की अपनी नीतियों, धारणाओं और गतिविधियों के कारण पिछले 8 सालों में भारत का आर्थिक और सामाजिक तानाबाना बिखर गया है। नोटबंदी, जीएसटी जैसे नीतिगत फैसलों का प्रतिकूल असर ग्रामीण अर्थव्यवस्था और शहरी व्यापार पर हुआ। कोरोना संकटकाल की बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था और सरकारी कुप्रबंधन के कारण लाखों लोगों की मौत ही नहीं हुई बल्कि देश में गरीबी और असमानता भी तेजी से बढ़ी है। जनवरी 2022 में जारी ऑक्सफैम की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में एक साल में अरबपतियों की संख्या 102 से बढ़कर 142 हो गई। इनकी कुल दौलत करीब 720 बिलियन डालर हो गई है, जो भारत की 40 फीसदी गरीब आबादी की कुल संपत्ति से भी ज्यादा है।
इसी दरम्यान 84 फीसदी लोगों की आमदनी घटी है। बढ़ती असहिष्णुता और अराजकता के कारण बहुत सी विदेशी कंपनियां भारत से वापस लौट गईं। 'मेक इन इंडिया' मिशन सिर्फ कागजों पर ही रह गया। जीएसटी की मार और कोरोना काल की आपदा के चलते मध्यम और लघु उद्योग-धंधे चौपट हो गए। इन कंपनियों को सरकार ने उबारने की कोई कोशिश नहीं की जबकि बड़े कारपोरेट घरानों को बेलआउट पैकेज के नाम पर करोड़ों रूपए लुटा दिए गए। नतीजतन असंगठित क्षेत्र में बहुत तेजी से बेरोजगारी बढ़ी। करोड़ों बेरोजगार औद्योगिक शहरों से अपने गाँव लौट गए।
जाहिर है, गाँवों में इतने रोजगार के अवसर नहीं हैं। ऐसे में मनरेगा कारगर हो सकती थी। लेकिन सरकार ने उसका अपेक्षित बजट नहीं बढ़ाया। अलबत्ता, कुछ लोगों को मनरेगा में लगाया गया लेकिन लाखों मजदूरों को अभी भी भुगतान नहीं हुआ है। इससे भुखमरी और कुपोषण बढा। ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2021 में भारत 116 देशों में पिछले वर्ष 2020 के 94वें स्थान से गिरकर 101वें स्थान पर पहुँच गया है। कुपोषण में हमारी हालत पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश से भी बदतर है।
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आज दुनिया के सबसे अधिक अविकसित (4.66 करोड़) और कमजोर (2.55 करोड़) बच्चे भारत में हैं। जबकि 33 लाख 23 हजार 322 बच्चे कुपोषित हैं। इनमें 17.7 लाख बच्चे गंभीर रूप से कुपोषित हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार पर सरकार का कोई जोर नहीं है। केवल राशन देकर सरकार खुद अपनी वाहवाही कर रही है और इसके जरिए वोट उगाही कर रही है।
बढ़ती महंगाई के कारण स्थिति भयावह हो गई है। थोक महंगाई 24 वर्षों में और खुदरा महंगाई 8 वर्षों में सबसे ऊँची दर पर पहुँच गई है। सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनोमी की रिपोर्ट के अनुसार नवंबर 2021 में मंहगाई दर 7 % से बढ़कर दिसंबर 2021 में 7.9% हो गई। डीजल, पैट्रोल और गैस की कीमतें आए दिन छलांग मारती हैं। इस कारण रोजमर्रा की जरूरी चीजों के दाम बढ़ गए हैं। गेहूँ के आटे की कीमत औसतन 32.9 रू. प्रति किलो है। जबकि दिल्ली में 45 रू. और पोर्ट ब्लेयर में 59 रू. किलो आटे का दाम है।
बढ़ती बेरोजगारी, घटती आमदनी और उस पर चढ़ती महंगाई से हालात बेकाबू होते जा रहे हैं। करोड़ों की आबादी गरीबी रेखा के नीचे पहुँच गई है। निम्न मध्यवर्ग गरीबी के मुहाने पर पहुँच गया है। लोग कर्जदार हो रहे हैं। बेरोजगारी और कर्ज से भुखमरी और आत्महत्याएं बढ़ रही हैं। एक आंकड़े के अनुसार प्रति तीन घंटे में दो बेरोजगार आत्महत्या कर रहे हैं। कुछ दिन पहले बड़ौत, यूपी के एक जूते व्यापारी ने फेसबुक लाइव आकर यह कहते हुए जहर खाकर आत्महत्या करने की कोशिश की, कि सरकार छोटे व्यापारियों और किसानों की हितैषी नहीं है। बाद में उसकी पत्नी ने भी जहर खा लिया। उत्तराखंड के 24 साल के सोनू बिष्ट ने अपनी मार्कसीट जलाकर फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। यूपी में भाजपा के चुनाव जीतने के बाद करीब दर्जन भर छात्रों ने अपने कागज जला दिए और कुछ ने आत्महत्या कर ली।
गृहराज्यमंत्री नित्यानंद राय ने राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में बताया कि वर्ष 2018-2020 के मध्य 9140 बेरोजगारों और 16091 लोगों ने कर्ज से परेशान होकर आत्महत्या कर ली। नरेंद्र मोदी ने किसानों से वादा किया था कि 2022 में उनकी आमदनी दो गुनी हो जाएगी। जबकि सच्चाई यह है कि खेती में घाटा होने के कारण किसान खेती छोड़ने के लिए मजबूर हैं। 2009 में कृषि क्षेत्र में कार्यबल 52.5 % था, जो 2019 में घटकर 42.6% रह गया। यानी दस साल में करीब 10 फीसदी किसानों ने खेती छोड़ दी।
मोदी ने यह भी वादा किया था कि जब आजादी के 75 साल पूरे होंगे तो सबके पास मकान होंगे। हाल ही में सरकार ने जिस महिला के मार्फत गरीबों को घर मिलने का फुल पेज विज्ञापन दिया है, उसकी सच्चाई सामने आ गई है। वह महिला आज भी भाड़े के मकान में रहती है और उसे नहीं मालूम कि अखबारों में उसका फोटो कैसे छपा है। दरअसल, मोदी सरकार लोगों के साथ मजाक और लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ कर रही है।